अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 6
ऋषिः - प्रजापति
देवता - साम्नी अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
0
अ॒पामग्र॑मसिसमु॒द्रं वो॒ऽभ्यव॑सृजामि ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒पाम् । अग्र॑म् । अ॒सि॒ । स॒मु॒द्रम् । व॒: । अ॒भि॒ऽअव॑सृजामि ॥१.६॥
स्वर रहित मन्त्र
अपामग्रमसिसमुद्रं वोऽभ्यवसृजामि ॥
स्वर रहित पद पाठअपाम् । अग्रम् । असि । समुद्रम् । व: । अभिऽअवसृजामि ॥१.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
दुःख से छूटने का उपदेश।
पदार्थ
[हे मनुष्यो !] वह [परमात्मा] (अपाम्) प्रजाओं का (अग्रम्) सहारा (असि=अस्ति) है−(वः) तुमको (समुद्रम्) प्राणियों के यथावत् उदय करनेवाले परमात्मा की ओर (अभ्यवसृजामि) मैंछोड़ता हूँ ॥६॥
भावार्थ
विद्वान् लोग उपदेशकरें कि मनुष्य परमात्मा का आश्रय लेकर अपने कर्तव्य में कुशल होवें॥६॥
टिप्पणी
६−(अपाम्) म० १। प्रजानाम् (अग्रम्) आलम्बनम् (असि)प्रथमपुरुषस्य मध्यमपुरुषः। अस्ति। वर्तते (समुद्रम्) अ० १०।५।२३। सम्+उत्+द्रुगतौ-ड प्रत्ययः। समुद्रः कस्मात्समुद्द्रवन्त्यस्मादापः, समभिद्रवन्त्येनमापः, सम्मोदन्तेऽस्मिन् भूतानि समुदको भवति समुनत्तीति वा-निरु० २।१०। समुद्रआदित्यः, समुद्र आत्मा-निरु० १४।१६। समुद्रः समुद्द्रवन्ति भूतानियस्मात्सः-दयानन्दभाष्ये, यजु० ५।३३। सर्वे देवाः सम्यगुत्कर्षेण द्रवन्तियत्रेति समुद्रः-महीधरभाष्ये, यजु० ५।३३। भूतानां समुदयकारकं परमात्मानम् (वः)युष्मान् (अभ्यवसृजामि) अभिलक्ष्यत्यजामि अनुज्ञापयामि ॥
विषय
कर्म+ज्ञान
पदार्थ
१. काम को जीतने के लिए दो मार्ग हैं। उन्हीं का संकेत प्रभु इस रूप में करते हैं कि (अपाम् अग्रम् असि) = [अप् कर्म] तू कर्मों के अग्रभाग में है, अर्थात् कर्मशील पुरुषों का मुखिया है तथा (वः) = तुम्हें (समुद्रम् अभि) = ज्ञान के समुद्र की ओर (अवसृजामि) = भेजता है, अर्थात् तुम अपना सारा खाली समय ज्ञान-प्राप्ति में ही लगाने का ध्यान करो। ज्ञान अनन्त है। [अनन्तपारं किल शब्दशास्त्रम्]। ज्ञानप्राप्ति में लगे रहने पर काम ज्ञानग्नि में भस्म ही हो जाएगा। कर्मों में लगे रहने से काम को हमपर आक्रमण का अवसर ही न मिलेगा।
भावार्थ
कामवासना से आक्रान्त न होने का सुन्दरतम उपाय यही है कि हम कर्मों में लगे रहें तथा सारे खाली समय का उपयोग ज्ञान-प्राप्ति में करें।
भाषार्थ
हे वीर्य ! तू (अपाम्) रक्त रस का (अग्रम्) सर्वश्रेष्ठ भाग (असि) है, अतः हे रस-रक्तो ! (वः) तुम्हें (समुद्रम् अभि) हृदय-समुद्र की ओर मैं (अव सृजामि) प्रेरित करता हूं।
टिप्पणी
[अवसृज्= To cast, to let go, let loose (आप्टे)। समुद्रम् = "हृद्यात्समुद्रात्" (यजु० १७।९३), तथा "सिन्धुसृत्याय जाता" (अथर्व० १०।२।११), तथा (अथर्व० १६।१।६)। इन तीनों स्थानों में सिन्धु तथा समुद्र पद हृदयार्थक है। अभिप्राय यह कि रस-रक्त, जिन में कि वीर्य विलीन रहता है, उन की स्वाभाविक गति हृदय की ओर है, उसे हृदय की ओर ही जाने देने का संकल्प 'ऊर्ध्वरेतस्-पुरुष'' करता है]
विषय
पापशोधन।
भावार्थ
हे अग्ने ! तू (अपाम् अग्रम् असि) जलों का अग्र, उनसे प्रथम उत्पन्न, उनका उपादान कारण है। हे अग्नियो ! रोगकारक संतापक पदार्थों ! (वः) तुमको मैं (समुद्रम्) समुद्र के प्रति (अभि अव सृजामि) बहा देता हूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिर्देवता। १, ३ साम्नी बृहत्यौ, २, १० याजुपीत्रिष्टुभौ, ४ आसुरी गायत्री, ५, ८ साम्नीपंक्त्यौ, (५ द्विपदा) ६ साम्नी अनुष्टुप्, ७ निचृद्विराड् गायत्री, ६ आसुरी पंक्तिः, ११ साम्नीउष्णिक्, १२, १३, आर्च्यनुष्टुभौ त्रयोदशर्चं प्रथमं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vratya-Prajapati daivatam
Meaning
O Vrshabha, cloud of divine showers, you are the pioneer of will and action. O will and actions of mind and will, I assign you all to the oceanic depths of the heart and soul suffered in the waters of divine light and generosity.
Translation
You are the foremost part of the waters. I let you loose towards the ocean.
Translation
This fire is first (cause) of waters therefore I make it let go to sea.
Translation
O men, God is the resort of mankind. I consign ye to Him, the Elevator of humanity.
Footnote
समुद्रः भूतानां समुदयकारकं परमात्मनम्। समुद्रः समुद्रद्रवन्ति भूतानि यस्मात्सः vide Dayananda Yajur, 5-33. सर्वे देवाः सम्यगुत्कर्षेण द्रवन्ति यत्रेति समुद्रः vide Mahidhar commentary Yajur 5-33
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(अपाम्) म० १। प्रजानाम् (अग्रम्) आलम्बनम् (असि)प्रथमपुरुषस्य मध्यमपुरुषः। अस्ति। वर्तते (समुद्रम्) अ० १०।५।२३। सम्+उत्+द्रुगतौ-ड प्रत्ययः। समुद्रः कस्मात्समुद्द्रवन्त्यस्मादापः, समभिद्रवन्त्येनमापः, सम्मोदन्तेऽस्मिन् भूतानि समुदको भवति समुनत्तीति वा-निरु० २।१०। समुद्रआदित्यः, समुद्र आत्मा-निरु० १४।१६। समुद्रः समुद्द्रवन्ति भूतानियस्मात्सः-दयानन्दभाष्ये, यजु० ५।३३। सर्वे देवाः सम्यगुत्कर्षेण द्रवन्तियत्रेति समुद्रः-महीधरभाष्ये, यजु० ५।३३। भूतानां समुदयकारकं परमात्मानम् (वः)युष्मान् (अभ्यवसृजामि) अभिलक्ष्यत्यजामि अनुज्ञापयामि ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal