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अथर्ववेद के काण्ड - 16 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 11
    ऋषिः - प्रजापति देवता - साम्नी उष्णिक् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
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    प्रास्मदेनो॑वहन्तु॒ प्र दुः॒ष्वप्न्यं॑ वहन्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । अ॒स्मत् । एन॑: । व॒ह॒न्तु॒ । प्र । दु॒:ऽस्वप्न्य॑म् । व॒ह॒न्तु॒ ॥१.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रास्मदेनोवहन्तु प्र दुःष्वप्न्यं वहन्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । अस्मत् । एन: । वहन्तु । प्र । दु:ऽस्वप्न्यम् । वहन्तु ॥१.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 1; मन्त्र » 11
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    दुःख से छूटने का उपदेश।

    पदार्थ

    (अस्मत्) हम से (एनः)पाप को (प्र वहन्तु) बाहिर पहुँचावें और (दुःस्वप्न्यम्) दुष्ट स्वप्न मेंउत्पन्न कुविचार को (प्र वहन्तु) बाहिर पहुँचावें ॥११॥

    भावार्थ

    मनुष्य विद्वानों केसत्सङ्ग और शिक्षा से जागते-सोते कभी पाप कर्म का विचार न करें ॥१०, ११॥यह दोनोंमन्त्र कुछ भेद से आ चुके हैं-अ० १०।५।२४ ॥

    टिप्पणी

    ११−(अस्मत्) (एनम्) पापम् (प्रवहन्तु) बहिर्गमयन्तु (दुःस्वप्न्यम्) दुष्टस्वप्ने भवं कुविचारम् (प्र वहन्तु) ॥

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    विषय

    'एनस् व दुःष्वप्य' का दूरीकरण

    पदार्थ

    १. शरीर में सुरक्षित रेत:कण (अस्मत्) = हमसे (एनः प्रवहन्तु) = पाप को दूर बहा ले-जाएँ। केवल पाप को ही नहीं, (दुःष्वप्यम्) = अशुभ स्वप्नों के कारणभूत सब पापों व अशुभ विचारों को (प्रवहन्तु) = दूर ले जाएँ।

    भावार्थ

    शरीर में सुरक्षित रेत:कण हमारे जीवन से पापों व अशुभ स्वप्नों के कारणभूत अशुभ विचारों को दूर ही रखते हैं।

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    भाषार्थ

    पापरहित शारीरिक द्रव (अस्मत्) हम से (एनः) पाप को (प्र वहन्तु) प्रवाहित करें तथा (दुष्वप्न्यम्) दुःस्वप्नों और दुःस्वप्नों के परिणाम को (प्र वहन्तु) प्रवाहित करें।

    टिप्पणी

    [प्र वहन्तु=शारीरिक द्रवों को आपः कहा है। आपः का प्रसिद्ध अर्थ है, जल। जैसे जल मल को प्रवाहित करते हैं, वैसे शारीरिक द्रव हमारे पाप-मल को हम से प्रवाहित करें। पापकर्मों तथा पाप विचारों के कारण बुरे स्वप्न, तथा बुरे स्वप्नों के बुरे परिणाम होते हैं। बुरे परिणाम=स्वप्नदोष, भय, कम्प, रोना-चिल्लाना, लड़ाई, झगड़ा आदि। ये स्वप्नावस्था में भी होते हैं। तथा देखो (अथर्व० १०।५।२४)।] [१. इन्द्र= आत्मा। तस्य लिङ्गम् = इन्द्रियम् (भट्टो जी दीक्षित, अष्टा० ५।२।९३)।]

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    विषय

    पापशोधन।

    भावार्थ

    वे आप्त पुरुष जलों के समान ही (अस्मत्) हम से (एनः) पाप मल को (प्र वहन्तु) दूर बहा दें और (दुष्वप्न्यं) बुरे स्वप्नों के कारण को भी (प्र वहन्तु) दूर करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिर्देवता। १, ३ साम्नी बृहत्यौ, २, १० याजुपीत्रिष्टुभौ, ४ आसुरी गायत्री, ५, ८ साम्नीपंक्त्यौ, (५ द्विपदा) ६ साम्नी अनुष्टुप्, ७ निचृद्विराड् गायत्री, ६ आसुरी पंक्तिः, ११ साम्नीउष्णिक्, १२, १३, आर्च्यनुष्टुभौ त्रयोदशर्चं प्रथमं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    Let the waters of purity and divinity carry away sin and evil dreams and the consequences of evil dreams.

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    Translation

    May they carry away sin from us; may they carry away the evil dream.

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    Translation

    Let these waters be the source of driving evils (diseases) from us and the disease of bad dream from us.

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    Translation

    May they carry sin away from us, may they carry away from us the ignoble thoughts arising out of the evil dream.

    Footnote

    They: Learned persons.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ११−(अस्मत्) (एनम्) पापम् (प्रवहन्तु) बहिर्गमयन्तु (दुःस्वप्न्यम्) दुष्टस्वप्ने भवं कुविचारम् (प्र वहन्तु) ॥

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