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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 128 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 128/ मन्त्र 3
    ऋषिः - देवता - प्रजापतिरिन्द्रो वा छन्दः - निचृदनुष्टुप् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
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    यद्भ॒द्रस्य॒ पुरु॑षस्य पु॒त्रो भ॑वति दाधृ॒षिः। तद्वि॒प्रो अब्र॑वीदु॒ तद्ग॑न्ध॒र्वः काम्यं॒ वचः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । भ॒द्रस्य॒ । पुरु॑षस्य । पु॒त्र: । भ॑वति । दाधृ॒षि: ॥ तत् । वि॒प्र: । अब्र॑वीत् । ऊं॒ इति॑ । तत् । ग॑न्ध॒र्व: । काम्य॒म् । वच॑: ॥१२८.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्भद्रस्य पुरुषस्य पुत्रो भवति दाधृषिः। तद्विप्रो अब्रवीदु तद्गन्धर्वः काम्यं वचः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । भद्रस्य । पुरुषस्य । पुत्र: । भवति । दाधृषि: ॥ तत् । विप्र: । अब्रवीत् । ऊं इति । तत् । गन्धर्व: । काम्यम् । वच: ॥१२८.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 128; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (यत्) जब (भद्रस्य) श्रेष्ठ (पुरुषस्य) पुरुष का (पुत्रः) पुत्र (दाधृषिः) ढीठ (भवति) हो जावे, (तत्) तब (विप्रः) बुद्धिमान् (गन्धर्वः) विद्या के धारण करनेवाले पुरुष ने (उ) निश्चय करके (तत्) यह (काम्यम्) मनोहर (वचः) वचन (अब्रवीत्) कहा है [कि] ॥३॥

    भावार्थ

    विद्वानों को प्रयत्न करना चाहिये कि उनके सन्तान विद्वान् होकर विद्वानों से मिलकर रहें ॥३, ४॥

    टिप्पणी

    ३−(यत्) यदा (भद्रस्य) श्रेष्ठस्य (पुरुषस्य) (पुत्रः) (भवति) (दाधृषिः) किकिनावुत्सर्गश्छन्दसि सदादिभ्यो दर्शनात्। वा० पा० ३।२।१७१। ञिधृषा प्रागल्भ्ये-किन्, धृष्टः। प्रगल्भः। निर्लज्जः (तत्) तदा (विप्रः) मेधावी (अब्रवीत्) (उ) अवधारणे (तत्) इदम् (गन्धर्वः) अथ० २।१।२। गो+धृञ् धारणे-वप्रत्ययः, गोशब्दस्य गमादेशः। विद्याधारकः (काम्यम्) मनोहरम् (वचः) वचनम् ॥

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    विषय

    उदग्

    पदार्थ

    १. (यत्) = जब (भद्रस्य पुरुषस्य) = [भदि कल्याणे सुखे च] कल्याण-कर्मों को करनवाले पुरुष का (पुत्र:) = सन्तान (दाधृषिः) = शत्रुओं का-काम, क्रोध, लोभ का-धर्षण करनेवाला होता है? (तत्) = तब (गन्धर्व:) = ज्ञान की वाणियों का धारण करनेवाला (विप्रः) = अपना विशेषरूप से पूरण करनेवाला ज्ञानी पुरुष इस दाधृषि के लिए (काम्यं वच:) = कमनीय सुन्दर वेदवाणियों को (अब्रवीत्) = उपदिष्ट करता है। २. विद्यार्थी कुलीन हो, 'काम' आदि शत्रुओं का धर्षण करनेवाला हो, ऐसा होने पर उत्कृष्ट जीवनवाला ज्ञानी आचार्य ज्ञान की वाणियों को उपदिष्ट करता है। यह विद्यार्थी (उदग्)-ऊर्ध्वगतिवाला होता है [उत् अञ्च]-सदा उन्नति-पथ पर आगे बढ़ता है।

    भावार्थ

    उत्तम माता व पिता का सन्तान भी सामान्यतः उत्तम होता है-यह काम, क्रोध का शिकार नहीं होता रहता। इसे सदाचारी, ज्ञानी आचार्य ज्ञान की बाणियों का उपदेश करते हैं और यह सदा उन्नत होता चलता है।

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    भाषार्थ

    (भद्रस्य) कल्याणकारी और दूसरों को सुख पहुँचानेवाले (पुरुषस्य) पुरुष का (पुत्रः) पुत्र, (दाधृषिः) पापों का धर्षण करनेवाला (भवति) होता है (यत्) जो यह (काम्यं वचः) सुन्दर कथन है, (तत्) उसे (विप्रः) मेधावी पुरुष भी, (अब्रवीत् उ) निश्चयपूर्वक कहते हैं, और (तत्) उसे, (गन्धर्वः) वेदवाणी के विद्वान् भी कहते हैं।

    टिप्पणी

    [गन्धर्वः=गो=वाक्+धृ (धारणे)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Prajapati

    Meaning

    When the son of a noble man becomes bold and valorous and puts the evil down, then the man of knowledge and Vedic wisdom says good and lovable words about him.

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    Translation

    Whenever the son of any good man becomes bold and spirited the wise house-holding man says pleasant word about and for him.

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    Translation

    Whenever the son of any good man becomes bold and spirited the wise house-holding man says pleasant word about and for him.

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    Translation

    The person who honor and respect the learned persons and make right uses of the divine forces of nature and give profusely to the poor and the needly, reaching the highest state of spiritual brilliance, i.e., salvation, like the sun reaching the heavens and becoming fortunate and glorious, shine forth with a special splendor and luster.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(यत्) यदा (भद्रस्य) श्रेष्ठस्य (पुरुषस्य) (पुत्रः) (भवति) (दाधृषिः) किकिनावुत्सर्गश्छन्दसि सदादिभ्यो दर्शनात्। वा० पा० ३।२।१७१। ञिधृषा प्रागल्भ्ये-किन्, धृष्टः। प्रगल्भः। निर्लज्जः (तत्) तदा (विप्रः) मेधावी (अब्रवीत्) (उ) अवधारणे (तत्) इदम् (गन्धर्वः) अथ० २।१।२। गो+धृञ् धारणे-वप्रत्ययः, गोशब्दस्य गमादेशः। विद्याधारकः (काम्यम्) मनोहरम् (वचः) वचनम् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    মনুষ্যকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (যৎ) যখন (ভদ্রস্য) শ্রেষ্ঠ (পুরুষস্য) পুরুষের (পুত্রঃ) পুত্র (দাধৃষিঃ) নির্লজ্জ (ভবতি) হয়ে যাবে/যায়, (তৎ) তখন (বিপ্রঃ) বুদ্ধিমান (গন্ধর্বঃ) বিদ্যা ধারণকারী পুরুষ (উ) নিশ্চিতরূপে (তৎ) এই (কাম্যম্) মনোহর (বচঃ) বচন (অব্রবীৎ) বলেছে [যে] ॥৩॥

    भावार्थ

    বিদ্বানদের প্রচেষ্টা করা উচিৎ যেন তাঁদের সন্তান বিদ্বান হয় এবং বিদ্বানদের সাথে মেলামেশা করে ॥৩, ৪॥

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    भाषार्थ

    (ভদ্রস্য) কল্যাণকারী এবং অপরকে সুখ প্রদানকারী (পুরুষস্য) পুরুষের (পুত্রঃ) পুত্র, (দাধৃষিঃ) পাপের ধর্ষণকারী/বিনাশকারী (ভবতি) হয় (যৎ) যা এই (কাম্যং বচঃ) সুন্দর কথন আছে, (তৎ) তা (বিপ্রঃ) মেধাবী পুরুষও, (অব্রবীৎ উ) নিশ্চিতরূপে বলে, এবং (তৎ) তাঁকে, (গন্ধর্বঃ) বেদবাণীর বিদ্বানও বলে/বলা হয়।

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