ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 140/ मन्त्र 12
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
रथा॑य॒ नाव॑मु॒त नो॑ गृ॒हाय॒ नित्या॑रित्रां प॒द्वतीं॑ रास्यग्ने। अ॒स्माकं॑ वी॒राँ उ॒त नो॑ म॒घोनो॒ जनाँ॑श्च॒ या पा॒रया॒च्छर्म॒ या च॑ ॥
स्वर सहित पद पाठरथा॑य । नाव॑म् । उ॒त । नः॒ । गृ॒हाय॑ । नित्य॑ऽअरित्राम् । प॒त्ऽवती॑म् । रा॒सि॒ । अ॒ग्ने॒ । अ॒स्माक॑म् । वी॒रान् । उ॒त । नः॒ । म॒घोनः॑ । जना॑न् । च॒ । या । पा॒रया॑त् । शर्म॑ । या । च॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
रथाय नावमुत नो गृहाय नित्यारित्रां पद्वतीं रास्यग्ने। अस्माकं वीराँ उत नो मघोनो जनाँश्च या पारयाच्छर्म या च ॥
स्वर रहित पद पाठरथाय। नावम्। उत। नः। गृहाय। नित्यऽअरित्राम्। पत्ऽवतीम्। रासि। अग्ने। अस्माकम्। वीरान्। उत। नः। मघोनः। जनान्। च। या। पारयात्। शर्म। या। च ॥ १.१४०.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 140; मन्त्र » 12
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे अग्ने विद्वँस्त्वं या अस्माकं वीरानुत मघोनो जनान्नोऽस्माँश्च समुद्रं पारयात् या च नः शर्मागमयेत् तां नित्यारित्रां पद्वतीं नावं नो रथायोत गृहाय रासि ॥ १२ ॥
पदार्थः
(रथाय) समुद्रादिषु रमणाय (नावम्) बृहतीं नौकाम् (उत) अपि (नः) अस्माकम् (गृहाय) निवासस्थानाय (नित्यारित्राम्) नित्यानि अरित्राणि स्तम्भनानि जलगाम्भीर्य्यपरीक्षकाणि यस्यां ताम् (पद्वतीम्) पादा इव प्रशस्तानि चक्राणि विद्यन्ते यस्यां ताम् (रासि) ददासि (अग्ने) प्राप्तशिल्पविद्य (अस्माकम्) (वीरान्) अतिरथान्योद्धॄन् (उत) अपि (नः) अस्मान् (मघोनः) धनाढ्यान् (जनान्) प्रसिद्धान् विदुषः (च) (या) (पारयात्) समुद्रपारं गमयेत् (शर्म) गृहम् (या) (च) ॥ १२ ॥
भावार्थः
विद्वद्भिर्यथा मनुष्या अश्वादयश्च पद्भ्यां गच्छन्ति तादृशीं बृहतीं नावं रचयित्वा द्वीपान्तरे समुद्रे युद्धाय व्यवहाराय च गत्वाऽऽगत्य ऐश्वर्योन्नतिः सततं कार्य्या ॥ १२ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (अग्ने) शिल्पविद्या पाये हुए विद्वान् ! आप (या) जो (अस्माकम्) हमारे (वीरान्) वीरों (उत) और भी (मघोनः) धनवान् (जनान्) मनुष्यों और (नः) हम लोगों को (च) भी समुद्र के (पारयात्) पार उतारे (च) और (या) जो हमको (शर्म) सुख को अच्छे प्रकार प्राप्त करे उस (नित्यारित्राम्) नित्य दृढ़ बन्धनयुक्त जल की गहराई की परीक्षा करनेवाले स्तम्भों तथा (पद्वतीम्) पैरों के समान प्रशंसित पहियों से युक्त (नावम्) बड़ी नाव को (नः) हमारे (रथाय) समुद्र आदि में रमण के लिये (उत) वा (गृहाय) घर के लिये (रासि) देते हो ॥ १२ ॥
भावार्थ
विद्वानों को चाहिये कि जैसे मनुष्य और घोड़े आदि पशु पैरों से चलते हैं, वैसे चलनेवाली बड़ी नाव रचके और एक द्वीप से दूसरे द्वीप वा समुद्र में युद्ध अथवा व्यवहार के लिये जाय-आय (=जाना-आना) करके ऐश्वर्य की उन्नति निरन्तर करें ॥ १२ ॥
विषय
शरीररूप नाव
पदार्थ
१. हे (अग्ने) = परमात्मन्! आप (नः) = हमें (रथाय) = [रंहणाय] तीव्रगति से जाने के लिए (नावम्) = इस शरीररूप नौका को (रासि) = देते हैं, जो नाव (नित्यारित्राम्) = [नित्यः - the ocean] इस भवसागर में चप्पुओंवाली है- इस भवसागर को पार करने के लिए साधनभूत चप्पुओं से युक्त है। (पद्वतीम्) = गति के साधनभूत अङ्गोंवाली है। यह नौका इस सागर में तीव्रगति के लिए तो है ही उत और गृहाय सागर को पार करके घर में पहुँचने के लिए है। हमारा घर ब्रह्मलोक है। उस ब्रह्मलोक में पहनने के लिए यह बात साधन बनती है। यह नौका वह है (या) = जो (अस्माकम्) = हममें से (वीरान्) = वीर पुरुषों को (उत) = और (नः) = हममें से (मघोनः जनान्) = यज्ञशील पुरुषों को (पारयात्) = भवसागर के पार लगाती है, (च) = और (या) = जो (शर्म) = सुख का साधन बनती है। इस शरीररूप नौका को प्राप्त करके हम इस जीवन में वीर व यज्ञशील बनकर अवश्य ही तीव्रगति से इस भवसागर को पार करते हुए प्रभु को प्राप्त करनेवाले बनेंगे। वहाँ पहुँचकर सब दुःखों का अन्त हो जाएगा।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु ने शरीररूपी नौका दी है। हम वीर व यज्ञशील बनकर, विषय-वासनाओं से ऊपर उठते हुए ब्रह्मप्राप्ति की ओर अग्रसर हों।
विषय
नौकावत् सेना का निर्माण, पक्षान्तर में ‘पद्वती नौ’ का रहस्य ।
भावार्थ
जिस प्रकार विद्वान् पुरुष ( रथाय उत गृहाय नित्यारित्रां पद्वतीं नावम् ) रमण करने और वेग से जाने के लिये और गृह तक पहुंचने के लिये स्थिर चप्पुओं वाली और दृढ़ पैर या लंगर वाली नाव को तैयार करता है उसी प्रकार हे ( अग्ने ) अग्रणी नायक ! राजन् ! तू ( स्थाय ) रमण करने के लिये, वेग से जाने के लिये ( उत् ) और ( नः गृहाय ) हमारे राष्ट्र को अपने वश में कर लेने, हमारे गृह वसा कर रहने के लिये, तू हमें ( नित्यारित्राम् ) नित्य शत्रुओं से बचाने वाली ( पद्वतीम् ) चरणों वाली ( नावम् ) शत्रुओं को दूर हटा देने वाली सेना को (रासि) प्रदान कर । ( या च ) जो ( नः ) हमारे ( वीरान् ) वीर पुरुषों को और ( जनान् ) राष्ट्रवासी ( अस्माकं ) हमारे ( मघोनः च ) धनसम्पन्न जनों को भी ( पारयात् ) संकटों से पार करे, पालन करे, ऐश्वर्य से पूर्ण करे और ( शर्म च ) सुखदायी हो । अध्यात्म में—पद्वती नौ यह देह है । आत्मा के रमण करने और बन्धन में रखने दोनों प्रयोजनों के लिये है। वह हमें ( वीरान् ) प्राणों को और ( जनान् ) आत्मा को भी भवसागर से पार उतारती और सुख प्राप्त कराती है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा औचथ्य ऋषिः॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ५, ८ जगती । २, ७, ११ विराड्जगती । ३, ४, ९ निचृज्जगती च । ६ भुरिक् त्रिष्टुप् । १०, १२ निचृत् त्रिष्टुप् पङ्क्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जशी माणसे, घोडे व पशू पायांनी चालतात तशा विद्वानांनी नावा तयार करून एका द्वीपाहून दुसऱ्या द्वीपात किंवा समुद्रात युद्ध अथवा व्यवहारासाठी जाणे येणे करून ऐश्वर्य वाढवावे ॥ १२ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, lord of light, fire and knowledge, for our chariot-car and for our home, give us the power fitted with life-time mechanism for propulsion, steering and measuring the depth of water, a transport which may take our brave heroes, leaders of power and men of wealth, and the people across the rivers and seas and which may provide for peace, protection and a comfortable house.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Our heroes and wealthy persons should go abroad.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
You are a learned artist. O our leader! you arrange us a big boat or steamer equipped with oars, wheels and other implements. That may take across the ocean our soldiers, our wealthy friends and scholars possessing the wealth of knowledge. Also be a source of joy to us, at home and abroad.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The adventurous traders businessmen and army men should go abroad in ships to distant regions, for business and for warfare, whenever necessary. The national prosperity is thus multiplied.
Foot Notes
(रथाय) समुद्रादिषु रमणाय = For enjoying sea voyage.
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