अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 14/ मन्त्र 2
अव॑ जहि यातु॒धाना॒नव॑ कृत्या॒कृतं॑ जहि। अथो॒ यो अ॒स्मान्दिप्स॑ति॒ तमु॒ त्वं ज॑ह्योषधे ॥
स्वर सहित पद पाठअव॑ । ज॒हि॒ । या॒तु॒ऽधाना॑न् । अव॑ । कृ॒त्या॒ऽकृत॑म् । ज॒हि॒ । अथो॒ इति॑ । य: । अ॒स्मान् । दिप्स॑ति । तम् । ऊं॒ इति॑ । त्वम् । ज॒हि॒ । ओ॒ष॒धे॒ ॥१४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अव जहि यातुधानानव कृत्याकृतं जहि। अथो यो अस्मान्दिप्सति तमु त्वं जह्योषधे ॥
स्वर रहित पद पाठअव । जहि । यातुऽधानान् । अव । कृत्याऽकृतम् । जहि । अथो इति । य: । अस्मान् । दिप्सति । तम् । ऊं इति । त्वम् । जहि । ओषधे ॥१४.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
शत्रु के विनाश का उपदेश।
पदार्थ
(यातुधानान्) पीड़ा देनेवालों को (अव जहि) मार डाले, और (कृत्याकृतम्) हिंसा करनेवाले को (अव जहि) नाश करदे। (अथो) और भी (यः) जो (अस्मान्) हमें (दिप्सति) मारना चाहता है (तम् उ) उसे भी (त्वम्) तू (ओषधे) हे अन्न आदि ओषधि के समान तापनाशक ! (जहि) नाश कर ॥२॥
भावार्थ
मनुष्य शुभ गुण प्राप्त करके दुर्गुणों का नाश करे, जैसे अन्नसेवन से भूख का नाश होता है ॥२॥
टिप्पणी
२−(अव जहि) विनाशय (यातुधानान्) अ० १।७।१। यातनाप्रदान् (कृत्याकृतम्) अ० ४।१७।४। हिंसाकारिणम् (अथो) अपि च (यः) शत्रुः (अस्मान्) धार्मिकान् (दिप्सति) दम्भितुं हिंसितुमिच्छति (तम् उ) तमपि (त्वम्) (जहि) (ओषधे) हे अन्नवत्तापनाशक मनुष्य ॥
विषय
यातुधान व कृत्याकृत् का अवहनन
पदार्थ
१. हे (ओषधे) = दोषों का दहन करनेवाली ओषधे! (यातुधानान् अवजहि) = पीड़ा का आधान करनेवाले रोगों को तू सुदूर विनष्ट कर। (कृत्याकृत् अवजहि) = हमारी शक्तियों का छेदन करनेवाले रोग को दूर भगा दे। २. (अथ उ) = अब निश्चय से (य:) = जो भी रोग (अस्मान् दिप्सति) = हमें विनष्ट करना चाहता है, हे ओषधे! (तम्) = उसे (उ) = निश्चय से (त्वम् जहि) = तू विनष्ट कर दे।
भावार्थ
यह ओषधि पीड़ा के जनक, शक्तियों के छेदक, विनाशक रोग को नष्ट करती है|
भाषार्थ
(यातुधानान्) यातना के निधिरूप पुरुषों का (अव जहि) हनन कर, (कृत्याकृतम्) सैन्यसंग्रह करनेवाले राजा का (अव जहि) हनन कर । (अथो) तथा (यः) जो सेनापति (अस्मान् ) हमें (दिप्सति) दम्भपूर्वक नुकसान पहुंचाना चाहता है (ओषधे) हे ओषधि ! (तम्, उ) उसे ही (त्वम् ) तू (जहि) मार, उसका ही तू हनन कर। मन्त्र में ओषधित्रयोग द्वारा दुःख दायक व्यक्तियों के ही हनन का निर्देश किया है, सैन्य युद्ध में संनिकों के हनन का नहीं।]
विषय
दुष्टों के विनाश के उपाय।
भावार्थ
(यातुधानान्) पीड़ा देने वाले जीवों को (अव जहि) गिरा कर मार डाल और (कृत्या-कृतं) पर प्राणघात करने वाले को भी (अव जहि) विनाश कर। (अथो) और (यः) जो (अस्मान् दिप्सति) हमें विनाश करना चाहता है। (तम् उ) उस जीव को भी हे (ओषधे) ओषधे ! तापकारिन् ! (त्वं जहि) तू विनाश कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शुक्र ऋषिः। वनस्पतिर्देवता। कृत्याप्रतिहरणं सूक्तम्। १, २, ४, ६, ७, ९ अनुष्टुभः। ३, ५, १२ भुरित्रः। ८ त्रिपदा विराट्। १० निचृद् बृहती। ११ त्रिपदा साम्नी त्रिष्टुप्। १३ स्वराट्। त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Krtyapratiharanam
Meaning
Throw out the saboteurs, destroy the evil deeds. Oshadhi, O antidote of violence, whoever wants to injure, terrorize or destroy us, let the evil visit on him.
Translation
Kill the tormentors and kill the maker of fatal contrivances. And whosoever seeks to injure us, may you kill him, O medicinal herb.
Translation
Let this plant kill the disease germs and destroy the trouble caused by artificial means. Let it destroy that disease which gives us trouble.
Translation
O King, the remover of calamity like medicine, harm thou the tormenting souls, destroy the violent people. Chase afar, the man who fain would do us injury.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(अव जहि) विनाशय (यातुधानान्) अ० १।७।१। यातनाप्रदान् (कृत्याकृतम्) अ० ४।१७।४। हिंसाकारिणम् (अथो) अपि च (यः) शत्रुः (अस्मान्) धार्मिकान् (दिप्सति) दम्भितुं हिंसितुमिच्छति (तम् उ) तमपि (त्वम्) (जहि) (ओषधे) हे अन्नवत्तापनाशक मनुष्य ॥
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