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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 18
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - विराट् जगती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
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    ऋ॑तू॒नां च॒ वै सआ॑र्त॒वानां॑ च लो॒कानां॑ च लौ॒क्यानां॑ च॒ मासा॑नां चार्धमा॒सानां॑चाहोरा॒त्रयो॑श्च प्रि॒यं धाम॑ भवति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒तू॒नाम् । च॒ । वै । स: । आ॒र्त॒वाना॑म् । च॒ । लोका॑नाम् । च॒ । लौ॒क्याना॑म् । च॒ । मासा॑नाम् । च॒ । अ॒र्ध॒ऽमा॒साना॑म् । च॒ । अ॒हो॒रा॒त्रयो॑: । च॒ । प्रि॒यम् । धाम॑ । भ॒व॒ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥६.१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋतूनां च वै सआर्तवानां च लोकानां च लौक्यानां च मासानां चार्धमासानांचाहोरात्रयोश्च प्रियं धाम भवति य एवं वेद ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋतूनाम् । च । वै । स: । आर्तवानाम् । च । लोकानाम् । च । लौक्यानाम् । च । मासानाम् । च । अर्धऽमासानाम् । च । अहोरात्रयो: । च । प्रियम् । धाम । भवति । य: । एवम् । वेद ॥६.१८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 6; मन्त्र » 18
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    हिन्दी (4)

    विषय

    ईश्वर के सर्वस्वामी होने का उपदेश।

    पदार्थ

    (सः) वह [विद्वान्]पुरुष (वै) निश्चय करके (लोकानाम्) सब लोकों का (च च) और (लौक्यानाम्) लोकों मेंरहनेवालों का (च) और (ऋतूनाम्) ऋतुओं का (च) और (आर्तवानाम्) ऋतुओं में उत्पन्नहुए पदार्थों का (च) और (मासानाम्) महीनों का (च) और (अर्धमासानाम्) आधे महीनोंका (च) और (अहोरात्रयोः) दोनों दिन राति का (प्रियम्) प्रिय (धाम) धाम [घर] (भवति) होता है, (यः) जो [विद्वान्] (एवम्) ऐसे वा व्यापक [व्रात्य परमात्मा] को (वेद) जानता है ॥१८॥

    भावार्थ

    मनुष्य को योग्य है किपरमात्मा को सब लोकों, लोकवालों और ऋतुओं आदि का स्वामी जानकर सब पदार्थों काविवेकी होवे और उन से यथावत् उपकार लेकर आनन्द पावे ॥१६, १७, १८॥

    टिप्पणी

    १७, १८−(तम्)व्रात्यम् (ऋतवः) वसन्तादयः (आर्तवाः) ऋतुभवाः पदार्थाः (लोकाः) भुवनानि (लौक्याः) लोक-ण्य। लोकभवाः पदार्थाः (मासाः) (अर्धमासाः) (अहोरात्रे)रात्रिदिने। अन्यत् पूर्ववत् सुगमं च ॥

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    विषय

    अनादिष्टा दिक् में 'ऋतुएँ, आर्तव, लोक, लौक्य मास, अर्धमास व अहोरात्र'

    पदार्थ

    १. (सः) = वह व्रात्य (अनादिष्टां दिशाम्) -=जिसमें किसी प्रकार का प्रयोजन [aim, inten tion] नहीं है, ऐसी एकदम निष्कामता की दिशा में (अनुव्यचलत्) = चला। (तम्) = उस व्रात्य को (ऋतवः च आर्तवा: च) = सब ऋतुएँ व ऋतुजनित सब पदार्थ (च) = और (लोक: लौक्या: च) = सब लोक और लोकों में होनेवाले पदार्थ (च) = तथा (मासा: अर्धमासा: च अहोरात्रे च) = महीने, पक्ष व दिन-रात (अनुव्यचलन्) = अनुकूलता से प्राप्त हुए। २. (यः एवं वेद) = इसप्रकार जो अनादिष्टा निष्कामता की दिशा के महत्व को समझ लेता है, (स:) = वह व्रात्य (वै) = निश्चय से (ऋतुनां च आर्तवानां च) = ऋतुओं का और ऋतुजनित (पत्र) = पुष्प-फलों का (च) = और (लोकानां लोक्यना च) = लोकों का और लोकों में होनेवालों का (च) = तथा (मासानां अर्धमासां च अहोरात्रयो: च) = महीनों, पक्षों व दिन-रात का (प्रियं धाम भवति) = प्रिय धाम बनता है।

    भावार्थ

    निष्काम होकर अनादिष्टा दिक् में आगे और आगे बढ़ने पर इस व्रात्य को सब ऋतुएँ लोक व काल अनुकूलता से प्राप्त होते हैं।

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    भाषार्थ

    (यः) जो संन्यासी व्यक्ति (एवम्) इस प्रकार के तथ्य को (वेद) जानता और तदनुसार आचरण करता है (सः) वह (वे) निश्चय से (ऋतूनाम्, च) ऋतुओं का (आर्तवानाम्, च) ऋतुसमूहों अर्थात् उत्तरायण काल, दक्षिणायन काल और वर्ष का, (लोकानाम्, च) लोकों का, (लौक्यानाम, च) लोकवासियों का, (मासानाम्, च) महीनों का, (अर्धमासानाम्, च) और शुक्ल तथा कृष्णपक्ष का, (अहोरात्रयोः, च) और दिन-रातों का (प्रियम्, धाम) प्रिय स्थान (भवति) हो जाता है।

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    विषय

    व्रात्य प्रजापति का प्रस्थान।

    भावार्थ

    (सः) वह व्रात्य प्रजापति (अनादिष्टां दिशम् अनुव्यचलत्) ‘अनादिष्टा’ दिशा को चला। (तम् ऋतवः च, आर्त्तवाः च, लोकाः च, लौक्याः च, मासाः च, अहोरात्रे च अनुवि-अचलन्) उसके पीछे ऋतु, ऋतुओं के अनुकूल वायु आदि, लोक, लोक में विद्यमान नाना प्राणी, मास, अर्धमास, दिनरात ये सब चले। (यः एवं वेद सः वै ऋतूनां च० अहोरात्रयोः च प्रियं धाम भवति) जो व्रात्य के इस प्रकार के स्वरूप को साक्षात् करता है वह ऋतु, ऋतुओं के होने वाले विशेष पदार्थों, लोकों में स्थित पदार्थों और प्राणियों, मासों अर्धमासों दिनों और रातों का प्रिय आश्रय हो जाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १ प्र०, २ प्र० आसुरी पंक्तिः, ३-६, ९ प्र० आसुरी बृहती, ८ प्र० परोष्णिक्, १ द्वि०, ६ द्वि० आर्ची पंक्तिः, ७ प्र० आर्ची उष्णिक्, २ द्वि०, ४ द्वि० साम्नी त्रिष्टुप्, ३ द्वि० साम्नी पंक्तिः, ५ द्वि०, ८ द्वि० आर्षी त्रिष्टुप्, ७ द्वि० साम्नी अनुष्टुप्, ६ द्वि० आर्ची अनुष्टुप्, १ तृ० आर्षी पंक्तिः, २ तृ०, ४ तृ० निचृद् बृहती, ३ तृ० प्राजापत्या त्रिष्टुप्, ५ तृ०, ६ तृ० विराड् जगती, ७ तृ० आर्ची बृहती, ९ तृ० विराड् बृहती। षड्विंशत्यृचं षष्ठं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    One who knows this becomes the favourite love of the seasons and seasonals, world regions and those of the world regions, months and half moths, and the day night cycles.

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    Translation

    Surely he, who knows it thus, becomes a pleasing abode of scasons and groups of seasons, of Lokas and Lokyas, of months and half-months, and of days and nights.

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    Translation

    He who knows this becomes the favourable abode of seasons, seasonable things, worlds and inhabitants of the world months, half-months and night.

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    Translation

    He who possesses this knowledge of God, verily becomes the dear home of seasons, and the products of seasons, and the worlds and their inhabitants, and the months and half-months, and the Day and Night.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १७, १८−(तम्)व्रात्यम् (ऋतवः) वसन्तादयः (आर्तवाः) ऋतुभवाः पदार्थाः (लोकाः) भुवनानि (लौक्याः) लोक-ण्य। लोकभवाः पदार्थाः (मासाः) (अर्धमासाः) (अहोरात्रे)रात्रिदिने। अन्यत् पूर्ववत् सुगमं च ॥

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