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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 31/ मन्त्र 12
    ऋषिः - शुक्रः देवता - कृत्याप्रतिहरणम् छन्दः - पथ्याबृहती सूक्तम् - कृत्यापरिहरण सूक्त
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    कृ॑त्या॒कृतं वल॒गिनं॑ मू॒लिनं॑ शपथे॒य्य॑म्। इन्द्र॒स्तं ह॑न्तु मह॒ता व॒धेना॒ग्निर्वि॑ध्यत्व॒स्तया॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कृ॒त्या॒ऽकृत॑म् । व॒ल॒गिन॑म् । मू॒लिन॑म् । श॒प॒थे॒य्य᳡म् । इन्द्र॑: । तम् । ह॒न्तु॒ । म॒ह॒ता । व॒धेन॑ । अ॒ग्नि: । वि॒ध्य॒तु॒ । अ॒स्तया॑ ॥३१.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कृत्याकृतं वलगिनं मूलिनं शपथेय्यम्। इन्द्रस्तं हन्तु महता वधेनाग्निर्विध्यत्वस्तया ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कृत्याऽकृतम् । वलगिनम् । मूलिनम् । शपथेय्यम् । इन्द्र: । तम् । हन्तु । महता । वधेन । अग्नि: । विध्यतु । अस्तया ॥३१.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 31; मन्त्र » 12
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्रः) प्रतापी राजा (वलगिनम्) गुप्त काम करनेवाले (मूलिनम्) जड़ पकड़नेवाले, (शपथेय्यम्) कुवचन बोलनेवालों के प्रधान, (कृत्याकृतम्) हिंसा करनेवाले शत्रु को (महता) अपने बड़े (वधेन) वज्र से (हन्तु) मारे और (अग्निः) वही ज्ञानी राजा (अस्तया) अपने अस्त्र से (तम्) उस वैरी को (विध्यतु) वेध डाले ॥१२॥

    भावार्थ

    शूर वीर विद्वान् राजा दुराचारियों को यथावत् खोजकर दण्ड देता रहे ॥१२॥

    टिप्पणी

    १२−(कृत्याकृतम्) अ० ४।१७।४। हिंसाकारिणम् (वलगिनम्) म० ४। वलग-इनि। आच्छादनकर्माणम् (मूलिनम्) प्राप्तमूलम्। सुदृढम् (शपथेय्यम्) ढश्छन्दसि। पा० ४।४।१०६। इति बाहुलकात् शपथ−ढ। शपथे साधुः शपथेयः। तत्र साधुः। पा० ४।४।९८। इति यत्। शपथेयेषु साधुस्तम्। महाकुवचनकारिणम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यः (हन्तु) नाशयतु (महता) विशालेन (वधेन) हननसाधनेन वज्रेण (अग्निः) ज्ञानी राजा (विध्यतु) ताडयतु (अस्तया) हसिमृग्रिण्०। उ० ३।८६। इति असु क्षेपणे−तन्, टाप्। अस्त्रेण ॥ इति षष्ठोऽनुवाकः ॥ इति द्वादशः प्रपाठकः ॥ पञ्चमं काण्डं समाप्तम् ॥ इति श्रीमद्राजाधिराजप्रथितमहागुणमहिमश्रीसयाजीरावगायकवाड़ाधिष्ठितबड़ोदेपुरीगतश्रावणमास-परीक्षायाम् ऋक्सामाथर्ववेदभाष्येषु लब्धदक्षिणेन श्रीपण्डितक्षेमकरणदासत्रिवेदिना कृते अथर्ववेदभाष्ये पञ्चमं काण्डं समाप्तम् ॥

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    विषय

    कृत्याकृतं, बलगिनं, मूलिनं, शपथेव्यम्

    पदार्थ

    १. (इन्द्रः) = शत्रुओं का विद्रावक राजा (कृत्याकृतम्) = हिंसा करनेवाले (वलगिनम्) = नीच पुरुष को, छुपकर कुटिल कर्म करनेवाले को, (मूलिनम्) = जड़ उखाड़नेवाले को (शपथेव्यम्) = व्यर्थ निन्दक पुरुष को (महता वधेन) = महान् कठोर दण्ड से (हन्तु) = नष्ट कर दे। २. (अग्निः) = राष्ट्र को उन्नति-पथ पर ले-चलनेवाला राजा (अस्तया) = फेंके जानेवाले अस्त्रों से [बाण या गोली से] (तम्) = उसे (विध्यतु) = विद्ध कर दे।

    भावार्थ

    राजा प्रजापीड़कों को उचित दण्ड दे और इसप्रकार उपद्रवों को शान्त करे।

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    भाषार्थ

    (कृत्याकृतम् ) हिंस्रक्रिया करनेवाले, (वलगिनम् ) वलयाकार में गति कर आग लगानेवाले विस्फोटकों के स्वामी, (मूलिनम्१) बहुमूल्य सम्पत्ति वाले, (शपथेय्यम् ) शपथ२ लेने योग्य [कि भविष्य में मैं हिंस्रक्रिया नहीं करूँगा] शत्रु राजा को (इन्द्रः) सम्राट् (महता वधेन) महावधकारी आयुध द्वारा (विध्यतु) बींधे, अथवा (अग्निः) अग्रणी प्रधानमन्त्री (अस्तया 'इष्वा') शत्रु पर फेंकी गई इषु द्वारा बींधे।

    टिप्पणी

    [हिंस्रक्रिया करनेवाले, शक्तिशाली तथा शपथ लेनेवाले शत्रु राजा को सम्राट या प्रधानमन्त्री मृत्युदण्ड दें-यह उग्र दण्डनीति वेदानुमोदित है। राजा का वध, सम्राट् या प्रधानमन्त्री ही करे और कोई नहीं।] [१. मूलिनम् = अथवा "मूल सम्पत्ति है" अचल सम्पत्ति, स्थिर सम्पत्ति, तथा भूमि, मिलें आदि। तथा 'अमूला सम्पत्ति' (मन्त्र ४) है भूमि तथा मिलों से उत्पादित सम्पत्ति। २. "यदि पुनः युद्ध करूं तो अमुक दुश्मन को प्राप्त होऊँ"-युद्ध शपथ है, अभिप्राप इससे पृथक् है। अभिप्राय यह है कि आराधी राजा यदि शपथ ले ले तो इसे क्षमा कर दिया जाए परन्तु वह यदि अभिमान में आकर शपथ नहीं लेता तो उसे वध दण्ड दिया है।]

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    विषय

    गुप्त हिंसा के प्रयोग करने वालों का दमन।

    भावार्थ

    (इन्द्रः) इन्द्र राजा, (तं कृत्याकृतं) उस हिंसाकारी (बलगिनं) नीच, कुटिलगामी (मूलिनं) विषैली जड़ों के आधारों पर दूसरों की हत्या करने वाले और (शपथेय्यं) व्यर्थ निन्दक पुरुष को (महता वधेन) बड़े भारी कठोर दण्ड से (हन्तु) मारे और (अग्निः) अग्नि, सेनापति अपने (अस्तया) फेंके जाने वाले बाण या गोली से (विध्यतु) बेंध डाल।

    टिप्पणी

    इति षष्ठोऽनुवाकः॥ इति पंचमं काण्डं समाप्तम्। अनुवाकाः पञ्चमे षडेकत्रिंशच्च सूक्तम्। षट्‌सप्ततिश्च त्रिशती ऋचां च परिगण्यते॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुक्र ऋषिः। कृत्यादूषणं देवता। १-१० अनुष्टुभः। ११ बुहती गर्भा। १२ पथ्याबृहती। द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Refutation of Evil

    Meaning

    Let Indra, the ruler and all men of power and wisdom, with a mighty stroke of justice and punishment, eliminate the evil doer, secret saboteur, the rooted deceiver and the leader of the evil doers. Let Agni, far seeing commander of the police, and commander of the defence forces, fix and shoot him out with his weapon.

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    Translation

    The maker of fatal contrivance, inflicter of secret violence, applier of herbal roots, and imposer cursing, may the king kill him with his great weapon and may the commander of the army pierce him with his missile.

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    Translation

    Let Indra, the powerful ruler slay with nightly weapon and the commanding officer with his missile pierce that Wicked man who has firm root, who uses the words of curse and who utilizes the harmful artificial device to inflict harm upon others.

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    Translation

    May the king slay with mighty bolt, may the Commander-in-chiefwith his missile pierce the mischief-monger, who is low-bred, deep rooted,and slanderous.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १२−(कृत्याकृतम्) अ० ४।१७।४। हिंसाकारिणम् (वलगिनम्) म० ४। वलग-इनि। आच्छादनकर्माणम् (मूलिनम्) प्राप्तमूलम्। सुदृढम् (शपथेय्यम्) ढश्छन्दसि। पा० ४।४।१०६। इति बाहुलकात् शपथ−ढ। शपथे साधुः शपथेयः। तत्र साधुः। पा० ४।४।९८। इति यत्। शपथेयेषु साधुस्तम्। महाकुवचनकारिणम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यः (हन्तु) नाशयतु (महता) विशालेन (वधेन) हननसाधनेन वज्रेण (अग्निः) ज्ञानी राजा (विध्यतु) ताडयतु (अस्तया) हसिमृग्रिण्०। उ० ३।८६। इति असु क्षेपणे−तन्, टाप्। अस्त्रेण ॥ इति षष्ठोऽनुवाकः ॥ इति द्वादशः प्रपाठकः ॥ पञ्चमं काण्डं समाप्तम् ॥ इति श्रीमद्राजाधिराजप्रथितमहागुणमहिमश्रीसयाजीरावगायकवाड़ाधिष्ठितबड़ोदेपुरीगतश्रावणमास-परीक्षायाम् ऋक्सामाथर्ववेदभाष्येषु लब्धदक्षिणेन श्रीपण्डितक्षेमकरणदासत्रिवेदिना कृते अथर्ववेदभाष्ये पञ्चमं काण्डं समाप्तम् ॥

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