अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 26
ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - विराट् बृहती
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
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प्र॒जाप॑तेश्च॒वै स प॑रमे॒ष्ठिन॑श्च पि॒तुश्च॑ पिताम॒हस्य॑ च प्रि॒यं धाम॑ भवति॒ य ए॒वं वेद॑॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒जाऽप॑ते: । च॒ । वै । स: । प॒र॒मे॒ऽस्थीन॑:। च॒ । पि॒तु: । च॒ । पि॒ता॒म॒हस्य॑ । च॒ । प्रि॒यम् । धाम॑ । भ॒व॒ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥६.२६॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रजापतेश्चवै स परमेष्ठिनश्च पितुश्च पितामहस्य च प्रियं धाम भवति य एवं वेद॥
स्वर रहित पद पाठप्रजाऽपते: । च । वै । स: । परमेऽस्थीन:। च । पितु: । च । पितामहस्य । च । प्रियम् । धाम । भवति । य: । एवम् । वेद ॥६.२६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ईश्वर के सर्वस्वामी होने का उपदेश।
पदार्थ
(सः) वह [विद्वान्]पुरुष (वै) निश्चय करके (प्रजापतेः) प्रजापालक [राजा] का (च च) और (परमेष्ठिनः)परमेष्ठी [बड़ी स्थितिवाले आचार्य वा संन्यासी] का (च) और (पितुः) बाप का (च)और (पितामहस्य) दादा का (प्रियम्) प्रिय (धाम) धाम [घर] (भवति) होता है, (यः) जो [विद्वान्] (एवम्) ऐसे [व्रात्य परमात्मा] को (वेद) जानता है ॥२६॥
भावार्थ
जो विद्वान् पुरुषगहरे विचार से यह देखते हैं कि संसार में सब लोग परब्रह्म परमात्मा की आज्ञामानने से बड़े हुए हैं, वे ही ईश्वर की आज्ञा में रहकर उन्नति करते और आनन्दभोगते हैं ॥२४-२६॥
टिप्पणी
२४-२६−(सः) व्रात्यःपरमात्मा (अन्तर्देशान्) मध्यदेशान् (तम्) व्रात्यम् (प्रजापतिः) प्रजापालकोराजा (परमेष्ठी) उच्चपदस्थ आचार्यः संन्यासी वा (पिता) जनकः (पितामहः) पितुःपिता। अन्यत् पूर्ववद् यथोचितं योजनीयं च ॥
विषय
प्रजापति परमेष्ठी तथा पिता, पितामह
पदार्थ
१. (सः) = वह व्रात्य (सर्वान् अन्तर्देशान् अनुव्यचलत्) = सब अन्तर्देशों में-दिशाओं के मध्यमार्गों में अनुकूलता से गतिवाला हुआ। अविरोध से यह अपने मार्ग पर बढ़नेवाला बना (च) = और (तम्) = उस व्रात्य को (प्रजापतिः च) = प्रजारक्षक प्रभु (परमेष्ठी च) = सर्वोपरि स्थान में स्थित प्रभु पिता च पितामहः च-पिता और पितामह (अनुव्यचलन्) = अनुकूलता से प्रास हुए, अर्थात् इस ब्रात्य को प्रभु व पिता उत्तम प्रेरणा देनेवाले बने। २. (यः) = जो (एवं वेद) = इसप्रकार अविरोध से सब अन्तर्देशों में चलने के महत्व को समझ लेता है, (स:) = वह व्रात्य वै-निश्चय से (प्रजापते:) = प्रजारक्षक प्रभु का (परमेष्ठिन: च) = और परम स्थान में स्थित प्रभु का (च) = और (पितुः पितामहस्य च) = पिता व पितामह का प्(रियं धाम भवति) = प्रिय धाम बनता है।
भावार्थ
एक व्रात्य विद्वान् सब अन्तर्देशों में [दिङ्मयों में] अविरोध से चलता हुआ सर्वरक्षक व सर्वश्रेष्ठ प्रभु का तथा पिता व पितामह का प्रिय बनता है।
भाषार्थ
(यः) जो संन्यासी व्यक्ति (एवम्) इस प्रकार के तथ्य को (वेद) जानता तथा तदनुसार आचरण करता है (सः) वह (वै) निश्चय से, (प्रजापतेः, च) प्रजापति का, (परमेष्ठिनः, च) और परमेष्ठी का, (पितुः च) पिता का (पितामहस्य, च) और पितामह का प्रजावर्ग के बुजुर्गों का (प्रियम्, धाम) प्रेमपात्र (भवति) हो जाता है।
विषय
व्रात्य प्रजापति का प्रस्थान।
भावार्थ
(सः) वह (सर्वान् अन्तर्देशान् अनु व्यचलत्) समस्त भीतरी दिशों में चला। (तम् प्रजापतिः च, परमेष्ठी च, पिता च, पितामहः च अनुव्यचलन्) उसके पीछे प्रजापति, परमेष्ठी, पिता और पितामह भी चले। (यः एवं वेद) जो मनुष्य प्रजापति के इस प्रकार स्वरूप को साक्षात् करता है (सः वै) वह निश्चय से (प्रजापतेः च परमेष्ठिनः च, पितामहस्य च, प्रियं धाम भवति) प्रजापति, परमेष्ठी, पिता और पितामह का प्रिय आश्रय हो जाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१ प्र०, २ प्र० आसुरी पंक्तिः, ३-६, ९ प्र० आसुरी बृहती, ८ प्र० परोष्णिक्, १ द्वि०, ६ द्वि० आर्ची पंक्तिः, ७ प्र० आर्ची उष्णिक्, २ द्वि०, ४ द्वि० साम्नी त्रिष्टुप्, ३ द्वि० साम्नी पंक्तिः, ५ द्वि०, ८ द्वि० आर्षी त्रिष्टुप्, ७ द्वि० साम्नी अनुष्टुप्, ६ द्वि० आर्ची अनुष्टुप्, १ तृ० आर्षी पंक्तिः, २ तृ०, ४ तृ० निचृद् बृहती, ३ तृ० प्राजापत्या त्रिष्टुप्, ५ तृ०, ६ तृ० विराड् जगती, ७ तृ० आर्ची बृहती, ९ तृ० विराड् बृहती। षड्विंशत्यृचं षष्ठं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vratya-Prajapati daivatam
Meaning
One who knows this becomes the favourite love of Prajapati, Parameshthi, generators and grand generators of life.
Translation
Surely he, who knows it thus, becomes a pleasing abode of Prajapati and of Paramesthi, of the father and the grandfather.
Translation
He who knows this becomes the favourable abode of Prajapati, Parmesthin, father and grand-father. [N.B. :—Here it seems that Prajapati And Parmesthin stand to mean respectively the person of house hold-life and person in vanaprastha.]
Translation
He who possesses this knowledge of God, becomes the dear home of the King, and Acharya, and father and grandfather.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२४-२६−(सः) व्रात्यःपरमात्मा (अन्तर्देशान्) मध्यदेशान् (तम्) व्रात्यम् (प्रजापतिः) प्रजापालकोराजा (परमेष्ठी) उच्चपदस्थ आचार्यः संन्यासी वा (पिता) जनकः (पितामहः) पितुःपिता। अन्यत् पूर्ववद् यथोचितं योजनीयं च ॥
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