ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 140/ मन्त्र 7
स सं॒स्तिरो॑ वि॒ष्टिर॒: सं गृ॑भायति जा॒नन्ने॒व जा॑न॒तीर्नित्य॒ आ श॑ये। पुन॑र्वर्धन्ते॒ अपि॑ यन्ति दे॒व्य॑म॒न्यद्वर्प॑: पि॒त्रोः कृ॑ण्वते॒ सचा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठसः । स॒म्ऽस्तिरः॑ । वि॒ऽष्टिरः॑ । सम् । गृ॒भा॒य॒ति॒ । जा॒नन् । ए॒व । जा॒न॒तीः । नित्यः॑ । आ । श॒ये॒ । पुनः॑ । व॒र्ध॒न्ते॒ । अपि॑ । य॒न्ति॒ । दे॒व्य॑म् । अ॒न्यत् । वर्पः॑ । पि॒त्रोः । कृ॒ण्व॒ते॒ । सचा॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स संस्तिरो विष्टिर: सं गृभायति जानन्नेव जानतीर्नित्य आ शये। पुनर्वर्धन्ते अपि यन्ति देव्यमन्यद्वर्प: पित्रोः कृण्वते सचा ॥
स्वर रहित पद पाठसः। सम्ऽस्तिरः। विऽष्टिरः। सम्। गृभायति। जानन्। एव। जानतीः। नित्यः। आ। शये। पुनः। वर्धन्ते। अपि। यन्ति। देव्यम्। अन्यत्। वर्पः। पित्रोः। कृण्वते। सचा ॥ १.१४०.७
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 140; मन्त्र » 7
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे मनुष्या यथा स संस्तिरो विष्टिरो विद्वान् संगृभायति तथा जानन्नित्योऽहं जानतीरेवाशये। ये पित्रोरन्यद्देव्यं वर्पोऽपियन्ति ते पुनर्वर्धन्ते कृण्वत च तथा यूयमपि सचा कुरुत ॥ ७ ॥
पदार्थः
(सः) (संस्तिरः) सम्यगाच्छादकः (विस्तिरः) सुखविस्तारकः (सम्) (गृभायति) गृह्णाति। अत्र हस्य श्नः शायच्। (जानन्) (एव) (जानतीः) ज्ञानयुक्ताः (नित्यः) (आ) (शये) (पुनः) (वर्धन्ते) (अपि) (यन्ति) (देव्यम्) देवेषु विद्वत्सु भवम् (अन्यत्) (वर्पः) रूपम् (पित्रोः) जननीजनकयोः (कृण्वते) कुर्वन्ति (सचा) समवेतम् ॥ ७ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यैर्विद्यावद्भिः सह विदुषीणां विवाहो जायते ते नित्यं वर्धन्ते। ये सद्गुणान् गृह्णन्ति तेऽत्र पुरुषार्थिनो भूत्वा जन्मान्तरेऽपि सुखिनो जायन्ते ॥ ७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे (सः) वह (संस्तिरः) अच्छा ढाँपने (विष्टिरः) वा सुख फैलानेवाला विद्वान् (सं, गृभायति) सुन्दरता से पदार्थों का ग्रहण करता वैसे (जानन्) जानता हुआ (नित्यः) नित्य मैं (जानतीः) ज्ञानवती उत्तम स्त्रियों के (एव) ही (आ, शये) पास सोता हूँ। जो (पित्रोः) माता-पिता के (अन्यत्) और (देव्यम्) विद्वानों में प्रसिद्ध (वर्पः) रूप को (अपि, यन्ति) निश्चय से प्राप्त होते हैं वे (पुनः) बार-बार (वर्द्धन्ते) बढ़ते हैं और (कृण्वते) उत्तम-उत्तम कार्यों को भी करते हैं वैसे तुम भी (सचा) मिला हुआ काम किया करो ॥ ७ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जिन विद्वानों के साथ विदुषी स्त्रियों का विवाह होता है, वे विद्वान् जन नित्य बढ़ते हैं, जो उत्तम गुणों का ग्रहण करते, वे यहाँ पुरुषार्थी होकर जन्मान्तर में भी सुखयुक्त होते हैं ॥ ७ ॥
विषय
लोकसंग्रह के लिए कर्म करनेवाला
पदार्थ
१. गतमन्त्र का (सः) = वह 'दुर्गृभि' पुरुष (संस्तिर:) = ज्ञान से अपने को सम्यक् आच्छादित करनेवाला होता है। ज्ञानरूप आच्छादनवाला यह वासनाओं से आक्रान्त नहीं होता। यह (विष्टिर:) = इस ज्ञान से विविध दिशाओं को आच्छादित करता है, चारों ओर ज्ञान को फैलानेवाला होता है, (संगृभायति) = ज्ञान के प्रसार से यह लोकसंग्रह करनेवाला होता है। ज्ञान के द्वारा लोकों [लोगों] को अशुभ में फँसने से बचाता है। २. (जानन्) = एव ज्ञान को प्राप्त करता हुआ यह (जानती:) = ज्ञान प्राप्त करनेवाली प्रजाओं में (नित्यः आशये) = अविच्छिन्नरूप से निवास करता है। स्वयं सदा ज्ञान-प्राप्ति में लगा रहता है, औरों को ज्ञान देता है, ज्ञान की रुचिवाली प्रजाओं में ही यह निवास करता है । ३. इस प्रकार ज्ञान प्राप्त करके ये प्रजाएँ (पुनः वर्धन्ते) = फिर से वृद्धि को प्राप्त करती हैं। (देव्यम्) = देव की प्राप्ति के मार्ग की ओर (अपियन्ति) = ये प्रजाएँ चलती हैं। इस प्रकार उस प्रभु से (सचा) = मिलकर ये प्रजाएँ (अन्यत् वर्पः) = विलक्षण ही रूप को (कृण्वते) = धारण करनेवाली होती हैं, अत्यन्त तेजस्वी रूप को प्राप्त होती हैं। ४. ज्ञानी पुरुष को लोकसंग्रह के दृष्टिकोण से कर्म करने ही चाहिएँ। उसका सर्वोत्तम कर्म यही है कि स्वयं अपने ज्ञान को बढ़ाता हुआ औरों के लिए इस ज्ञान को दे देता है, जिससे वे प्रजाएँ बढ़ती हुई प्रभु-प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर हों ।
भावार्थ
भावार्थ - लोकसंग्रही पुरुष ज्ञानी बनकर ज्ञान का प्रसार करता है।
विषय
राजा प्रजा का पति-पत्नीवत् परस्पर स्नेहवान् होकर रहने का वर्णन ।
भावार्थ
( सः ) वह अग्रणी नायक ( संस्तिरः ) अपने राज्य को भली प्रकार विस्तृत करने वाला और ( विस्तिरः ) विविध उपायों से विस्तृत करता हुआ ( सं गृभायति ) भूमि को अपनी पत्नी के समान ग्रहण करता है । और ( जानन् जानतीः आशये ) ज्ञानवान् पुरुष जिस प्रकार विदुषी ज्ञानवती दाराओं को प्राप्त कर सन्तानोत्पत्ति करता है उसी प्रकार राजा भी ( जानन् एव ) ज्ञानवान् होकर ही ( नित्यः ) निरन्तर ( जानतीः ) विदुषी प्रजाओं से ( आशये ) सदा सत्संग करे । वे इस प्रकार ज्ञानसमृद्ध विदुषी प्रजाएं या विद्वान् जन ( अन्यत् ) असाधारण ( देव्ययं वर्पः ) देव, सूर्य के समान तेजस्वी राजा के तेजस्वी रूप को स्वतः ( अपि यन्ति ) प्राप्त होते और ( पुनः वर्धन्ते ) बार बार बढ़ते हैं। और ( पित्रोः ) पालन करने वाले माता पिता के ( देव्यं ) अभिलाषा योग्य ( अन्यत् वर्पः ) और भिन्न रूप के पुत्र को जिस प्रकार विदुषी स्त्रियां प्राप्त करती और पुनः ( वर्धन्ते ) सन्तान की वृद्धि करती हैं उसी प्रकार वे भी ( पित्रोः ) पालन करने वाले राजवर्ग और प्रजावर्ग के हित के लिये ( सचा ) एक साथ ही ( अन्यद् वर्पः ) विशेष स्वरूप को ( कृण्वते ) प्रकट करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा औचथ्य ऋषिः॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ५, ८ जगती । २, ७, ११ विराड्जगती । ३, ४, ९ निचृज्जगती च । ६ भुरिक् त्रिष्टुप् । १०, १२ निचृत् त्रिष्टुप् पङ्क्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ज्या विद्वानांबरोबर विदुषी स्त्रियांचा विवाह होतो ते विद्वान नित्य वाढतात. जे नित्य उत्तम गुण ग्रहण करतात ते येथे पुरुषार्थी बनून जन्मजन्मान्तरी सुखी होतात. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Covering or expanding, Agni, the brilliant scholar, covers and seizes things and subjects well, intensively as well as extensively, and vitalizes them. Knowing well, he always associates with those who are knowledgeable, and they, in association with him, growing higher and higher, assume a divine from and thus create a personality different from the personality of their birth.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Path of happiness pinpointed.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
We should also behave like a gentleman who looks after the needs of all his kith and kin and others. They bring happiness in their homes. Such a learned person, understands well the immortality of his soul, but enters in wedlock with a matching dutiful virgin. Such persons always progress in their life and in virtues and earn reputation for their parent and scholars. Such enlightened men perform noble acts. You follow this path.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The learned men invariably grow in their life who marry learned virgins. Such persons should be virtuous and industrious and they enjoy happiness in this life and thereafter.
Foot Notes
( संस्तिरः ) सम्यगाच्छादक: = He who covers others well with clothes etc. (संस्तिर:) सुखविस्तारक: = Augmenter or extender of happiness of others. (वर्प:) रूपम् = Form.
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