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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 72 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 72/ मन्त्र 2
    ऋषिः - पराशरः शाक्तः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒स्मे व॒त्सं परि॒ षन्तं॒ न वि॑न्दन्नि॒च्छन्तो॒ विश्वे॑ अ॒मृता॒ अमू॑राः। श्र॒म॒युवः॑ पद॒व्यो॑ धियं॒धास्त॒स्थुः प॒दे प॑र॒मे चार्व॒ग्नेः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्मे इति॑ । व॒त्सम् । परि॑ । सन्त॑म् । न । वि॒न्द॒न् । इ॒च्छन्तः॑ । विश्वे॑ । अ॒मृताः॑ । अमू॑राः । श्र॒म॒ऽयुवः॑ । प॒द॒व्यः॑ । धि॒य॒म्ऽधाः । त॒स्थुः । प॒दे । प॒र॒मे । चारु॑ । अ॒ग्नेः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्मे वत्सं परि षन्तं न विन्दन्निच्छन्तो विश्वे अमृता अमूराः। श्रमयुवः पदव्यो धियंधास्तस्थुः पदे परमे चार्वग्नेः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्मे इति। वत्सम्। परि। सन्तम्। न। विन्दन्। इच्छन्तः। विश्वे। अमृताः। अमूराः। श्रमऽयुवः। पदव्यः। धियम्ऽधाः। तस्थुः। पदे। परमे। चारु। अग्नेः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 72; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    य एतान् स्वीकुर्वन्ति ते सदानन्दा भवन्ति, ये च नाधीयते वृथाश्रमा भवन्तीत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    ये विश्वे अमृता अमूराः श्रमयुवः पदव्यो धियंधा मोक्षमिच्छन्तो मनुष्या अस्मे वत्सं सन्तं वेदचतुष्टयं परि विन्दँस्तेऽग्नेश्चारु परमे पदे तस्थुर्ये च न विदुस्ते तद्ब्रह्म पदं नाप्नुवन्ति ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (अस्मे) अस्मान् (वत्सम्) सुखेषु निवासयन्तं व्यक्तवाचं प्रसिद्धं वेदचतुष्टयम्। अत्र वॄतॄ०। (उणा०३.६१) इति सूत्रेणास्य सिद्धिः। (परि) सर्वतः (सन्तम्) वर्त्तमानम् (न) निषेधे (विन्दन्) लभन्ते (इच्छन्तः) श्रद्धालवो भूत्वा (विश्वे) सर्वे जीवाः (अमृताः) अनुत्पन्नत्वादनादित्वान्मरणधर्मरहिताः प्राप्तमोक्षाश्च (अमूराः) मूढभावरहिताः (श्रमयुवः) श्रमेण युक्ताः। अत्र क्विब्वचिप्रच्छि०। (उणा०२.५४) इति क्विब्दीर्घौ भवतः। (पदव्यः) सुखं प्राप्ताः (धियन्धाः) बुद्धिं कर्म वा दधति (तस्थुः) तिष्ठन्ति। (पदे) प्राप्तव्ये (परमे) सर्वोत्कृष्टे (चारु) श्रैष्ठ्यं यथा स्यात्तथा (अग्नेः) परमेश्वरस्य ॥ २ ॥

    भावार्थः

    सर्वे जीवा अनादयः सन्त्येतेषां मध्ये ये मनुष्या देहधारिणः सन्ति, तान् प्रतीश्वर उपदिशति। हे मनुष्याः ! सर्वे यूयं वेदानधीत्याध्याप्याज्ञानविरहा ज्ञानवन्तः पुरुषार्थिनो भूत्वा सुखिनो भवत, न हि वेदार्थज्ञानेन विना कश्चिदपि मनुष्यः सर्वविद्याः प्राप्तुं शक्नोति, तस्माद् वेदविद्यावृद्धिं सम्यक् कुरुत ॥ २ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    जो लोग इन उक्त वेदों को पढ़ते हैं, वे ही सदा आनन्द में रहते हैं और जो नहीं पढ़ते उनका परिश्रम व्यर्थ जाता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    जो (विश्वे) सब (अमृताः) उत्पत्तिमृत्युरहित अनादि (अमूराः) मूढ़तादि दोषरहित (श्रमयुवः) श्रम से युक्त (पदव्यः) सुखों को प्राप्त (धियन्धाः) बुद्धि वा कर्म को धारण करनेवाले (इच्छन्तः) श्रद्धालु होकर मनुष्य (अस्मे) हम लोगों को (वत्सम्) पुत्रवत् सुखों में निवास करती हुई प्रसिद्ध चारों वेद से युक्त वाणी के (सन्तम्) वर्त्तमान को (परिविन्दन्) प्राप्त करते हैं, वे (अग्नेः) (चारु) श्रेष्ठ जैसे हो वैसे परमात्मा के (परमे) सबसे उत्तम (पदे) प्राप्त होने योग्य सुखरूपी मोक्ष पद में (तस्थुः) स्थित होते हैं और जो नहीं जानते, वे उस ब्रह्म पद को प्राप्त नहीं होते ॥ २ ॥

    भावार्थ

    सब जीव अनादि हैं, जो इनके बीच मनुष्यदेहधारी हैं, उनके प्रति ईश्वर उपदेश करता है कि हे मनुष्यो ! तुम सब लोग वेदों को पढ़-पढ़ा कर अज्ञान से ज्ञानवाले पुरुषार्थी होके सुख भोगो, क्योंकि वेदार्थज्ञान के विना कोई भी मनुष्य सब विद्याओं को प्राप्त नहीं हो सकता, इससे तुम लोगों को वेदविद्या की वृद्धि निरन्तर करनी उचित है ॥ २ ॥

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    विषय

    प्रभु - प्राप्ति

    पदार्थ

    १. (अस्मे) = हममें (वत्सम्) = निवास करते हुए और (परिषन्तम्) = चारों ओर, सर्वत्र, कण - कण में व्याप्त उस प्रभु को (इच्छन्तः विश्वे) = चाहनेवाले सब (न विन्दन्) = प्राप्त नहीं करते । प्रभुप्राप्ति की इच्छा तो प्रायः सभी को होती है, परन्तु इच्छामात्र से उस प्रभु को पाया तो नहीं जा सकता । वे प्रभु सर्वत्र विद्यमान है । हमारे अन्दर ही निवास कर रहे हैं । ऐसा होते हुए भी हम उस प्रभु को प्राप्त नहीं कर पाते । कारण यही है कि इस प्रकृति की चमक से हमारी आँखें चुंधियायी रहती हैं और उस सत्यस्वरूप प्रभु को हम देख नहीं पाते । २. जो भी व्यक्ति (अमृताः) = इन विषयों के पीछे मरते नहीं और अतएव (अमूराः) = मूढ नहीं बन गये (श्रमयुवः) = श्रम को अपने साथ जोड़नेवाले हैं, अर्थात् श्रम के स्वभाववाले हैं, (पदव्यः) = मार्ग पर चलनेवाले हैं और (धियन्धाः) = ज्ञान व कर्म को धारण करनेवाले हैं, वे (अग्नेः) = उस सर्वाग्रणी प्रभु के (परमे पदे) = सर्वोत्कृष्ट स्थान मोक्ष में (चारु तस्थुः) = सुन्दरता से स्थित होते हैं । उस प्रभु को पाने के लिए आवश्यक है कि हम विषयों से अनाकृष्ट, समझदार, श्रमशील, मार्गस्थ तथा ज्ञान व कर्म का धारण करनेवाले बनें । उस प्रभु का वह सर्वोत्कृष्ट स्थान ही हमारा लक्ष्य है, वहीं हमें पहुँचना है । विषयों के पीछे मरते रहे तो क्यों वहाँ पहुँच पाएँगे ।

    भावार्थ

    भावार्थ - आश्चर्य है कि अपने ही भीतर वर्तमान प्रभु को हम जानते नहीं । उसे जानने के लिए हम विषयों के पीछे मूढ न बनें ।

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    विषय

    विद्वानों के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    ( अस्मे ) हममें से ( वत्सं ) सब में व्यापक होकर बसने वाले ( परि सन्तं ) सबके उपर, सबके भीतर और बाहर विद्यमान प्रभु को ( इच्छन्तः ) चाहते हुए भी ( विश्वे ) सब कोई उसे ( न विन्दन् ) नहीं पाते । प्रत्युत ( अमूराः ) मोह रहित, ज्ञानी, ( श्रमयुवः ) श्रमशील, तपस्वी, ( पदव्यः ) परम पद को प्राप्त ( धियं-धाः ) ज्ञान और कर्म के धारण करने वाले ( अमृताः ) अमर जीव, सूक्ष्म जल जिस प्रकार सूर्य के किरणों द्वारा उच्च आकाश में चले जाते हैं उसी प्रकार ( अग्नेः ) उस ज्ञानमय प्रभु के (परमे पदे) परम प्राप्तव्य स्वरूप मोक्ष में (तस्थुः) विराजते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पराशर ऋषिः॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, २, ५, ६, ९ विराट् त्रिष्टुप्। ४, १० त्रिष्टुप् । ७ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ८ भुरिक् पंक्तिः ।

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    विषय

    विषयः- य एतान् स्वीकुर्वन्ति ते सदानन्दा भवन्ति, ये च नाधीयते वृथाश्रमा भवन्तीत्युपदिश्यते ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- ये विश्वे अमृता अमूराः श्रमयुवः पदव्यः धियंधाः मोक्षम् इच्छन्तः मनुष्याः अस्मे वत्सं सन्तं वेदचतुष्टयं परि विन्दन् ते अग्नेः चारु परमे पदे तस्थुः ये च न विदुः ते तद् ब्रह्मपदं न आप्नुवन्ति ॥२॥

    पदार्थ

    पदार्थः- (ये)=जो, (विश्वे) सर्वे जीवाः=समस्त प्राणी, (अमृताः) अनुत्पन्नत्वादनादित्वान्मरणधर्मरहिताः प्राप्तमोक्षाश्च=उत्पन्न न होने से, आदि के न होने से, मरण धर्म से रहित और मोक्ष प्राप्त हैं, (अमूराः) मूढभावरहिताः=अज्ञानता के भाव से रहित, (श्रमयुवः) श्रमेण युक्ताः=श्रमयुक्त, (पदव्यः) सुखं प्राप्ताः=सुख प्राप्त किये हुए, (धियन्धाः) बुद्धिं कर्म वा दधति= बुद्धि और कर्म को धारण करता है, (मोक्षम्)= मोक्ष के, (इच्छन्तः) श्रद्धालवो भूत्वा=श्रद्धालु होकर, (मनुष्याः) = मनुष्य लोग, (अस्मे) अस्मान्=हमें, (वत्सम्) सुखेषु निवासयन्तं व्यक्तवाचं प्रसिद्धं वेदचतुष्टयम्=सुखों में निवास करनेवाले, व्यक्त वाणी के रूप में प्रसिद्ध चारों वेद, (सन्तम्) वर्त्तमानम्=वर्त्तमान, (वेदचतुष्टयम्)= चारों वेद, (परि) सर्वतः=हर ओर से, (विन्दन्) लभन्ते=प्राप्त होते हैं, (ते)=वे, (अग्नेः) परमेश्वरस्य=परमेश्वर की, (चारु) श्रैष्ठ्यं यथा स्यात्तथा= श्रेष्ठता जिस प्रकार से होती है, उस प्रकार से, (परमे) सर्वोत्कृष्टे= सर्वोत्कृष्ट होने में, (पदे) प्राप्तव्ये=प्राप्त किये जाने योग्य, (तस्थुः) तिष्ठन्ति=स्थिति में होते हैं, (ये)=जो, (च)=भी, (न) निषेधे=नहीं, (विदुः)=जानते, (ते)=वे, (तद्)=उस,(ब्रह्मपदम्)= ब्रह्मपदम को, (न) निषेधे=नहीं, (आप्नुवन्ति)=प्राप्त होते हैं ॥२॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- सब जीव अनादि हैं, इनमें से जो मनुष्य का शरीर धारण करनेवाले हैं, उनके लिये ईश्वर उपदेश करता है- ‘हे मनुष्यों ! तुम सब लोग वेदों को पढ़ करके और पढ़ा करके अज्ञान से रहित होकर ज्ञानवान् और पुरुषार्थी हो करके सुखी होओ, कोई भी मनुष्य वेदों के अर्थ के ज्ञान के विना समस्त विद्याओं को प्राप्त नहीं कर सकता है, इसलिये वेद विद्या की अच्छे प्रकार से वृद्धि करो’ ॥२॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- (ये) जो (विश्वे) समस्त प्राणी (अमृताः) उत्पन्न न होने से, आदि के न होने से, मरण धर्म से रहित और मोक्ष प्राप्त हैं, (अमूराः) अज्ञानता के भाव से रहित हैं, (श्रमयुवः) श्रमयुक्त हैं, (पदव्यः) सुख प्राप्त किये हुए हैं, (धियन्धाः) बुद्धि और कर्म को धारण करते हैं, [वे] (मोक्षम्) मोक्ष के (इच्छन्तः) श्रद्धालु हुए (मनुष्याः) मनुष्य लोग, (अस्मे) हमें (वत्सम्) सुखों में निवास करनेवालों को, व्यक्त वाणी के रूप में प्रसिद्ध चारों वेद (परि) हर ओर से (विन्दन्) प्राप्त होते हैं। (ते) वे (अग्नेः) परमेश्वर की (चारु) श्रेष्ठता जिस प्रकार से होती है, उस प्रकार से (परमे) सर्वोत्कृष्ट होने में, (पदे) प्राप्त किये जाने योग्य (तस्थुः) स्थिति में होते हैं। (च) और (ये) जो (न) नहीं (विदुः) जानते, (ते) वे (तद्) उस (ब्रह्मपदम्) ब्रह्मपद को (न+आप्नुवन्ति) प्राप्त नहीं होते हैं ॥२॥

    संस्कृत भाग

    अ॒स्मे इति॑ । व॒त्सम् । परि॑ । सन्त॑म् । न । वि॒न्द॒न् । इ॒च्छन्तः॑ । विश्वे॑ । अ॒मृताः॑ । अमू॑राः । श्र॒म॒ऽयुवः॑ । प॒द॒व्यः॑ । धि॒य॒म्ऽधाः । त॒स्थुः । प॒दे । प॒र॒मे । चारु॑ । अ॒ग्नेः ॥ विषय (भाषा)- जो लोग इन उक्त वेदों को पढ़ते हैं, वे ही सदा आनन्द में रहते हैं और जो नहीं पढ़ते उनका परिश्रम व्यर्थ जाता है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- सर्वे जीवा अनादयः सन्त्येतेषां मध्ये ये मनुष्या देहधारिणः सन्ति, तान् प्रतीश्वर उपदिशति। हे मनुष्याः ! सर्वे यूयं वेदानधीत्याध्याप्याज्ञानविरहा ज्ञानवन्तः पुरुषार्थिनो भूत्वा सुखिनो भवत, न हि वेदार्थज्ञानेन विना कश्चिदपि मनुष्यः सर्वविद्याः प्राप्तुं शक्नोति, तस्माद् वेदविद्यावृद्धिं सम्यक् कुरुत ॥२॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सर्व जीव अनादी आहेत. त्यात जे मनुष्य देहधारी आहेत त्यांना ईश्वर उपदेश करतो की हे माणसांनो ! तुम्ही सर्व वेद शिकून, शिकवून, अज्ञान दूर करून ज्ञानवान पुरुषार्थी बनून सुख भोगा. कारण वेदार्थ ज्ञानाखेरीज कोणताही माणूस सर्व विद्या प्राप्त करू शकत नाही. त्यासाठी वेदविद्येची निरंतर वृद्धी केली पाहिजे. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    People ordinarily do not attain to our darling Agni, immanent and transcendent lord of existence. But all the immortal souls, men of divine intelligence dedicated to divine love, relentlessly following the paths of Divinity, holding on to piety of faith in reason and passion both, reach and abide in the beatific state of supreme bliss in Agni’s direct presence.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Those who accept the Vedas and study them, enjoy bliss and those who do not study them waste their labour is taught in the second mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Those immortal and liberated souls who are free from ignorance, industrious, who have attained happiness and who are intelligent and active, desiring liberation acquire the knowledge of the four Vedas which was everywhere around and which enables us to dwell in true delight. They thus stayed in the charming, most exalted worth-attaining nature of God (consisting of Absolute existence, consciousness and Bliss.) Those who do not know the Vedas, can not attain that God.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (वत्सम्) सुखेषु निवासयन्तं व्यक्तवाचं प्रसिद्धं वेदचतुष्टयं अत्र वृत्... ( उणादि कोषे ३.६१) इति सूत्रेणास्य सिद्धिः । = The four Vedas which enable us to dwell in happiness. (पदव्य:) सुखं प्राप्ताः = Happy. (अग्ने:) परमेश्वरस्य = Of God.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    All souls are eternal, Among them the embodied are thus addressed by God. O men, you should study and teach the Vedas and then being freed from ignorance and becoming wise and industrious, you should enjoy happiness. None can acquire the knowledge of all sciences, without studying the Vedas, therefore you should spread the knowledge of the Vedas all around or everywhere.

    Translator's Notes

    (पदव्यः) पद गतौ गतेस्त्रयोऽर्थाः ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च वी-गति व्याप्तिप्रजनकान्त्यसनखादनेषु, क्विप् (अग्नि:) अग्निरिति पदनाम (निघ० ५.४ ) पद- गतौ अत्र ज्ञानार्थग्रहणम् ॥ = Of Omniscient God. (श्रमयुवः ) श्रमेणयुक्ताः । अत्र क्विवचिपच्छित्रिसुद्रु प्रुज्वां दीर्घोऽसम्प्रसारणंच (उणा० २.५८) इति क्विवबदीर्घौ भवतः = Industrious.

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    Subject of the mantra

    Those who read these Vedas, they always remain happy and those who do not read, their hard work goes in vain, this matter has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (ye) =Those, (viśve) =all living beings, (amṛtāḥ)=being devoid of practice of birth and non-birth etc. and death, (amūrāḥ)= devoid of nescience, (śramayuvaḥ) =are fill of labour, (padavyaḥ) =having attained happiness, (dhiyandhāḥ) =possess wisdom and action, [ve]=they, (mokṣam) =of salvation, (icchantaḥ) =devotee, (manuṣyāḥ) =humans, (asme) =to us, (vatsam)=who live in happiness, the four famous Vedas in the form of expressed speech, (pari) =from every side, (vindan) =are obtained, (te) =they, (agneḥ)=of God, (cāru) =the way superiority occurs, in that way, (parame) =to be the best, (pade) =attainable, (tasthuḥ) =are in a state of, (ca) =and, (ye) =those, (na) =not, (viduḥ) =know, (te) =they, (tad) =to that, (brahmapadam)=to the place or nature of spiritual being, (na+āpnuvanti) =do not attain.

    English Translation (K.K.V.)

    All living beings, who are free from the practice of birth and non-birth etc. and death, are devoid of nescience, are full of labour, have attained happiness, possess intelligence and action, those human beings who have become anxious for liberation, to us who live in happiness. They are in a state of being perfect, attainable in the way God's excellence is. And those who do not know, they do not attain that Brahmapada (the place or nature of spiritual being).

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    All living beings are eternal, among them those who take human form, God preaches to them - 'O humans! All of you, by reading and teaching the Vedas, become free from nescience and become knowledgeable and happy, no man can attain all the knowledge without the knowledge of the interpretation of the Vedas, hence properly enhance the knowledge of Vedas

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