ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 140/ मन्त्र 2
अ॒भि द्वि॒जन्मा॑ त्रि॒वृदन्न॑मृज्यते संवत्स॒रे वा॑वृधे ज॒ग्धमीं॒ पुन॑:। अ॒न्यस्या॒सा जि॒ह्वया॒ जेन्यो॒ वृषा॒ न्य१॒॑न्येन॑ व॒निनो॑ मृष्ट वार॒णः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । द्वि॒ऽजन्मा॑ । त्रि॒ऽवृत् । अन्न॑म् । ऋ॒ज्य॒ते॒ । स॒व्ँम्व॒त्स॒रे । व॒वृ॒धे॒ । ज॒ग्धम् । ई॒म् इति॑ । पुन॒रिति॑ । अ॒न्यस्य॑ । आ॒सा । जि॒ह्वया॑ । जेन्यः॑ । वृषा॑ । नि । अ॒न्येन॑ । व॒निनः॑ । मृ॒ष्ट॒ । वा॒र॒णः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि द्विजन्मा त्रिवृदन्नमृज्यते संवत्सरे वावृधे जग्धमीं पुन:। अन्यस्यासा जिह्वया जेन्यो वृषा न्य१न्येन वनिनो मृष्ट वारणः ॥
स्वर रहित पद पाठअभि। द्विऽजन्मा। त्रिऽवृत्। अन्नम्। ऋज्यते। सम्वत्सरे। ववृधे। जग्धम्। ईम् इति। पुनरिति। अन्यस्य। आसा। जिह्वया। जेन्यः। वृषा। नि। अन्येन। वनिनः। मृष्ट। वारणः ॥ १.१४०.२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 140; मन्त्र » 2
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे जिज्ञासो येन संवत्सरे पूर्णे त्रिवृदन्नमृज्यतेऽन्यस्यासा जिह्वया तदन्नमीं पुनर्जग्धं स द्विजन्माऽभिवावृधे जेन्यो वृषा च भवत्यतोऽन्येन वारणो वनिनो निमृष्ट ॥ २ ॥
पदार्थः
(अभि) (द्विजन्मा) विद्याजन्मद्वितीयः (त्रिवृत्) यत् कर्मोपासनाज्ञानेषु साधकत्वेन वर्त्तसे (अन्नम्) अत्तव्यम् (ऋज्यते) उपार्ज्यते (संवत्सरे) (वावृधे) वर्द्धते। अत्र तुजादीनामभ्यासदीर्घत्वम्। (जग्धम्) भक्तम् (ईम्) सर्वतः (पुनः) (अन्यस्य) (आसा) आस्येन (जिह्वया) (जेन्यः) जेतुं शीलः (वृषा) वृषेव बलिष्ठः (नि) (अन्येय) (वनिनः) वनानि जलानि। वनमित्युदकना०। निघं० १। १२। (मृष्ट) मार्जय (वारणः) सर्वदोषनिवारकः ॥ २ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या अन्नादीन्पदार्थान् पुष्कलान् संचित्य सुसंस्कृत्य भुञ्जतेऽन्यान् भोजयन्ति तथा हवनादिना वृष्टिशुद्धिं कुर्वन्ति ते बलिष्ठा जायन्ते ॥ २ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जिसने (संवत्सरे) संवत्सर पूरे हुए पर (त्रिवृत्) कर्म, उपासना और ज्ञानविषय में जो साधनरूप से वर्त्तमान उस (अन्नम्) भोगने योग्य पदार्थ वा (ऋज्यते) उपार्जन किया वा (अन्यस्य) और के (आसा) मुख और (जिह्वया) जीभ के साथ (ईम्) वही अन्न (पुनः) वारवार (जग्धम्) खाया हो वह (द्विजन्मा) विद्या में द्वितीय जन्मवाला ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य कुल का जन (अभि, वावृधे) सब ओर से बढ़ता (जेन्यः) विजयशील और (वृषा) बैल के समान अत्यन्त बली होता है इससे (अन्येन) और मित्रवर्ग के साथ (वारणः) समस्त दोषों की निवृत्ति करनेवाला तूँ (वनिनः) जलों को (नि, मृष्ट) निरन्तर शुद्ध कर ॥ २ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य अन्न आदि बहुत पदार्थ इकट्ठे कर उनको बना और भोजन करते वा दूसरों को कराते तथा हवन आदि उत्तम कामों से वर्षा की शुद्धि करते हैं, वे अत्यन्त बली होते हैं ॥ २ ॥
विषय
एक वर्ष के लिए
पदार्थ
१. (द्विजन्मा) = ज्ञान व श्रद्धा दोनों को अपने में प्रादुर्भूत करनेवाला [जनी प्रादुर्भावे] (त्रिवृत्) = धर्म, अर्थ व काम- तीनों में समरूप से वर्तनवाला (अन्नम्) = अन्न को (अभि ऋज्यते) = उपार्जित करता है [ऋज - अर्जने] । जहाँ यह ज्ञान व श्रद्धा का विकास करता है, जहाँ धर्म, अर्थ व काम का समरूप से सेवन करता है, वहाँ यह शरीर - रक्षण के लिए अन्न का भी उपार्जन करता है । २. (संवत्सरे) = वर्ष-भर में (जग्धम्) = खा लिये गये इस अन्न को (ईम्) = निश्चय से (पुनः) = फिर (वावृधे) = बढ़ाता है, अर्थात् एक वर्ष से अधिक के लिए अन्न का संग्रह नहीं करता । यदि यह आदर्श, समाज के सब सभ्यों से स्वीकृत कर लिया जाए तो समाज में कोई अतिभुक्त [overfed] व अल्पभुक्त [underfed] न रहे- सभी समानरूप से भोजन प्राप्त कर सकें और (परिणामतः) = समाज एक आदर्श समाज बन जाए । ३. इस (संवत्सर) = भर के अन्न को जुटाने के साथ वह (अन्यस्य आसा) = दूसरे के मुख से तथा (जिया) = दूसरे की जिहा से खाता है । देवता एक-दूसरे को खिलाते हैं । इस प्रकार वे एक-दूसरे को खिलाते हुए परस्पर- भावन से पुष्ट हो पाते हैं । ये स्वाद के लिए नहीं खाते । स्वाद को जीत लेनेवाले ये (जेन्यः) = विजेता होते हैं, (वृषा) = शक्तिशाली होते हैं । यह (वारणः) = सब वासनाओं का निवारण करनेवाला (अन्येन) = दूसरे मुख से (वनिनः) = वनोत्पन्न इन वानस्पतिक पदार्थों का सेवन करता हुआ (निमृष्ट) = अपने जीवन को पूर्ण शुद्ध बना लेता है । सापता जब यह शरीर में सुरक्षित होता है तब रोग-कृमिरूप शत्रु इस पर आक्रमण नहीं कर पाते उनसे यह 'दुष्टर' होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से हमें शक्ति प्राप्त होती है, हमारी ज्ञानज्योति बढ़ती है, शरीर क्षीण नहीं होते । इस साधना से सोमरक्षण के द्वारा अद्भुत, स्तुत्य, पूर्ण जीवन को देनेवाला दुष्टर बल प्राप्त होता है ।
विषय
द्विजन्मा और त्रिवृत् अग्नि, विद्वान् और राजा ।
भावार्थ
अग्नि जिस प्रकार ( द्विजन्मा ) दो अरणियों से उत्पन्न होने के कारण ‘द्विजन्मा’ है । वह ( त्रिवृद् अन्नम् ऋज्यते ) तीनों रूपों से वर्त्तमान खाने योग्य अन्न को प्राप्त कराता है। अग्नि रूप से पक्कान्न को देता है, विद्युत् रूप से जल को और सूर्य रूप से फलादि को प्रदान करता है । ( ईम् ) वह इस ( जग्धम् ) खाने योग्य अन्न को ही ( संवत्सरे ) एक वर्ष में ( पुनः ) फिर फिर बढ़ा लेता है । अर्थात् सूर्य के द्वारा ही पुनः एक वर्ष में पृथ्वी पर प्रचुर अन्न उत्पन्न होता है । वह अन्न ( अन्यस्य ) अन्य अर्थात् सूर्य से भिन्न, प्राणियों के देह में स्थित जाठर अग्नि के ( आसा ) मुख से और ( अन्येन ) दूसरे, भिन्न रूप के भौतिक काष्ठाग्नि की ( जिह्वया ) ज्वाला से भी ( जग्धम् ) खाया जाता है। इस कारण वह ( वृषा ) जलों का वर्षण करने वाला सूर्य ही ( वारणः ) समस्त प्राणियों के संताप का वारण करने वाला होकर ( वनिनः ) जलयुक्त मेघों को ( नि मृष्ट ) उत्पन्न करता है । अथवा वही अग्नि ( अन्येन ) अन्य वनाग्नि रूप से (वनिनः नि मृष्ट) वनों से युक्त प्रदेशों को भस्म कर के साफ़ कर देता है। उसी प्रकार यहे अग्रणी नायक पुरुष भी ( द्वि जन्मा ) माता पिता और गुरु शिक्षा दोनों से उत्पन्न, द्विज होकर ( त्रिवृत् ) तीन ऋणों सहित त्रिसूत्र से युक्त होकर रहता है । वह ( संवत्सरे ) वर्ष में ( जग्धम् ) खाने योग्य ( ईम् अन्नम् ) इस अन्न को ( पुनः ) वार वार ( अभि मृज्यते ) प्राप्त करे और ( वावृधे ) बढ़ावे । अथवा—वह ( अन्नम् [ इव ] ) अन्न के समान ( अभिमृज्यते ) सब प्रकार से शुद्ध किया जावे और ( जग्धम् ईम् ) खाये हुए अन्न के समान ( पुनः ) फिर ( वावृधे ) अपने राष्ट्र के बल की वृद्धि करे । वह ( अन्यस्य आसा ) दूसरे के मुख से, और ( अन्यस्य जिह्वया च ) दूसरे की जिह्वा अर्थात् वाणी से ही ( जेन्यः ) युद्ध आदि विजयी होकर ( वृषा ) बलवान् राज्य प्रबन्धक होकर फिर ( अन्येन ) दूसरे जनों से ही ( वारणः ) शत्रुओं को वारण करने में समर्थ होकर ( वनिनः ) भोग्य ऐश्वर्यो और सैनिक दलों के स्वामियों को भी ( नि मृष्ट ) साफ़ करदे, उनको परास्त करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा औचथ्य ऋषिः॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ५, ८ जगती । २, ७, ११ विराड्जगती । ३, ४, ९ निचृज्जगती च । ६ भुरिक् त्रिष्टुप् । १०, १२ निचृत् त्रिष्टुप् पङ्क्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे अन्न इत्यादी पुष्कळ पदार्थांचा संचय करून त्यांना संस्कारित करून भोजन करतात व इतरांना करवितात आणि हवन इत्यादी उत्तम कार्याने वृष्टीची शुद्धी करतात ते अत्यंत बलिष्ठ होतात. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
To the twice bom scholar threefold food of jnana (knowledge), karma (action) and Upasana (prayer and meditation) is brought and gifted which, received in the session and assimilated, grows manifold in the session. By the mouth and tongue (speech) of another, the teacher, and with the mouth and tongue of others (his colleagues), through discussion, the strong and victorious scholar warding off difficulties and challenges in the company of others refines and shines all those who love and admire him.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of the twice-borne are placed.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
A man is, twice borne (Dwijati) by taking a pledge to serve society and by wearing the sacred thread. Such a man collects food material for his living and it helps him in the attainment of knowledge, devotion and feeding others. Such a man is victorious like a mighty bull.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The key to human well-being lies in warehousing of food grains and in distributing among the needy.
Foot Notes
(त्निवृत्) यत् कर्मोपासना ज्ञानेषु साधकत्वेन वर्तते = which is helpful in the attainment of knowledge, devotion and action. (वनिन:) वनानि जलानि | वनमित्युदकनाम = waters. (मुष्ट: ) मार्जय = Purify.
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