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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 140 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 140/ मन्त्र 9
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अग्निः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    अ॒धी॒वा॒सं परि॑ मा॒तू रि॒हन्नह॑ तुवि॒ग्रेभि॒: सत्व॑भिर्याति॒ वि ज्रय॑:। वयो॒ दध॑त्प॒द्वते॒ रेरि॑ह॒त्सदानु॒ श्येनी॑ सचते वर्त॒नीरह॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒धी॒वा॒सम् । परि॑ । मा॒तुः । रि॒हन् । अह॑ । तु॒वि॒ऽग्रेभिः । सत्व॑ऽभिः । या॒ति॒ । वि । ज्रयः॑ । वयः॑ । दध॑त् । प॒त्ऽवते॑ । रेरि॑हत् । सदा॑ । अनु॑ । श्येनी॑ । स॒च॒ते॒ । व॒र्त॒निः । अह॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अधीवासं परि मातू रिहन्नह तुविग्रेभि: सत्वभिर्याति वि ज्रय:। वयो दधत्पद्वते रेरिहत्सदानु श्येनी सचते वर्तनीरह ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अधीवासम्। परि। मातुः। रिहन्। अह। तुविऽग्रेभिः। सत्वऽभिः। याति। वि। ज्रयः। वयः। दधत्। पत्ऽवते। रेरिहत्। सदा। अनु। श्येनी। सचते। वर्तनिः। अह ॥ १.१४०.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 140; मन्त्र » 9
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे वीर यथा ज्रयोऽग्निमातुरधिवासं परिरिहन्नह तुविग्रेभिः सत्वभिर्वियाति यथा च वर्त्तनिः श्येनी वयो दधत् पद्वते सचते तथा दुष्टाननु रेरिहत् सन् भवान् सदाह निगृह्णीयात् ॥ ९ ॥

    पदार्थः

    (अधीवासम्) अधीवासमिव घासादिकम् (परि) (मातुः) मान्यप्रदायाः पृथिव्याः (रिहन्) परित्यजन् (अह) (तुविग्रेभिः) बहुशब्दवद्भिः (सत्वभिः) प्राणिभिः (याति) प्राप्नोति (वि) (ज्रयः) वेगयुक्तः (वयः) आयुः (दधत्) धरन् (पद्वते) पादौ विद्येते यस्य तस्मै (रेरिहत्) अतिशयेन त्यजेत् (सदा) (अनु) (श्येनी) श्येनस्य स्त्री (सचते) प्राप्नोति (वर्त्तनिः) वर्त्तमानः (अह) निरोधे ॥ ९ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या यथाऽग्निर्जङ्गलानि दहति पर्वतान् त्रोटयति तथाऽन्यायमधार्मिकांश्च निवर्त्य दुष्टानामभिमानान् त्रोटयित्वा सत्यधर्मं यूयं प्रचारयत ॥ ९ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे वीर ! जैसे (ज्रयः) वेगयुक्त अग्नि (मातुः) मान देनेवाली पृथिवी के (अधिवासम्) ऊपर से शरीर को जिससे ढाँपते उस वस्त्र के समान घास आदि को (परि, रिहन्) परित्याग करता हुआ (अह) प्रसिद्ध में (तुविग्रेभिः) बहुत शब्दोंवाले (सत्वभिः) प्राणियों के साथ (वि, याति) विविध प्रकार से प्राप्त होता है और जैसे (वर्त्तनिः) वर्त्तमान (श्येनी) वाज पक्षी की स्त्री वाजिनी (वयः) अवस्था को (दधत्) धारण करती हुई (पद्वते) पगोंवाले द्विपद-चतुष्पद प्राणी के लिये (सचते) प्राप्त होती है वैसे दुष्टों को (अनु, रेरिहत्) अनुक्रम से बार-बार छोड़ते हुए आप (सदा) सदा (अह) ही उनको निग्रह स्थान को पहुँचाओ ॥ ९ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे अग्नि जङ्गलादिकों को जलाता वा पर्वतों को तोड़ता वैसे अन्याय और अधर्मात्माओं की निवृत्ति कर और दुष्टों के अभिमानों को तोड़के सत्य धर्म का तुम प्रचार करो ॥ ९ ॥

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    विषय

    माता के वस्त्राञ्चल में

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र का ज्ञानी पुरुष (मातुः) = इस वेदमाता के (अधीवासम्) = आच्छादन का (परिरिहन्) = सब प्रकार से आनन्द लेता हुआ अह निश्चय से (विजय:) = विशिष्ट वेगवाला, गतिशील व क्रियामय जीवनवाला होता हुआ (तुविग्रेभिः) = खूब गतिवाले (सत्वभिः) = प्राणियों व व्यक्तियों के साथ (याति) = गतिवाला होता है। जैसे बालक माता के वस्त्रप्रान्त से आच्छादित होकर अपने को सुरक्षित अनुभव करता है, उसी प्रकार यह ज्ञानी वेदमाता को अपना आच्छादन बनाकर रोगों व रागों [वासनाओं] के आक्रमण से अपने को सुरक्षित कर पाता है। वेदज्ञान को प्राप्त करके यह अत्यन्त क्रियाशील होता है, अपने श्रोताओं में भी यह क्रियाशीलता की भावना भरनेवाला होता है। २. (वयः दधत्) = उत्कृष्ट जीवन को धारण करता हुआ (पद्वते) = क्रियाशील बनने के लिए (रेरिहत्) = ज्ञान की वाणियों का स्वाद लेता हुआ सदा-सदा (श्येनी) = [श्येनं whiteness] शुद्ध चरित्रवाला, अकलङ्क आचरणवाला अह निश्चय से (अनु) = अनुक्रमेण (वर्तनी) = मार्गों का (सचते) = सेवन करता है। वेदज्ञान के अनुसार इसकी क्रियाएँ होती हैं, इससे इसकी क्रियाएँ पवित्र होती हैं। यह सदा सन्मार्ग पर चलता है, कभी उससे विचलित नहीं होता। इस मार्ग पर तीव्रता से आगे बढ़ने से ही इसके जीवन की पवित्रता बनी रहती है।

    भावार्थ

    भावार्थ - ज्ञानी पुरुष वेदमाता के वस्त्राञ्चल को अपना आच्छादन बनाता है। ज्ञान के द्वारा पवित्र क्रियाओंवाला होता हुआ यह उत्कृष्ट जीवन को धारण करता है।

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    विषय

    अग्नि और भूमि और बालक माता के दृष्टान्त से भूमि और राजा के कर्त्तव्यो का वर्णन ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार अग्नि ( मातुः परि ) माता पृथिवी के ऊपर उगे ( अधिवासं रिहन् ) आच्छादक घास, लता, वृक्ष आदि को ( रिहन् ) चरता हुआ ( ज्रयः ) अति बलवान् वेगवान् और नाशकारी होकर ( तुविग्रेभिः सत्वभिः वियाति ) घोर शब्द करने वाले प्राणियों के साथ ही विविध दिशाओं में फैल जाता है। वह अग्नि सदा ( रेरिहत् ) घास आदि को दग्ध करता, ( पद्वते ) पैरों वाले जीव गण को ( वयः दधत् ) वेग प्रदान करता और ( अनु ) उसके पीछे पीछे ( श्येनी वर्त्तनीः ) काले रंग का मार्ग ( सचते ) प्राप्त होता है और जिस प्रकार बालक ( मातुः परि अधीवासं रिहन् अह ) माता की गोद में उसके वस्त्र को अपने मुख में चाबता हुआ ( ज्रयः तुविग्रेभिः सत्वभिः वियाति ) अति वेगवान् होकर अति शब्द युक्त सात्विक विविध चेष्टाओं से गमन करता है और वह ( रेरिहत् ) इसी प्रकार सब पदार्थों का आस्वाद लेता हुआ ही ( पद्वते वयः दधत्ः ) चरण से चलने वाले बड़े बालक की अवस्था को धारण कर लेता और बड़ा हो जाता है ( अनु ) उसके पीछे पीछे उसके अनुकूल ही ( श्येनी ) बुद्धिमती माता ( वर्त्तनिः ) उसके पीछे रहती हुई ( सचते ) उसके साथ रहा करती है उसी प्रकार विद्वान् अग्रणी नायक, राजा भी ( मातुः परि ) उसका मान आदर करने वाली पृथिवी और उस पर निवास करने वाली प्रजा के ऊपर ( अधिवासं ) अधिष्ठाता या अध्यक्ष रूप से रहने और उसको वस्त्र के समान पालन पोषण करने के योग्य ऐश्वर्य को ( रिहन् ) अन्नादि के समान उपभोग, या आस्वादन करता हुआ ( ज्रयः ) शत्रु पर आक्रमण करने में वेगवान् और विजयशील होकर ( तुविग्रेभिः ) अति उत्तम बहुत से शब्द करने और बहुत से उपदेश करने वाले ( सत्वभिः ) वीर्यवान् बलवान् वीर और विद्वान् पुरुषों सहित ( वि याति ) विविध देशों पर प्रयाण करे, उनका विजय करे । वह ( सदा ) सब कालों में ( रेरिहत् ) पृथ्वी के ऐश्वर्य का भोग करता हुआ ही ( पद्वते ) ज्ञानवान् पुरुष के उपकार के लिये ही अपना (वयः) पूर्ण जीवन ( दधत् ) धारण करे । ( अह ) और ( अनु ) उसके अनुकूल ही ( श्येनी ) वेग से जाने वाली सेना और ( वर्त्तनीः ) सदा उसके अनुकूल चलने वाली, अथवा वार्त्तावृत्ति से जीवन व्यतीत करने वाली वैश्य प्रजा ( सचते ) अनुकूल संघ बना कर रहे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा औचथ्य ऋषिः॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ५, ८ जगती । २, ७, ११ विराड्जगती । ३, ४, ९ निचृज्जगती च । ६ भुरिक् त्रिष्टुप् । १०, १२ निचृत् त्रिष्टुप् पङ्क्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जसा अग्नी जंगलांना जाळतो किंवा पर्वत तोडतो तसे अन्याय व अधर्मात्म्यांचा नाश करून दुष्टांचा अभिमान नष्ट करून सत्य धर्माचा प्रचार करा. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Touching and playing with the upper green garments of mother earth, going fast with resounding living beings, bearing foods and health and vitality for the moving multitudes on earth, always following the paths it came by, Agni goes on leaving behind a reddish white trail of its visit.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Here is a call to fight injustice and violence.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The flames of fire engulf or envelope completely the forests and hills in no time, likewise the wife of a highly learned and active man who engages her self in the welfare of others, attains long life. O Man ! you should leave the company of the wicked persons and administer them exemplary punishment.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The fire burns forests and breaks even stony hills. Same manner, the man should remove injustice from the society and administer stern punishments to criminals to establish the Dharma.

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