अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 29/ मन्त्र 15
ता॑र्ष्टा॒घीर॑ग्ने स॒मिधः॒ प्रति॑ गृह्णाह्य॒र्चिषा॑। जहा॑तु क्र॒व्याद्रू॒पं यो अ॑स्य मां॒सं जिही॑र्षति ॥
स्वर सहित पद पाठता॒र्ष्ट॒ऽअ॒घी: । अ॒ग्ने॒ । स॒म्ऽइध॑: । प्रति॑ । गृ॒ह्णा॒हि॒ । अ॒र्चिषा॑ । जहा॑तु । क्र॒व्य॒ऽअत् । रू॒पम् । य: । अ॒स्य॒ । मां॒सम् । जिही॑र्षति ॥२९.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
तार्ष्टाघीरग्ने समिधः प्रति गृह्णाह्यर्चिषा। जहातु क्रव्याद्रूपं यो अस्य मांसं जिहीर्षति ॥
स्वर रहित पद पाठतार्ष्टऽअघी: । अग्ने । सम्ऽइध: । प्रति । गृह्णाहि । अर्चिषा । जहातु । क्रव्यऽअत् । रूपम् । य: । अस्य । मांसम् । जिहीर्षति ॥२९.१५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 29; मन्त्र » 15
विषय - तार्ष्टाघी: समिधः
पदार्थ -
१. तार्ष्टाघी: = [ताष्ट अघि गत्याक्षेपणयोः] तृष्णा को विनष्ट करनेवाली (समिधः) = ज्ञानदीसियों को (अर्चिषा) = [अर्च पूजायाम्] प्रभु-पूजन के द्वारा (प्रतिगृह्राहि) = ग्रहण करनेवाला बन। २. इसप्रकार प्रभुपूजन व ज्ञान-दीसियों में प्रवृत्त, लोभनिवृत्त पुरुष को (यः) = जो भी रोगकृमि सताता है और (अस्य) = इसके (मांसम्) = मांस को (जिहीर्षति) = हरना चाहता है, वह (क्रव्यात्) = मांसभक्षक कृमि (रूपं जहातु) = अपने रूप को छोड़ दे, अर्थात् वह कृमि नष्ट हो जाए।
भावार्थ -
ज्ञानदीप्ति तृष्णा को नष्ट करती है। यह ज्ञानदीप्ति प्रभुपूजन से प्राप्त होती है। इस ज्ञानदीस पुरुष को रोग नहीं सताते।
विशेष -
सब रोगों को अपने से पृथक् करनेवाला-रोगों से अपना पीछा छुड़ानेवाला यह ऋषि 'उन्मोचन' है। यही अगले सूक्त का ऋषि है