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अथर्ववेद के काण्ड - 16 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 7
    ऋषिः - प्रजापति देवता - निचृत विराट् गायत्री छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
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    यो॒प्स्वग्निरति॒ तं सृ॑जामि म्रो॒कं ख॒निं त॑नू॒दूषि॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । अ॒प्ऽसु । अ॒ग्नि: । अति॑ । तम् । सृ॒जा॒मि॒ । म्रो॒कम् । ख॒निम् । त॒नू॒ऽदूषि॑म् ॥१.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    योप्स्वग्निरति तं सृजामि म्रोकं खनिं तनूदूषिम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । अप्ऽसु । अग्नि: । अति । तम् । सृजामि । म्रोकम् । खनिम् । तनूऽदूषिम् ॥१.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 1; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    दुःख से छूटने का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जो [दोष] (अप्सु)प्राणियों के भीतर (अग्निः) अग्नि [समान सन्तापक] है, (तम्) उस (म्रोकम्) हिंसक, (खनिम्) दुःखदायक और (तनूदूषिम्) शरीरदूषक [रोग] को (अति सृजामि) मैं नाश करताहूँ ॥७॥

    भावार्थ

    विद्वान् पुरुषसन्तापकारी दोषों का विचारपूर्वक नाश करें ॥७॥

    टिप्पणी

    ७−(यः) दोषः (अप्सु) म० १।प्रजासु (अग्निः) अग्निवत्सन्तापकः (अति सृजामि) म० ४ विनाशयामि (तम्) दोषम् (म्रोकम्) म० ३। हिंसकम् (खनिम्) विदारकम्। पीडकम् (तनूदूषिम्) शरीरदूषकम् ॥

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    विषय

    'म्रोक-खनि' काम

    पदार्थ

    १. (य:) = जो (अप्सु) = [आपो नारा इति प्रोक्ताः] प्रजाओं में यह (अग्नि:) = कामाग्नि उत्पन्न हो जाता है। यह 'मनसि-ज' है-भौतिक सौन्दर्य को देखकर मन में उत्पन्न हो ही जाता है। (तम् अति सृजामि) उसको मैं कर्मों में व ज्ञान-प्राप्ति में लगे रहकर सुदूर परित्यक्त करता हूँ। २. उस कामाग्नि को दूर करता है जोकि (म्रोकम्) = जीवन को बड़ा अशान्त बनाता है। (खनिम्) = शक्तियों का अवदारण कर देता है तथा (तनूदूषिम्) = शरीर को दूषित ही कर डालता है।

    भावार्थ

    हृदय में उत्पन्न हो जानेवाली इस कामानि को हम ज्ञान व कर्म में व्याप्त रहकर दूर करते हैं। इसने ही तो हमारे जीवन को अशान्त बनाया हुआ था, शक्तियों को विनष्ट कर दिया था तथा सारे शरीर को ही दूषित कर दिया था।

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    भाषार्थ

    (अप्सु) रक्त-रसरूपी जलों में (यः) जो (अग्निः) मादक कामाग्नि है, (तम्) उसे (अग्नि सृजामि) मैं त्यागता हूं, यह कामाग्नि (म्रोकम्, खनिम्, तनूदूषिम्) मन को चञ्चल करने वाली, शक्तियों को विदीर्ण करने वाली, तथा शरीर को दूषित करने वाली है।

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    विषय

    पापशोधन।

    भावार्थ

    (यः) जो (अप्सु) जलों में (अग्निः) अग्नि के समान संतापक पदार्थ है (तं) उसको (अतिसृजामि) दूर करता हूं। और (अप्सु अन्तः) प्रजाओं के बीच में विद्यमान (म्रोकं) चोर, (खनि) सेंध खोदने और (तनू दूषिम्) शरीर के नाश करने वाले संतापक पुरुष को भी (अति सृजामि) दूर करता हूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिर्देवता। १, ३ साम्नी बृहत्यौ, २, १० याजुपीत्रिष्टुभौ, ४ आसुरी गायत्री, ५, ८ साम्नीपंक्त्यौ, (५ द्विपदा) ६ साम्नी अनुष्टुप्, ७ निचृद्विराड् गायत्री, ६ आसुरी पंक्तिः, ११ साम्नीउष्णिक्, १२, १३, आर्च्यनुष्टुभौ त्रयोदशर्चं प्रथमं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    The fire that is in the mind-and-will flow of action, breaking, piercing and polluting the body and senses, that fire I give up.

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    Translation

    What fire is there in the waters, that, utterly destructive, digging in, ruiner of body, I hereby let loose.

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    Translation

    The fire which is the uprooter and destroyer of the body and which remains in water I drive away.

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    Translation

    I remove the ailment, that in men is troublesome like fire, vexations, uprooting and ruiner of the body.

    Footnote

    I: A learned person.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(यः) दोषः (अप्सु) म० १।प्रजासु (अग्निः) अग्निवत्सन्तापकः (अति सृजामि) म० ४ विनाशयामि (तम्) दोषम् (म्रोकम्) म० ३। हिंसकम् (खनिम्) विदारकम्। पीडकम् (तनूदूषिम्) शरीरदूषकम् ॥

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