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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - आर्ची पङ्क्ति छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
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    तंभूमि॑श्चा॒ग्निश्चौष॑धयश्च॒ वन॒स्पत॑यश्च वानस्प॒त्याश्च॑वी॒रुध॑श्चानु॒व्यचलन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । भूमि॑: । च॒ । अ॒ग्नि: । च॒ । ओष॑धय: । च॒ । वन॒स्पत॑य: । च॒ । वा॒न॒स्प॒त्या: । च॒ । वी॒रुध॑: । च॒ । अ॒नु॒ऽव्य᳡चलन् ॥६.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तंभूमिश्चाग्निश्चौषधयश्च वनस्पतयश्च वानस्पत्याश्चवीरुधश्चानुव्यचलन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । भूमि: । च । अग्नि: । च । ओषधय: । च । वनस्पतय: । च । वानस्पत्या: । च । वीरुध: । च । अनुऽव्यचलन् ॥६.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ईश्वर के सर्वस्वामी होने का उपदेश।

    पदार्थ

    (भूमिः) भूमि (च च) और (अग्निः) अग्नि [भौतिक अग्नि] (च) और (ओषधयः) ओषधें [जौ, गेहूँ, चावल आदि अन्न] (च) और (वनस्पतयः) वनस्पतियाँ [पीपल आदि वृक्ष] (च) और (वानस्पत्याः) वनस्पतियोंसे उत्पन्न पदार्थ [काष्ठ फूल, फल, मूल, रस आदि] (च) और (वीरुधः) लताएँ [सोमलताआदि] (तम्) उस [व्रात्य परमात्मा] के (अनुव्यचलन्) पीछे विचरे ॥२॥

    भावार्थ

    जब विद्वान् पुरुषपरमात्मा को नीची आदि दिशाओं में सर्वव्यापक और सर्वनियन्ता जानकर उसके उत्पन्नकिये पृथिवी आदि पदार्थों का तत्त्वज्ञान प्राप्त करता है, तब वह उनसे यथावत्उपकार लेकर सुख पाता है ॥१-३॥

    टिप्पणी

    २−(तम्) व्रात्यम् (भूमिः) (च) (अग्निः) भौतिकाग्निः (ओषधयः) यवव्रीह्याद्यन्नानि (च) (वनस्पतयः)पिप्पलादयो वृक्षाः (वानस्पत्याः) वनस्पति-ण्य। वनस्पतिभ्य उत्पन्नाःकाष्ठपुष्पफलमूलरसादयः (च) (वीरुधः) सोमलतादयः (च) (अनुव्यचलन्) अनुसृत्यव्यचरन् ॥

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    विषय

    ध्रुवा दिशा से 'भूमि, अग्नि, ओषधी, वनस्पति, वानस्पत्य व वीरुध'

    पदार्थ

    १. (स:) = वह व्रात्य (ध्रुवां दिशं अनुव्यचलत्) = ध्रुवादिक् को लक्ष्य करके गतिवाला हुआ। उसने ध्रुवादिक्के अनुकूल गति की और परिणामतः (तम्) = उस व्रात्य को (भूमिः च अग्निः च) = पृथिवी का मुख्य देव अग्नि, (ओषधयः च वनस्पतयः च) = पृथिवी पर उत्पन्न होनेवाली ओषधी-वनस्पतियों तथा (वानस्पत्या: च वीरुधः च) = विविध प्रकार के फल, अन्न व लताएँ (अनुव्यचलन्) = अनुकूल गतिवाली हुई। २. (यः) = जो (एवं वेद) = इसप्रकार इस ध्रुवादिशा को समझने का प्रयत्न करता है, (स:) = वह व्रात्य (वै) = निश्चय से (भूमेः च अग्नेः च) = भूमि और अग्नि का (ओषधीनां च वनस्पतिनां च) = औषधियों व वनस्पतियों का (वानस्पत्यनां च वीरुधां च) = फलों, अन्नों व बेलों का (प्रियं धाम भवति) = प्रिय अवस्थान बनता है।

    भावार्थ

    व्रात्य विद्वान् ध्रुवादिशा के अनुकूल गतिवाला होकर 'भूमि, अग्नि, ओषधी, वनस्पति तथा वानस्पत्य व वीरुधों' का प्रिय पात्र बनता है।

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    भाषार्थ

    (तम्) उस के [प्रयत्नों के] (अनु) अनुकूल, (भूमिः च, अग्निः च) उत्पादन स्थान भूमि और पाककारी अग्नि, (ओषधयः च, वनस्पतयः च) ओषधियां और वनस्पतियां, (वानस्पत्याः१ च, वीरुधः च) वनस्पतियों के फल और बेलें (व्यचलन्) चलीं।

    टिप्पणी

    [प्रजाहितकारी संन्यासी ने प्रजा के आवश्यक साधनों के उत्पादक के लिए जब प्रयत्न किया, तब राज-प्रजावर्ग ने, भूमि से खाद्य-भोज्य, तथा रोगोपचार के लिए ओषधि आदि पदार्थों को प्रभूत मात्रा में उत्पन्न किया, तथा पाकक्रिया के लिए अग्न्युत्पादक काष्ठादि साधनों की भी व्यवस्था की। औषधि आदि और भूमि तथा अग्नि के सम्बन्ध में, "व्यचलन्" का प्रयोग काव्य दृष्टि से है। वेद महाकवि परमेश्वर की काव्यमय रचनाएं हैं।] [१. "वानस्पत्यः फलै पुष्पात्, तैरपुष्पाद् वनस्पतिः" मन्त्र में इन पदों का प्रयोग, इन द्वारा प्राप्त फल आदि के निमित्त है।]

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    विषय

    व्रात्य प्रजापति का प्रस्थान।

    भावार्थ

    (सः ध्रुवाम् दिशम् अनुव्यचलत्) वह ध्रुवा = भूमि की और की दिशा को चला। (तम्) उसके साथ साथ (भूमिः च अग्निः च औषधयः च वनस्पतयः च वानस्पत्याः च वीरुधः च अनु वि अचलन्) भूमि अग्नि, ओषधियां, वनस्पतियें बड़े वृक्ष और उनसे बनने वाले नाना पदार्थ या उसकी जाति की लताएं भी इसके पीछे चलीं। (यः एवं वेद) जो व्रात्य प्रजापति के इस प्रकार के स्वरूप को साक्षात् करता है (सः भूमेः च, अग्नेः च, ओषधीनाम् च, वनस्पतीनां च वानस्पत्यानां च, वीरुधाम् च प्रियम् धाम भवति) वह भूमि का, अग्नि का, ओषधियों का वनस्पतियों का, वनस्पति के बने विकारों का और उन लताओं का प्रिय आश्रय हो जाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १ प्र०, २ प्र० आसुरी पंक्तिः, ३-६, ९ प्र० आसुरी बृहती, ८ प्र० परोष्णिक्, १ द्वि०, ६ द्वि० आर्ची पंक्तिः, ७ प्र० आर्ची उष्णिक्, २ द्वि०, ४ द्वि० साम्नी त्रिष्टुप्, ३ द्वि० साम्नी पंक्तिः, ५ द्वि०, ८ द्वि० आर्षी त्रिष्टुप्, ७ द्वि० साम्नी अनुष्टुप्, ६ द्वि० आर्ची अनुष्टुप्, १ तृ० आर्षी पंक्तिः, २ तृ०, ४ तृ० निचृद् बृहती, ३ तृ० प्राजापत्या त्रिष्टुप्, ५ तृ०, ६ तृ० विराड् जगती, ७ तृ० आर्ची बृहती, ९ तृ० विराड् बृहती। षड्विंशत्यृचं षष्ठं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    After him followed earth, agni, herbs, trees, herbals, and creepers.

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    Translation

    Earth and fire, herbs and trees, plants and shrubs started following him.

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    Translation

    The earth and fire herbs and trees and shrubs and piants follow him.

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    Translation

    He who possesses this knowledge of God, becomes the dear home of earth, and fire and cereals, and trees, and fruits and shrubs.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(तम्) व्रात्यम् (भूमिः) (च) (अग्निः) भौतिकाग्निः (ओषधयः) यवव्रीह्याद्यन्नानि (च) (वनस्पतयः)पिप्पलादयो वृक्षाः (वानस्पत्याः) वनस्पति-ण्य। वनस्पतिभ्य उत्पन्नाःकाष्ठपुष्पफलमूलरसादयः (च) (वीरुधः) सोमलतादयः (च) (अनुव्यचलन्) अनुसृत्यव्यचरन् ॥

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