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अथर्ववेद के काण्ड - 16 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 13
    ऋषिः - प्रजापति देवता - आर्ची अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
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    शि॒वान॒ग्नीन॑प्सु॒षदो॑ हवामहे॒ मयि॑ क्ष॒त्रं वर्च॒ आ ध॑त्त दे॒वीः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शि॒वान् । अ॒ग्नीन् । अ॒प्सु॒ऽसद॑: । ह॒वा॒म॒हे॒ । मयि॑ । क्ष॒त्रम् । वर्च॑: । आ । ध॒त्त॒ । दे॒वी॒: ॥१.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शिवानग्नीनप्सुषदो हवामहे मयि क्षत्रं वर्च आ धत्त देवीः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शिवान् । अग्नीन् । अप्सुऽसद: । हवामहे । मयि । क्षत्रम् । वर्च: । आ । धत्त । देवी: ॥१.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 1; मन्त्र » 13
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    दुःख से छूटने का उपदेश।

    पदार्थ

    (अप्सुषदः) प्रजाओंमें बैठनेवाले (शिवान्) आनन्दप्रद (अग्नीन्) विद्वानों को (हवामहे) हम बुलातेहैं, (देवीः) हे दिव्य गुणवाली प्रजाओ ! (मयि) मुझ में (क्षत्रम्) राज्य और (वर्चः) तेज (आ) आकर (धत्त) धारण करो ॥१३॥

    भावार्थ

    शूर पराक्रमी मनुष्यविद्वान् प्रजागणों की सम्मति से राज्य पद ग्रहण करके प्रतापी होवे॥१३॥

    टिप्पणी

    १३−(शिवान्) मङ्गलप्रदान् (अग्नीन्) अग्नयः=ज्ञानवन्तः-दयानन्दभाष्ये, यजु०५।३४। ज्ञानिनः पुरुषान् (अप्सुषदः) म० १। प्रजासु सदनशीलान् (हवामहे) आह्वयामः (मयि) पराक्रमिणि पुरुषे (क्षत्रम्) राज्यम् (वर्चः) तेजः (आ) आगत्य (धत्त)धारयत (देवीः) हे देव्यः प्रजाः ॥

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    विषय

    क्षत्रं+वर्चः

    पदार्थ

    १. हम कामाग्नि को शान्त करके उन (शिवान् अग्नीन्) = कल्याणकारिणी 'तेजस्विता-स्नेह व ज्ञान' की अग्नियों को (हवामहे) = पुकारते हैं, जोकि (अप्सुषदः) = इन सुरक्षित रेत:कणों में आसीन होनेवाली है। रेत:कणों के रक्षण से शरीर में तेजस्विता की अग्नि, हृदय में स्नेह की अग्नि तथा मस्तिष्क में ज्ञान की अग्नि का प्रादुर्भाव होता है। २. हे (देवी:) = रेत:कणरूप दिव्यगुणों से युक्त जलो! (मयि) = मुझमें (क्षत्रम्) = क्षतों से त्राण करनेवाले बल को तथा (वर्च:) = रोगों का निवारण करनेवाली प्राणशक्ति को (आधत्त) = स्थापित करो।

    भावार्थ

    शरीर में सुरक्षित रेत:कण हमें 'क्षत्र व वर्चस्' प्राप्त कराते हैं। इनमें ही 'तेजस्विता, स्नेह व ज्ञान' की अग्नियाँ निहित हैं।

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    भाषार्थ

    (अप्सुसदः) शारीरिक रस-रक्तों में या जलों में स्थित (शिवान्) कल्याणकारी (अग्नीन्) अग्नियों का (हवामहे) हम आह्वान करते हैं। हे कल्याणकारी अग्नियो ! (मयि) मुझ में (क्षत्रम्) क्षात्र शक्ति (वर्चः) दीप्ति, तथा (देवीः) दिव्य शक्तियां (आधत्त) स्थापित करो।

    टिप्पणी

    [रस-रक्तों में स्थित शिव अग्निया=उत्साह, उमङ्ग, जोश, दृढ़ संकल्प शिव संकल्प आदि। तथा जलों में स्थित रोग निवारक अग्नियां, यथा-- "अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तर्विश्वानि भेषजा। अग्निं च विश्वशंभुवम्।।(अथर्व० का० १। अनु० १।सू० ६। मन्त्र २)। अर्थात् सोम ने मुझे कहा है कि जलों के अन्दर सब औषध है, और सर्वरोगशमनकारी अग्नि भी है। इस प्रकार जल तथा जलनिष्ठ अग्नियों द्वारा चिकित्सा कर के क्षात्र भावनाएं, दीप्ति तथा दिव्य शक्तियां प्राप्त की जा सकती है। सोमः=जगदुत्पादक परमेश्वर तथा जल चिकित्सक वैद्य। सोम= Water(आप्टे)। देवीः= द्वितीया विभक्ति का बहुवचन। मन्त्र में यतः अग्नियों का आह्वान किया है, अतः इन द्वारा ही क्षत्र आदि का आधान जानना चाहिये, न कि आपः द्वारा। अतः देवीः पद आपः का कथन नहीं करता]

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    विषय

    पापशोधन।

    भावार्थ

    हम लोग (शिवान्) कल्याणकारी (अप्सुषदः) आप्त प्रजाओं के ऊपर शासक रूप में विराजमान (शिवान्) कल्याणकारी (अग्नीन्) अग्नि के समान विद्वान् प्रकाशमान् और अग्रणी नेताओं को हम लोग (हवामहे) आदर सत्कार से बुलाते हैं। हे (देवीः) दिव्य गुण वाली प्रजागणो ! आप लोग (क्षत्रं) क्षात्र धर्मयुक्त बल और (वर्चः) तेज (आ धत्त) धारण करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिर्देवता। १, ३ साम्नी बृहत्यौ, २, १० याजुपीत्रिष्टुभौ, ४ आसुरी गायत्री, ५, ८ साम्नीपंक्त्यौ, (५ द्विपदा) ६ साम्नी अनुष्टुप्, ७ निचृद्विराड् गायत्री, ६ आसुरी पंक्तिः, ११ साम्नीउष्णिक्, १२, १३, आर्च्यनुष्टुभौ त्रयोदशर्चं प्रथमं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    We invoke the divine light of mind and divine fire of will and action vibrant in the divine waters and radiant in the light divine. O divine showers of light and grace, consecrate me with splendour as individual and as the human social order.

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    Translation

    We invoke the auspicious fires seated within the waters. May they, the divine ones, bestow ruling power and lustre on me.

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    Translation

    I use into our purpose the auspicious fires which remain jn waters and led them be the source of providing us with princely power and splendor.

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    Translation

    We call the gracious learned persons who sit in our society. O godly subjects grant me princely power and splendour.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १३−(शिवान्) मङ्गलप्रदान् (अग्नीन्) अग्नयः=ज्ञानवन्तः-दयानन्दभाष्ये, यजु०५।३४। ज्ञानिनः पुरुषान् (अप्सुषदः) म० १। प्रजासु सदनशीलान् (हवामहे) आह्वयामः (मयि) पराक्रमिणि पुरुषे (क्षत्रम्) राज्यम् (वर्चः) तेजः (आ) आगत्य (धत्त)धारयत (देवीः) हे देव्यः प्रजाः ॥

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