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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 21
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - आर्ची बृहती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
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    दिते॑श्च॒ वै सोऽदि॑ते॒श्चेडा॒याश्चे॑न्द्रा॒ण्याश्च॑ प्रि॒यं धाम॑ भवति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दिते॑: । च॒ । वै । स: । अदि॑ते: । च॒ । इडा॑या: । च॒ । इ॒न्द्रा॒ण्या: । च॒ । प्रि॒यम् । धाम॑ । भ॒व॒ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥६.२१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दितेश्च वै सोऽदितेश्चेडायाश्चेन्द्राण्याश्च प्रियं धाम भवति य एवं वेद ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दिते: । च । वै । स: । अदिते: । च । इडाया: । च । इन्द्राण्या: । च । प्रियम् । धाम । भवति । य: । एवम् । वेद ॥६.२१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 6; मन्त्र » 21
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    हिन्दी (4)

    विषय

    ईश्वर के सर्वस्वामी होने का उपदेश।

    पदार्थ

    (सः) वह [विद्वान्]पुरुष (वै) निश्चय करके (दितेः) दिति [नाशवान् सृष्टि] का (च च) और (अदितेः) [अदिति अविनाशी परमाणुरूप सामग्री] का (च) और (इडायाः) इड़ा [वेदवाणी] का (च)और (इन्द्राण्याः) इन्द्राणी [जीव की शक्ति] का (प्रियम्) प्रिय (धाम) धाम [घर] (भवति) होता है, (यः) जो [विद्वान्] (एवम्) ऐसे वा व्यापक [व्रात्य परमात्मा] को (वेद) जानता है ॥२१॥

    भावार्थ

    परमात्मा की अपार, अनादि और अनन्त शक्ति है, मनुष्य जितना-जितना खोजता है, उतना-उतना ही जगदीश्वरकी सृष्टि और परमाणुरूप सामग्री को अनादि अनन्त ही पाता जाता है और वेद द्वाराअपनी शक्ति बढ़ाता हुआ आनन्द मनाता चला चलता है ॥१९, २०, २१॥

    टिप्पणी

    २०, २१−(तम्)व्रात्यम् (दितिः) दो अवखण्डने-क्तिच्। खण्डिता विकृतिः। कार्यरूपा नाशशीलासृष्टिः (अदितिः) दो अवखण्डने-क्तिन्। अखण्डिता प्रकृतिः। अविनाशिनी परमाणुरूपासामग्री (इडा) वेदवाणी निघ० १।११ (इन्द्राणी) इन्द्रस्य जीवस्य पत्नी विभूतिःशक्तिः। अन्यत् पूर्ववत् स्पष्टं च ॥

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    विषय

    अनावृत्ता दिशा में 'दिति, अदिति, इडा, इन्द्राणी'

    पदार्थ

    १. (सः) = वह व्रात्य (अनावृत्तां दिशं अनुव्यचलत्) = अनावृत्ता दिशा में अनुकूलता से गतिवाला हुआ (ततः) = तब (न आवर्त्स्यन् अमन्यत) = 'लौटूंगा नहीं', ऐसा उसने विचार किया। 'आगे और आगे चलते चलना, लौटना नहीं, वही वस्तुत: एक संन्यस्त का आदर्श है। (तम्) = उस व्रात्य को इस अनावृत्ता दिशा में चलने पर (दितिः च अदितिः च) = वासनाओं का खण्डन और स्वास्थ्य का अखण्डन [पवित्रता व स्वास्थ्य] (च) = तथा (इडा इन्द्राणी च) = वेदवाणी और इन्द्रशक्ति (अनुव्यचलन्) = अनुकूलता से प्राप्त हुई। २. (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार न लौटने की दिशा के महत्व को समझ लेता है (सः) = वह व्रात्य (वै) = निश्चय से (दितेः च अदिते: च) = वासना-विनाश और स्वास्थ्य के अविनाश का (च) = तथा (इडायाः इन्द्राण्या: च) = वेदवाणी व इन्द्रशक्ति का (प्रियं धाम भवति) = प्रिय आधार बनता है।

    भावार्थ

    हम 'आगे बढ़ना और न लौटने का व्रत लेकर 'पवित्र, स्वस्थ, ज्ञानी व आत्मशक्ति-सम्पन्न' बनें।

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    भाषार्थ

    (यः) जो संन्यासी व्यक्ति (एवम्) इस प्रकार के तथ्य को (वेद) जानता और तदनुसार आचरण करता है (सः) वह (वै) निश्चय से (दितेः, च) विनाश शक्ति का (अदितेः, च) और निर्माण शक्ति का, (इडायाः, च) वाक्शक्ति की (इन्द्राण्याः च) और जीवात्मा की आत्मिकशक्ति का, (प्रियम्, धाम) प्रिय स्थान, आश्रय (भवति) हो जाता है।

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    विषय

    व्रात्य प्रजापति का प्रस्थान।

    भावार्थ

    (सः) वह (अनावृत्तां दिशम् अनुव्यचलत्) ‘अनावृत्ता’ जिधर से लौटकर फिर न आया जाय उस दिशा को चला। (ततः) तब वह व्रात्य प्रजापति अपने को (न आवर्त्स्यन्) कभी न लौटने वाला ही (अमन्यत) मानने लगा। (तं) उसके पीछे (दितिः च अदितिः च) दिति और अदिति (इडा च इन्द्राणी च) इडा और इन्द्राणी भी (अनु व्यचलन्) चले। (य एवं वेद) जो प्रजापति के इस स्वरूप को साक्षात् करता है (स) वह (दितेः च, अदितेः च, इडायाः च, इन्द्राण्याः च) दिति, अदिति, इडा और इन्द्राणी का (प्रियं धाम भवति) प्रिय आश्रय हो जाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १ प्र०, २ प्र० आसुरी पंक्तिः, ३-६, ९ प्र० आसुरी बृहती, ८ प्र० परोष्णिक्, १ द्वि०, ६ द्वि० आर्ची पंक्तिः, ७ प्र० आर्ची उष्णिक्, २ द्वि०, ४ द्वि० साम्नी त्रिष्टुप्, ३ द्वि० साम्नी पंक्तिः, ५ द्वि०, ८ द्वि० आर्षी त्रिष्टुप्, ७ द्वि० साम्नी अनुष्टुप्, ६ द्वि० आर्ची अनुष्टुप्, १ तृ० आर्षी पंक्तिः, २ तृ०, ४ तृ० निचृद् बृहती, ३ तृ० प्राजापत्या त्रिष्टुप्, ५ तृ०, ६ तृ० विराड् जगती, ७ तृ० आर्ची बृहती, ९ तृ० विराड् बृहती। षड्विंशत्यृचं षष्ठं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    One who knows this becomes the favourite love of Did, Aditi, Ida and Indrani.

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    Translation

    Surely he, who knows it thus, becomes a pleasing abode of Diti and Aditi, of Ida and Indrani.

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    Translation

    He (vratya) walks towards regions.

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    Translation

    He who possesses this knowledge of God, verily becomes the dear home of the destructible world, and the indestructible Matter, and Vedic speech, and soul force.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २०, २१−(तम्)व्रात्यम् (दितिः) दो अवखण्डने-क्तिच्। खण्डिता विकृतिः। कार्यरूपा नाशशीलासृष्टिः (अदितिः) दो अवखण्डने-क्तिन्। अखण्डिता प्रकृतिः। अविनाशिनी परमाणुरूपासामग्री (इडा) वेदवाणी निघ० १।११ (इन्द्राणी) इन्द्रस्य जीवस्य पत्नी विभूतिःशक्तिः। अन्यत् पूर्ववत् स्पष्टं च ॥

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