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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 29

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 29/ मन्त्र 13
    सूक्त - चातनः देवता - जातवेदाः छन्दः - भुरिगनुष्टुप् सूक्तम् - रक्षोघ्न सूक्त

    सोम॑स्येव जातवेदो अं॒शुरा प्या॑यताम॒यम्। अग्ने॑ विर॒प्शिनं॒ मेध्य॑मय॒क्ष्मं कृ॑णु॒ जीव॑तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सोम॑स्यऽइव । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । अ॒शु: । आ । प्या॒य॒ता॒म् । अ॒यम् । अग्ने॑ । वि॒ऽर॒प्शिन॑म् । मेध्य॑म् । अ॒य॒क्ष्मम् । कृ॒णु॒ । जीव॑तु ॥२९.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सोमस्येव जातवेदो अंशुरा प्यायतामयम्। अग्ने विरप्शिनं मेध्यमयक्ष्मं कृणु जीवतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सोमस्यऽइव । जातऽवेद: । अशु: । आ । प्यायताम् । अयम् । अग्ने । विऽरप्शिनम् । मेध्यम् । अयक्ष्मम् । कृणु । जीवतु ॥२९.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 29; मन्त्र » 13

    पदार्थ -

    १. हे (जातवेदः) = ज्ञानी वैद्य ! (अयम्) = यह पुरुष (सोमस्य अंशः इव) = चन्द्रमा की किरण के समान (आप्यायताम्) = आष्यायित होता चले। जैसे चन्द्रमा की एक-एक किरण बढ़ती जाती है, इसीप्रकार यह बढ़ता चले। २. हे (अग्ने) = अग्रणी वैद्य! तू इस पुरुष को (विरप्शिनम्) = निर्दोष अथवा शुद्ध शब्दों का उच्चारण करनेवाला (मेध्यम्) = पवित्र (अयक्ष्मम्) = नीरोग (कृणु) = कर दे, (जीवतु) = यह पूर्ण जीवन को जीनेवाला हो।

    भावार्थ -

    उचित औषध-प्रयोग से चन्द्रमा की भाँति वृद्धि को प्राप्त होता हुआ यह पुरुष "निर्दोष, पवित्र व नीरोग' बने।

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