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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 29

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 29/ मन्त्र 3
    सूक्त - चातनः देवता - जातवेदाः छन्दः - त्रिपदा विराड्गायत्री सूक्तम् - रक्षोघ्न सूक्त

    यथा॒ सो अ॒स्य प॑रि॒धिष्पता॑ति॒ तथा॒ तद॑ग्ने कृणु जातवेदः। विश्वे॑भिर्दे॒वैः स॒ह सं॑विदा॒नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यथा॑ । स: । अ॒स्य । प॒रि॒ऽधि: । पता॑ति । तथा॑ । तत् । अ॒ग्ने॒ । कृ॒णु॒ । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । विश्वे॑भि: । दे॒वै: । स॒ह । स॒म्ऽवि॒दा॒न: ॥२९.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यथा सो अस्य परिधिष्पताति तथा तदग्ने कृणु जातवेदः। विश्वेभिर्देवैः सह संविदानः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यथा । स: । अस्य । परिऽधि: । पताति । तथा । तत् । अग्ने । कृणु । जातऽवेद: । विश्वेभि: । देवै: । सह । सम्ऽविदान: ॥२९.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 29; मन्त्र » 3

    पदार्थ -

    १. हे (जातवेदः अग्ने) = सर्वज्ञ अग्रणी प्रभो! (विश्वेभिः देवैः सह संविदान:) = माता-पिता, आचार्य व अतिथि आदि सब देवों के साथ ऐकमत्य [मेलवाले].होकर (तत् तथा कृणु) = उसे नैमा कीजिा (यशा) = जिससे कि (अस्य) = इस रोग का (सः परिधिः) = वह घेरा (पताति) = गिर जाता है, गिर जाए।

    भावार्थ -

    प्रभु सब देवों के साथ ऐसी व्यवस्था करें कि हमें घेरनेवाले रोगों का घेरा टूट जाए।

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