अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 29/ मन्त्र 11
स॒नाद॑ग्ने मृणसि यातु॒धाना॒न्न त्वा॒ रक्षां॑सि॒ पृत॑नासु जिग्युः। स॒हमू॑रा॒ननु॑ दह क्र॒व्यादो॒ मा ते॑ हे॒त्या मु॑क्षत॒ दैव्या॑याः ॥
स्वर सहित पद पाठस॒नात् । अ॒ग्ने॒ । मृ॒ण॒सि॒ । या॒तु॒ऽधाना॑न् । न । त्वा॒ । रक्षां॑सि । पृत॑नासु । जि॒ग्यु॒: । स॒हऽमू॑रान् । अनु॑ । द॒ह॒ । क्र॒व्य॒ऽअद॑: । मा । ते॒ । हे॒त्या: । मु॒क्ष॒त॒ । दैव्या॑या: ॥२९.११॥
स्वर रहित मन्त्र
सनादग्ने मृणसि यातुधानान्न त्वा रक्षांसि पृतनासु जिग्युः। सहमूराननु दह क्रव्यादो मा ते हेत्या मुक्षत दैव्यायाः ॥
स्वर रहित पद पाठसनात् । अग्ने । मृणसि । यातुऽधानान् । न । त्वा । रक्षांसि । पृतनासु । जिग्यु: । सहऽमूरान् । अनु । दह । क्रव्यऽअद: । मा । ते । हेत्या: । मुक्षत । दैव्याया: ॥२९.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 29; मन्त्र » 11
विषय - दैव्या हेति
पदार्थ -
१. हे (अग्ने) = अग्रणी-हमें नीरोग बनाकर आगे ले-चलनेवाले वैद्य ! तू (यातुधानान्) = पीड़ा देनेवाले कृमियों को (सनात् मृणसि) = सदा नष्ट करता है। ये (रक्षांसि) = रोगकृमिरूप राक्षस (त्वा) = तुझे (पृतनासु न जिग्युः) = संग्रामों में पराभूत नहीं कर पाते। तू उचित औषध द्वारा इनका विनाश कर देता है। २. इन (क्रव्यादः) = मांस खा जानेवाले कृमियों को (सहमूरान्) = मूलसहित (अनुदह) = जला दे। (ते) = तेरी (दैव्याया:) = रोगों को जीतने की कामना में उत्तम (हेत्या:) = औषधरूप वन से (मा मुक्षत) = यह रोग छूट न जाए।
भावार्थ -
वैद्य रोगकृमियों को विनष्ट करे। रोगकृमियों के साथ संग्राम में वैद्य पराजित न हो। यह उन मांसभक्षक कृमियों को जड़ से उखाड़ दे। उसकी औषधरूप दैव्या हेति से कोई रोगकृमि छूट न जाए।
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