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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 140 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 140/ मन्त्र 11
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अग्निः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    इ॒दम॑ग्ने॒ सुधि॑तं॒ दुर्धि॑ता॒दधि॑ प्रि॒यादु॑ चि॒न्मन्म॑न॒: प्रेयो॑ अस्तु ते। यत्ते॑ शु॒क्रं त॒न्वो॒३॒॑ रोच॑ते॒ शुचि॒ तेना॒स्मभ्यं॑ वनसे॒ रत्न॒मा त्वम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒दम् । अ॒ग्ने॒ । सुऽधि॑तम् । दुःऽधि॑तात् । अधि॑ । प्रि॒यात् । ऊँ॒ इति॑ । चि॒त् । मन्म॑नः । प्रेयः॑ । अ॒स्तु॒ । ते॒ । यत् । ते॒ । शु॒क्रम् । त॒न्वः॑ । रोच॑ते । शुचि॑ । तेन॑ । अ॒स्मभ्य॑म् । व॒न॒से॒ । रत्न॑म् । आ । त्वम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इदमग्ने सुधितं दुर्धितादधि प्रियादु चिन्मन्मन: प्रेयो अस्तु ते। यत्ते शुक्रं तन्वो३ रोचते शुचि तेनास्मभ्यं वनसे रत्नमा त्वम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इदम्। अग्ने। सुऽधितम्। दुःऽधितात्। अधि। प्रियात्। ऊँ इति। चित्। मन्मनः। प्रेयः। अस्तु। ते। यत्। ते। शुक्रम्। तन्वः। रोचते। शुचि। तेन। अस्मभ्यम्। वनसे। रत्नम्। आ। त्वम् ॥ १.१४०.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 140; मन्त्र » 11
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे अग्ने दुर्धितादु प्रियात्सुधितमिदं मन्मनस्ते प्रेयोऽस्तु यत्ते चित् तन्वः शुचि शुक्रमधिरोचते तेनास्मभ्यं त्वं रत्नमावनसे ॥ ११ ॥

    पदार्थः

    (इदम्) (अग्ने) विद्वन् (सुधितम्) सुष्ठु धृतम् (दुर्धितात्) दुःखेन धृतात् (अधि) (प्रियात्) (उ) वितर्के (चित्) अपि (मन्मनः) मम मनः (प्रेयः) अतिशयेन प्रियम् (अस्तु) भवतु (ते) तुभ्यम् (यत्) (ते) तव (शुक्रम्) शुद्धम् (तन्वः) शरीरस्य (रोचते) (शुचि) पवित्रकारकम् (तेन) (अस्मभ्यम्) (वनसे) संभजसि) (रत्नम्) (आ) (त्वम्) ॥ ११ ॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्दुःखान्न शोचितव्यं सुखाच्च न हर्षितव्यं यतः परस्परस्योपकाराय चित्तं संलग्येत यदैश्वर्यं तत्सर्वेषां सुखाय विभज्येत ॥ ११ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) विद्वान् ! (दुर्धितात्) दुःख के साथ धारण किये हुए व्यवहार (उ) या तो (प्रियात्) प्रिय व्यवहार से (सुधितम्) सुन्दर धारण किया हुआ (इदम्) यह (मन्मनः) मेरा मन (ते) तुम्हारा (प्रेयः) अतीव पियारा (अस्तु) हो और (यत्) जो (ते) तुम्हारे (चित्) निश्चय के साथ (तन्वः) शरीर का (शुचि) पवित्र करनेवाला (शुक्रम्) शुद्ध पराक्रम (अधिरोचते) अधिकतर प्रकाशमान होता है (तेन) उससे (अस्मभ्यम्) हम लोगों के लिये (त्वम्) आप (रत्नम्) मनोहर धन का (आ, वनसे) अच्छे प्रकार सेवन करते हैं ॥ ११ ॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को दुःख से सोच न करना चाहिये और न सुख से हर्ष मानना चाहिये, जिससे एक दूसरे के उपकार के लिये चित्त अच्छे प्रकार लगाया जाय और जो ऐश्वर्य हो, वह सबके सुख के लिये बाँटा जाय ॥ ११ ॥

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    विषय

    मन्मनः [Confidential whispering]

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = परमात्मन्! (दुर्धितात्) = बड़ी कठिनता से अर्जन व धारण किये जानेवाले (अधिप्रियात् उ चित्) = अत्यधिक प्रिय धन से भी (इदम्) = यह (सुधितम्) = हृदय में उत्तमता से धारण की गई (ते) = आपकी (मन्मनः) = हृदयस्थरूपेण दी गई प्रेरणा (प्रेयः अस्तु) = मुझे अधिक प्रिय हो। मैं सांसारिक ऐश्वर्यों की अपेक्षा आपसे दी जानेवाली प्रेरणा को अधिक महत्त्व दूँ। २. हे प्रभो ! (यत्) = जो (ते) = आपका (तन्वः) = शरीर का (शुक्रम्) = वीर्य-शरीर में उत्पन्न किया गया यह तेज (शुचि रोचते) = दीप्ति से चमकता है, तेन उस शुक्र से (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए (त्वम्) = आप (रत्नम्) = रमणीयता को अथवा शरीरस्थ सप्त धातुरूप सात रत्नों को आवनसे सब प्रकार से प्राप्त कराते हैं। वीर्यरक्षण से शरीर की सब धातुएँ ठीक रहती हैं और शरीर दीप्तिमय बना रहता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमें धन की अपेक्षा प्रभु की प्रेरणा अधिक प्रिय हो। शरीर में शुक्र का रक्षण करते हुए हम शरीर को रमणीय बनाएँ।

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    विषय

    यज्ञाग्नि, मेघस्थ विद्युत् के दृष्टान्त से विद्वान् नायक वा राजा के प्रति प्रजा का कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे ( अग्ने ) अग्रणी नायक ! विद्वन् ! पालक पते ! ( दुर्धि- ताद् ) दुःख से प्राप्त किये और कष्ट से सुरक्षित ( प्रियात्) प्रिय धन आदि के ( अधि) भी ऊपर, उससे भी बढ़कर ( इदम् ) यह (सुधि- तम् ) सुख से धारण करने योग्य (उ चित् ) ही उत्तम ( मन्मनः ) मन को अति आकर्षक मेरा चित्त ही ( ते प्रियः अस्तु ) तुझे प्रिय हो । और ( यत् ) जो ( ते तन्वः ) तेरे विस्तृत देह के समान राष्ट्र का ( शुक्रं ) शुद्ध ( शुचि ) पवित्र तेज, बल ( रोचते ) चमकता है ( तेन ) उसके बल से ( त्वम् ) तू ( अस्मभ्यम् ) हमें ( रत्नम् ) रमण करने योग्य ऐश्वर्य ( आ वनसे ) प्राप्त करा । [ २ ] जाया-पति पक्ष में—( रत्नम् ) शुद्ध वीर्य द्वारा पुत्र रत्न प्राप्त करा ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा औचथ्य ऋषिः॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ५, ८ जगती । २, ७, ११ विराड्जगती । ३, ४, ९ निचृज्जगती च । ६ भुरिक् त्रिष्टुप् । १०, १२ निचृत् त्रिष्टुप् पङ्क्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी दुःखात शोक व सुखात हर्ष मानू नये. एक दुसऱ्यावर उपकार करण्यासाठी मन लावावे व ऐश्वर्य सर्वांच्या सुखासाठी वापरावे. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, may this mind and song of ours composed with love and dedicated in faith be dearer to you than the dearest song composed with the greatest effort for you, and may the splendour of your person which blazes pure and sacred be auspicious for us by which you bring us precious jewels of life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Some good tips for an ideal life are pointed out.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O God ! you posses all learning. May this my mind be close and loving to you. I try to keep it balanced and unperturbed during trouble and in joy. With the pure radiance of your person which shines brightly, distribute all your good wealth among us.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Man should always try to keep his mind in the equilibrium, neither feeling sore over sufferings nor on getting delights. The acquired wealth should be distributed justly for the happiness of humanity.

    Translator's Notes

    ( दुधितात् ) दुखेन धृतात् = From the trouble. (वनसे ) संभजसे = You distribute.

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