ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 140/ मन्त्र 13
अ॒भी नो॑ अग्न उ॒क्थमिज्जु॑गुर्या॒ द्यावा॒क्षामा॒ सिन्ध॑वश्च॒ स्वगू॑र्ताः। गव्यं॒ यव्यं॒ यन्तो॑ दी॒र्घाहेषं॒ वर॑मरु॒ण्यो॑ वरन्त ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । उ॒क्थम् । इत् । जु॒गु॒र्याः॒ । द्यावा॒क्षामा॑ । सिन्ध॑वः । च॒ । स्वऽगू॑र्ताः । गव्य॑म् । यव्य॑म् । यन्तः॑ । दी॒र्घा । अहा॑ । इष॑म् । वर॑म् । अ॒रु॒ण्यः॑ । व॒र॒न्त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभी नो अग्न उक्थमिज्जुगुर्या द्यावाक्षामा सिन्धवश्च स्वगूर्ताः। गव्यं यव्यं यन्तो दीर्घाहेषं वरमरुण्यो वरन्त ॥
स्वर रहित पद पाठअभि। नः। अग्ने। उक्थम्। इत्। जुगुर्याः। द्यावाक्षामा। सिन्धवः। च। स्वऽगूर्ताः। गव्यम्। यव्यम्। यन्तः। दीर्घा। अहा। इषम्। वरम्। अरुण्यः। वरन्त ॥ १.१४०.१३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 140; मन्त्र » 13
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
यथा द्यावाक्षामा सिन्धवोऽरुण्यश्च वरमिषमुक्थं गव्यं यव्यं यन्तः स्वगूर्त्ताः सन्तः दीर्घाहावरन्त तथाग्ने नोऽभीज्जुगुर्य्याः ॥ १३ ॥
पदार्थः
(अभि) आभिमुख्ये। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (नः) अस्मान् (अग्ने) विद्वन् (उक्थम्) प्रशंसनीयम् (इत्) (जुगुर्याः) उद्यच्छेः। उद्यमिनः कुर्याः (द्यावाक्षामा) अन्तरिक्षं भूमिश्च (सिन्धवः) समुद्रा नद्यश्च (च) (स्वगूर्त्ताः) स्वैरुद्यताः (गव्यम्) गोर्विकारं दुग्धादिकं सुवर्णादिकं वा (यव्यम्) यवानां भवनं क्षेत्रम् (यन्तः) प्राप्नुवन्तः (दीर्घा) दीर्घाणि (अहा) दिनानि (इषम्) अन्नम् (वरम्) रत्नादिकम् (अरुण्यः) उषःकाला (वरन्त) स्वीकुर्युः। अत्र व्यत्ययेन शप् ॥ १३ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैः सदा पुरुषार्थिभिर्भवितव्यं यैर्यानैः भूम्यन्तरिक्षसमुद्रनदीषु सुखेन गमनं स्यात्तानि यानान्यारुह्य प्रतिदिनं रजन्याश्चतुर्थे प्रहर उत्थाय दिवसेऽसुप्त्वा सदा प्रयतितव्यं यत उद्यमिन ऐश्वर्यमुपयन्त्यत इति ॥ १३ ॥अत्र विद्वत्पुरुषार्थगुणवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥इति चत्वारिंशदुत्तरं शततमं सूक्तं सप्तमो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जैसे (द्यावाक्षामा) अन्तरिक्ष और भूमि (सिन्धवः) समुद्र और नदी तथा (अरुण्यः) उषःकाल (च) और (वरम्) उत्तम रत्नादि पदार्थ (इषम्) अन्न (उक्थम्) प्रशंसनीय (गव्यम्) गौ का दूध आदि वा (यव्यम्) जौ के होनेवाले खेत को (यन्तः) प्राप्त होते हुए (स्वगूर्त्ताः) अपने अपने स्वाभाविक गुणों से उद्यत (दीर्घा) बहुत (अहा) दिनों को (वरन्त) स्वीकार करें वैसे हे (अग्ने) विद्वान् ! (नः) हम लोगों को (अभि, इत्, जुगुर्याः) सब ओर से उद्यम ही में लगाइये ॥ १३ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को सदा पुरुषार्थी होना चाहिये, जिन यानों से भूमि, अन्तरिक्ष, समुद्र और नदियों में सुख से शीघ्र जाना हो, उन यानों पर चढ़कर प्रतिदिन रात्रि के चौथे प्रहर में उठकर और दिन में न सोयकर सदा प्रयत्न करना चाहिये, जिससे उद्यमी ऐश्वर्य को प्राप्त होते हैं ॥ १३ ॥इस सूक्त में विद्वानों के पुरुषार्थ और गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥यह एकसौ चालीसवाँ सूक्त और सातवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
स्तवन की वृत्ति
पदार्थ
१. हे (अग्ने) = परमात्मन्! (नः) = हमें (उक्थम् अभि इत्) = स्तोत्रों की ओर ही (जुगुर्या:) = गतिवाला कीजिए। हम सदा आपका स्तवन करनेवाले बनें। आपके ये स्तोत्र हमें प्रेरणा देनेवाले हों। (द्यावाक्षामा) = ये द्युलोक और पृथिवीलोक (च सिन्धवः) = और नदियाँ (स्वगूर्ताः) = उस आत्मतत्त्व से ही गतिवाली हो रही हैं। ब्रह्माण्ड के सब पदार्थों को वे प्रभु ही गति देनेवाले हैं, सब पदार्थ उसी के शासन में चल रहे हैं । २. हे प्रभो! हम सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में आपसे दी जाती हुई गति को देखें। आपकी कृपा से ही (अरुण्यः) = अरुण प्रकाशवाली उषाएँ (दीर्घा अहा) = इन लम्बे दिनों में- दीर्घ जीवन तक (गव्यम्) = गोदुग्ध को (यव्यम्) = यव [जौ] आदि अन्न को (यन्तः) = प्राप्त कराती हुई (वरम् इषम्) = उत्कृष्ट प्रेरणा को वरन्त प्राप्त कराएँ। हमारा भोजन गोदुग्ध व यवादि अन्न हो उससे हमारी बुद्धि सात्त्विक बनें, अन्तकरण निर्मल हो ताकि हम अन्तः स्थित प्रभु की श्रेष्ठ प्रेरणा को सुननेवाले बनें।
भावार्थ
भावार्थ - हमारी वृत्ति स्तवन की हो। हमें 'द्युलोक, पृथिवीलोक व नदियाँ' सब प्रभु का स्तवन करते प्रतीत हों। हम गोदुग्ध व सात्त्विक अन्नों का प्रयोग करते हुए अन्तः स्थित प्रभु की प्रेरणा को सुननेवाले बनें।
विषय
उषाओं के दृष्टान्तों से विद्वान वीर पुरुषों का कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) विद्वन् ! तू ( नः ) हमें ( उक्थम् इत् ) प्रशंसनीय उत्तम उपदेश ही ( अभि जुगुर्याः ) प्रदान किया कर । ( द्यावा क्षामा ) आकाश और पृथिवी, ( सिन्धवः ) समुद्र और नदियें, और प्राणगण, ये सब ( स्वगूर्त्ताः ) अपने ही बलों से प्रेरित होकर जिस प्रकार ( गव्यं ) भूमि और इन्द्रियों के हितकारी और ( यव्यं ) यवादि के योग्य क्षेत्र को ( यन्तः ) प्राप्त होकर ( इषं वरं वरन्त ) वृष्टि और उत्तम अन्न को प्रदान करते हैं और ( अरुण्यः ) अरुण, सुमनोहर कान्ति से युक्त प्रभात वेलाएं जिस प्रकार ( इषं वरं ) अभिलाषा करने और सब को प्रेरणे वाले वरणीय प्रकाश या सूर्य को ( वरन्त ) प्राप्त करती उत्तम प्रकाश को प्रदान करती हैं उसी प्रकार ( द्यावाक्षामा ) सूर्य और पृथ्वी के समान एक दूसरे के उपकार राजा और प्रजा और स्त्री पुरुष, ( सिन्धवः ) समुद्र के समान गम्भीर और प्रजा को परस्पर बांध लेने में समर्थ महापुरुष, (स्वगूर्त्ताः) अपने सहयोगी बन्धु बान्धवों, मित्र, सहयोगी जनों से उद्यमशील होकर ( गव्यं ) गौओं के दुग्ध के समान भूमि से प्राप्त ऐश्वर्य और वेद वाणी से प्राप्त ज्ञान को और ( यव्यं ) यवादि अन्नोपयोगी क्षेत्र और शत्रुनाशक वीरोत्पादक राष्ट्र को ( यन्तः ) प्राप्त होते हुए ( दीर्घा अहा ) चिरकाल तक बहुत दिनों तक (इषं) प्रजा को सन्मार्ग में प्रेरक ( वरम् ) वरण करने योग्य उत्तम पद अधिकार को ( वरन्त ) प्राप्त करें । और ( अरुण्यः ) उषाओं के समान कमनीय गुणों से युक्त नव युवतियें ( इषं वरम् ) अभिलाषानुकूल वरण करने योग्य प्रिय पुरुष को (वरन्त) प्राप्त करें । इति सप्तमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा औचथ्य ऋषिः॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ५, ८ जगती । २, ७, ११ विराड्जगती । ३, ४, ९ निचृज्जगती च । ६ भुरिक् त्रिष्टुप् । १०, १२ निचृत् त्रिष्टुप् पङ्क्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी नेहमी पुरुषार्थी व्हावे. ज्या यानांनी भूमी, अंतरिक्ष, समुद्र व नद्यातून सुखाने जलद जाता येईल अशा यानांतून दररोज रात्रीच्या चौथ्या प्रहरी उठून दिवसा न झोपता सदैव प्रयत्न केला पाहिजे ज्यामुळे ऐश्वर्य प्राप्त व्हावे ॥ १३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, lord of light and knowledge, accept our song and raise our sacred action so that the heaven and earth, the rivers and seas and the dawns, all self-moved, may be favourable to us and give us our choice wealth of cows and plenty of milk, lot of food grains and the best of jewels for long long days to come for a full and vibrant life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
God ordains man to be industrious.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned leader! as there are the heaven and earth, rivers and oceans, dawns and jewels, likewise you give us food, barley fields, milk etc. They all are engaged in their perennial work as ordained by God. Likewise. O god (our leader)! make us industrious in all walks of life.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Man should always be industrious.
Foot Notes
(जुगुर्या:) उद्यच्छ उद्यमीनः कुर्याः = Make us industrious. (अरुन्यः) उषःकालाः = Dawns.
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