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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 23
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - आर्ची त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
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    वि॒राज॑श्च॒ वै ससर्वे॑षां च दे॒वानां॒ सर्वा॑सां च दे॒वता॑नां प्रि॒यं धाम॑ भवति॒ य ए॒वं वेद॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒ऽराज॑: । च॒ । वै । स: । सर्वे॑षाम् । च॒ । दे॒वाना॑म् । सर्वा॑साम् । च॒ । दे॒वता॑नाम् । प्रियम् । धाम॑ । भ॒व॒ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥६.२३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विराजश्च वै ससर्वेषां च देवानां सर्वासां च देवतानां प्रियं धाम भवति य एवं वेद॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विऽराज: । च । वै । स: । सर्वेषाम् । च । देवानाम् । सर्वासाम् । च । देवतानाम् । प्रियम् । धाम । भवति । य: । एवम् । वेद ॥६.२३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 6; मन्त्र » 23
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    हिन्दी (4)

    विषय

    ईश्वर के सर्वस्वामी होने का उपदेश।

    पदार्थ

    (सः) वह [विद्वान्]पुरुष (वै) निश्चय करके (विराजः) विराट् [विविध पदार्थों से प्रकाशमान संसार] का (च च) और (सर्वेषाम्) सब (देवानाम्) उत्तम पदार्थों का (च) और (सर्वासाम्) सब (देवतानाम्) उत्तम शक्तियों का (प्रियम्) प्रिय (धाम) धाम [घर] (भवति) होता है, (यः) जो [विद्वान्] (एवम्) ऐसे वा व्यापक [व्रात्य परमात्मा] को (वेद) जानता है॥२३॥

    भावार्थ

    यह संसार, दिव्यपदार्थऔर उनकी दिव्यशक्तियाँ परमात्मा से सब दिशाओं में प्रसिद्ध हुई हैं, उस परमात्माको साक्षात् करनेवाला मनुष्य सब उत्तम पदार्थों और गुणों का विवेकी होकर संसारका प्रिय होता है ॥˜२˜२, २३॥

    टिप्पणी

    २२, २३−(सः) व्रात्यः (दिशः) सर्वाः दिशाः (तम्) व्रात्यम् (विराट्) वि+राजृ दीप्तौ-क्विप्।विविधपदार्थैः प्रकाशमानो ब्रह्माण्डरूपसंसारः (देवाः) दिव्यपदार्थाः (देवताः)दिव्यशक्तयः। अन्यत् पूर्ववद् यथावद् योजनीयञ्च ॥

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    विषय

    विराट्, देव, देवता

    पदार्थ

    १. (सः) = वह व्रात्य (दिश:) = वेद के निर्देशों के अनुसार (अनुव्यचलत्) = गतिवाला हुआ, परिणामतः (तम) = उस व्रात्य को (विराट) = विशिष्ट दीसि (च) = और (सर्वेदेवा:) = सब दिव्यभाव, (च) = और (सर्वाः देवता:) = सब दिव्यशक्तियाँ (अनुव्यचलन्) = अनुकूलता से प्राप्त हुई। २. (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार प्रभु-निर्देशों के पालन के महत्त्व को समझ लेता है (स:) = वह व्रात्य (वै) = निश्चय से (विराज: च) = विशिष्ट ज्ञानदीति का च और (सर्वेषां देवानाम्) = सब दिव्यभावों का (च) = तथा (सर्वासाम् देवतानाम्) सब दिव्यशक्तियों का (प्रियं धाम भवति) = प्रिय निवासस्थान बनता है।

    भावार्थ

    एक ब्रात्य विद्वान् वेद-निर्देशों के अनुसार चलता हुआ 'विशिष्ट ज्ञानदीसि को, सब दिव्यभावों को तथा सब दिव्यशक्तियों को प्रास करता है।

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    भाषार्थ

    (यः) जो संन्यासी व्यक्ति (एवम्) इस प्रकार के तथ्य को (वेद) जानता और तदनुसार आचरण करता है (सः) वह (वै) निश्चय से, (विराजः च) दीप्यमान जगत् का, (सर्वेषाम्, च, देवानाम्) सब दिव्य पदार्थों का, (सर्वासाम्, च, देवतानाम्) और सब दिव्यशक्तियों का (प्रियम्, धाम) प्रिय स्थान अर्थात् आश्रय (भवति) हो जाता है।

    टिप्पणी

    [देवानाम्, देवतानाम्= अथवा सब दिव्यगुणी विद्वानों, तथा दिव्यगुणी विदुषी देवियों का प्यारा बन जाता है, अर्थात् वे ऐसे व्यक्ति के साथ स्नेह करने लगते हैं]

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    विषय

    व्रात्य प्रजापति का प्रस्थान।

    भावार्थ

    (सः दिशः अनु व्यचलत्) वह समस्त दिशाओं में चला। (तं विराड् अनुव्यचलत्) उसके पीछे विराट् चला और (सर्वे च देवाः सर्वाः च देवताः) और सब देव और सब देवता भी उसके पीछे चले। (यः एवं वेदं) जो व्रात्य के इस प्रकार के स्वरूप को जान लेता है (सः) वह (विराजः च सर्वेषां च देवतानां, सर्वासां च देवतानां) विराट् का, सर्व देवों और सब देवताओं का (प्रियं धाम भवति) प्रिय आश्रय हो जाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १ प्र०, २ प्र० आसुरी पंक्तिः, ३-६, ९ प्र० आसुरी बृहती, ८ प्र० परोष्णिक्, १ द्वि०, ६ द्वि० आर्ची पंक्तिः, ७ प्र० आर्ची उष्णिक्, २ द्वि०, ४ द्वि० साम्नी त्रिष्टुप्, ३ द्वि० साम्नी पंक्तिः, ५ द्वि०, ८ द्वि० आर्षी त्रिष्टुप्, ७ द्वि० साम्नी अनुष्टुप्, ६ द्वि० आर्ची अनुष्टुप्, १ तृ० आर्षी पंक्तिः, २ तृ०, ४ तृ० निचृद् बृहती, ३ तृ० प्राजापत्या त्रिष्टुप्, ५ तृ०, ६ तृ० विराड् जगती, ७ तृ० आर्ची बृहती, ९ तृ० विराड् बृहती। षड्विंशत्यृचं षष्ठं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    He who knows this becomes the favourite love of Virat, all Devas and all their powers and potentials.

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    Translation

    Surely he, who knows it thus, becomes a pleasing abode of viraj, of all the enlightened ones and of all the bounties of Nature.

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    Translation

    He who possesses the knowledge of this becomes the favourable abode of Virat, Devas and Devatas.

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    Translation

    He who possesses this knowledge of God, verily becomes the dear home of the resplendent world, and divine objects, and divine forces.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २२, २३−(सः) व्रात्यः (दिशः) सर्वाः दिशाः (तम्) व्रात्यम् (विराट्) वि+राजृ दीप्तौ-क्विप्।विविधपदार्थैः प्रकाशमानो ब्रह्माण्डरूपसंसारः (देवाः) दिव्यपदार्थाः (देवताः)दिव्यशक्तयः। अन्यत् पूर्ववद् यथावद् योजनीयञ्च ॥

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