अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 4
ऋषिः - प्रजापति
देवता - आसुरी गायत्री
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
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इ॒दं तमति॑सृजामि॒ तं माभ्यव॑निक्षि ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । तम् । अति॑ । सृ॒जा॒मि॒ । तम् । मा । अ॒भि॒ऽअव॑निक्षि ॥१.४॥
स्वर रहित मन्त्र
इदं तमतिसृजामि तं माभ्यवनिक्षि ॥
स्वर रहित पद पाठइदम् । तम् । अति । सृजामि । तम् । मा । अभिऽअवनिक्षि ॥१.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
दुःख से छूटने का उपदेश।
पदार्थ
(इदम्) अब (तम्) उस [रोग] को (अति सृजामि) मैं नाश करता हूँ, (तम्) उस [रोग] को (मा अभ्यवनिक्षि)मैं कभी पुष्ट नहीं करूँ ॥४॥
भावार्थ
मनुष्यों को योग्य हैकि जिन रोगों वा दोषों से आत्मा और शरीर में विकार होवे, उनको ज्ञानपूर्वकहटावें और कभी न बढ़ने दें ॥२-४॥
टिप्पणी
४−(इदम्) इदानीम् (तम्) रोगम् (अतिसृजामि)अतिसर्जनं वधे दाने च। विनाशयामि (तम्) रोगम् (मा अभ्यवनिक्षि) णिजिर्शौचपोषणयोः-लुङ, अडभावः। नैव पुष्येयम् ॥
विषय
'काम' विनाश
पदार्थ
१. (इदम्) = [इदानीम्] अब मैं (तम्) = शरीर व मन को दूषित करनेवाले उस काम को (अतिसुजामि) = सुदूर छोड़ता है। (तम्) = उस 'काम' को मैं (मा) = मत (अभ्यवनिक्षि) = परिचुम्बित करूँ [निक्ष to kiss] | इस कामवासना के प्रति मेरा स्नेह न हो। इसे अपना सर्वमहान् शत्रु जानकर मैं इसे नष्ट करनेवाला बनें।
भावार्थ
शरीर व मन को दूषित करनेवाली इस कामवासना को हम दूर से ही प्रणाम करें।
भाषार्थ
(तम्) उस मादक-अग्नि को (इदम्) अभी ही (अति सृजामि) मैं परित्यक्त कर देता हूँ, (तम्) उस मुझ को, हे मादक अग्नि! (मा, अभ्यवनिक्षि) तू चुम्बन या आलिङ्गन से रहित कर, अर्थात् तू मेरा स्पर्श न कर।
टिप्पणी
[इदम् = इदानीम् अर्थ में। अभ्यवनिक्षि=अभि+अव (Away off, Away from, down; आप्टे)+निक्ष (णिक्ष् चुम्बने)]
विषय
पापशोधन।
भावार्थ
(रुजन्) देह को तोड़ने वाला (परि रुजन्) सब प्रकार से देह को फोड़ता हुआ, पीड़ित करता हुआ (मृणन् प्रमृणन्) मारता हुआ, काटता हुआ रोग भी अग्नि है। वह (म्रोकः) अति संतापकारी, (मनोहा) मन का नाशक, चेतना का नाशक, (खनः) शरीर के रस धातुओं को खोद डालने वाला, (निर्दाहः) अति अधिक दाहकारी, जलन उत्पन्न करने वाला, (आत्मदूषिः) अपने चित्त में विकार उत्पन्न करने वाला और (तनूदूषिः) शरीर में दोष उत्पन्न करने वाला ये सब प्रकार के भी संताप ही हैं। (तम्) इस उक्त प्रकार सब संतापक पदार्थों को (इदम्) यह इस रीति से (अति सृजामि) अपने से दूर करता हूं कि मैं (तम्) उस संतापकारी पदार्थ को (मा) कभी न (अभि अवनिक्षि) प्राप्त करूं। मैं उस में डूब न जाऊं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिर्देवता। १, ३ साम्नी बृहत्यौ, २, १० याजुपीत्रिष्टुभौ, ४ आसुरी गायत्री, ५, ८ साम्नीपंक्त्यौ, (५ द्विपदा) ६ साम्नी अनुष्टुप्, ७ निचृद्विराड् गायत्री, ६ आसुरी पंक्तिः, ११ साम्नीउष्णिक्, १२, १३, आर्च्यनुष्टुभौ त्रयोदशर्चं प्रथमं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vratya-Prajapati daivatam
Meaning
All this I give up, let all this never touch me, let me never touch it again.
Translation
Now I let him loose. May I not receive him back.
Translation
I make this let go and may I never come across it.
Translation
Now I destroy, and never let it develop.
Footnote
I: A learned person.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(इदम्) इदानीम् (तम्) रोगम् (अतिसृजामि)अतिसर्जनं वधे दाने च। विनाशयामि (तम्) रोगम् (मा अभ्यवनिक्षि) णिजिर्शौचपोषणयोः-लुङ, अडभावः। नैव पुष्येयम् ॥
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