अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 128/ मन्त्र 13
ऋषिः -
देवता - प्रजापतिरिन्द्रो वा
छन्दः - विराडार्ष्यनुष्टुप्
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
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त्वं वृ॑षा॒क्षुं म॑घव॒न्नम्रं॑ म॒र्याकरो॒ रविः॑। त्वं रौ॑हि॒णं व्यास्यो॒ वि वृ॒त्रस्याभि॑न॒च्छिरः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । वृ॑षा । अ॒क्षुम् । म॑घव॒न् । नम्र॑म् । म॒र्य । आक॒र: । रवि॑: ॥ त्वम् । रौ॑हि॒णम् । व्या॑स्य॒: । वि । वृ॒त्रस्य॑ । अभि॑न॒त् । शिर॑: ॥१२८.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं वृषाक्षुं मघवन्नम्रं मर्याकरो रविः। त्वं रौहिणं व्यास्यो वि वृत्रस्याभिनच्छिरः ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । वृषा । अक्षुम् । मघवन् । नम्रम् । मर्य । आकर: । रवि: ॥ त्वम् । रौहिणम् । व्यास्य: । वि । वृत्रस्य । अभिनत् । शिर: ॥१२८.१३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(मघवन्) हे धनवान् (मर्य) मनुष्य ! (त्वम) तूने (वृषा) बलवान् और (रविः) सूर्य [के समान प्रतापी] होकर (अक्षुम्) व्यापनशील [चतुर] (नम्रम्) नम्र [विनीत] पुरुष को (आकरः) आवाहन किया है। (त्वम्) तूने (रौहिणम्) मेघ [के समान अन्धकार फैलानेवाले पुरुष] को (व्यास्यः) फैंक गिराया है और (वृत्रस्य) शत्रु के (शिरः) शिर को (वि अभिनत्) तोड़ दिया है ॥१३॥
भावार्थ
सभापति राजा सूर्य के समान प्रतापी होकर चतुर सुशिक्षित लोगों का आदर और दुष्ट शत्रुओं का नाश करे ॥१३॥
टिप्पणी
१३−(त्वम्) (वृषा) बलवान् (अक्षुम्) अ० ९।३।८। अक्षू व्याप्तौ-उप्रत्ययः। व्यापनशीलं प्रवीणम् (मघवन्) धनवन् (नम्रम्) विनीतं पुरुषम् (मर्य) हे मनुष्य (आकरः) आ-अकरः। आङ्+डुकृञ् आह्वाने-लुङ्। आहूतवानसि (रविः) सूर्यवत्प्रतापी सन् (त्वम्) (रौहिणम्) अथ० २०।३४।१३। मेघमिवान्धकारकरं दुष्टम् (व्यास्यः) असु क्षेपे-लुङ्। प्रक्षिप्तवानसि (वि) पृथग्भावे (वृत्रस्य) शत्रुः (अभिनत्) अभिदः। भिन्नवानसि (शिरः) ॥
विषय
'रौहिण वृत्र' का विनाश
पदार्थ
१. हे (मघवन्) = [मघ-मख] यज्ञशील (मर्य) = मनुष्य! (त्वम्) = तू (वृषा) = शक्तिशाली-अपने में सोमशक्ति का सेचन करनेवाला व (रवि:) = अज्ञानान्धकार को नष्ट करनेवाला सूर्यसम ज्ञानदीप्त बना है। तू अपने सन्तानों को भी (अक्षुम्) = [अश] कर्मों में (व्याप्त) = खूब क्रियाशील (व नमम्) = ज्ञान से विनीत (अकरो:) = बनाता है। २. (त्वम्) = तू (रौहिणम्) = उपभोग से निरन्तर वृद्धि को प्रास होनेवाले इस कामासुर को [न जातु काम: कामानामुपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवर्मेव भूय एवाभिवर्धते ॥] (व्यास्य:) = विशेषरूप से दूर फेंकता है और (वृत्रस्य) = ज्ञान पर पर्दे के रूप में आ जानेवाले 'वृत्र' [लोभ] के (शिर:) = सिर को (वि अभिनत्) = विशेषरूप से विदीर्ण करता है, काम व लोभ को नष्ट करके ही यह यज्ञशील बनता है। स्वयं शक्तिशाली व ज्ञानी बनता हुआ यह सन्तानों को भी क्रियाशील व नम्र बनाता है।
भावार्थ
हम यज्ञशील बनकर शक्तिशाली व ज्ञानी बनें। हमारे सन्तान भी क्रियाशील व नम्न हों। हम काम व लोभ को विनष्ट कर पाएँ।
भाषार्थ
(मघवन्) हे सम्पत्तिशाली! (मर्य) हे मनुष्यों के स्वामी! (त्वम्) आप (रविः) सूर्य के सदृश प्रकाशमान हैं। आप (वृषाक्षुम्) प्रेमरसवर्षी आँखोंवाले को (नम्रम् अकरः) नम्र बना देते हैं। (त्वम्) आप (रौहिणम्) रजोधर्मवाले व्यक्ति को (व्यास्यः) अपने से परे फैंकते हैं, और (वृत्रस्य) उपासक के पाप-वृत्र का (शिरः) सिर (अभिनत्) आप कुचल देते हैं।
टिप्पणी
[मर्यः=मनुष्य (निघं০ २.३) अर्शाद्यच्। व्यास्यः=वि+अस् (प्रक्षेपे)। अक्षु=चक्षु।]
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Prajapati
Meaning
Lord of the world’s wealth and power, resplendent as the sun and generous as a rain cloud, maker of men as you are, pray make man happy and long lived and humble, you throw off the cover of darkness and break the head of the evil perpetrator.
Translation
O brave one, O man you strong and bold like sun make the man of skill to be of bending attitude, you drive away the man who like cloud spreads darkness (Rauhinam) and you rend the head of the wicked.
Translation
O brave one, O man you strong and bold like sun make the man of skill to be of bending attitude, you drive away the man who like cloud spreads darkness (Rauhinam) and you rend the head of the wicked.
Translation
The radio-operators direct the swiftly running vehicle, tank or aeroplane, equipped with the loud-speaking mechanism of both the positive and negative electricity to carry the great commander in a good formation of. The vehicles like a wrath for victory and success.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१३−(त्वम्) (वृषा) बलवान् (अक्षुम्) अ० ९।३।८। अक्षू व्याप्तौ-उप्रत्ययः। व्यापनशीलं प्रवीणम् (मघवन्) धनवन् (नम्रम्) विनीतं पुरुषम् (मर्य) हे मनुष्य (आकरः) आ-अकरः। आङ्+डुकृञ् आह्वाने-लुङ्। आहूतवानसि (रविः) सूर्यवत्प्रतापी सन् (त्वम्) (रौहिणम्) अथ० २०।३४।१३। मेघमिवान्धकारकरं दुष्टम् (व्यास्यः) असु क्षेपे-लुङ्। प्रक्षिप्तवानसि (वि) पृथग्भावे (वृत्रस्य) शत्रुः (अभिनत्) अभिदः। भिन्नवानसि (शिरः) ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
মনুষ্যকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(মঘবন্) হে ধনবান (মর্য) মনুষ্য! (ত্বম) তুমি (বৃষা) বলবান এবং (রবিঃ) সূর্য [এর সমান প্রতাপী] হয়ে (অক্ষুম্) ব্যাপনশীল [বুদ্ধিমান] (নম্রম্) নম্র [বিনীত] পুরুষকে (আকরঃ) আবাহন করেছো। (ত্বম্) তুমি (রৌহিণম্) মেঘকে [মেঘের সমান অন্ধকার বিস্তারকারী পুরুষকে] (ব্যাস্যঃ) প্রক্ষিপ্ত করেছো এবং (বৃত্রস্য) শত্রুর (শিরঃ) শির (বি অভিনৎ) ছিন্নভিন্ন করেছো ॥১৩॥
भावार्थ
সভাপতি রাজা সূর্যের সমান প্রতাপী হয়ে বুদ্ধিমান সুশিক্ষিত মানুষদের আদর এবং দুষ্ট শত্রুদের নাশ করুক॥১৩॥
भाषार्थ
(মঘবন্) হে সম্পত্তিশালী! (মর্য) হে মনুষ্যদের স্বামী! (ত্বম্) আপনি (রবিঃ) সূর্যের সদৃশ প্রকাশমান। আপনি (বৃষাক্ষুম্) প্রেমরসবর্ষী চক্ষুবিশিষ্টকে (নম্রম্ অকরঃ) নম্র করে দেয়। (ত্বম্) আপনি (রৌহিণম্) রজোধর্মসম্পন্ন ব্যক্তিকে (ব্যাস্যঃ) নিজের থেকে দূরে নিক্ষেপ করে, এবং (বৃত্রস্য) উপাসকের পাপ-বৃত্রের (শিরঃ) শির (অভিনৎ) আপনি চূর্ণ করেন।
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