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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 72 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 72/ मन्त्र 9
    ऋषिः - पराशरः शाक्तः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ ये विश्वा॑ स्वप॒त्यानि॑ त॒स्थुः कृ॑ण्वा॒नासो॑ अमृत॒त्वाय॑ गा॒तुम्। म॒ह्ना म॒हद्भिः॑ पृथि॒वी वि त॑स्थे मा॒ता पु॒त्रैरदि॑ति॒र्धाय॑से॒ वेः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । ये । विश्वा॑ । सु॒ऽअ॒प॒त्यानि॑ । त॒स्थुः । कृ॒ण्वा॒नासः॑ । अ॒मृ॒त॒ऽत्वाय॑ । गा॒तुम् । म॒ह्ना । म॒हत्ऽभिः॑ । पृ॒थि॒वी । वि । त॒स्थे॒ । मा॒ता । पु॒त्रैः । अदि॑तिः । धाय॑से । वेः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ ये विश्वा स्वपत्यानि तस्थुः कृण्वानासो अमृतत्वाय गातुम्। मह्ना महद्भिः पृथिवी वि तस्थे माता पुत्रैरदितिर्धायसे वेः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। ये। विश्वा। सुऽअपत्यानि। तस्थुः। कृण्वानासः। अमृतऽत्वाय। गातुम्। मह्ना। महत्ऽभिः। पृथिवी। वि। तस्थे। माता। पुत्रैः। अदितिः। धायसे। वेः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 72; मन्त्र » 9
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    यथा येऽमृतत्वाय गातुं कृण्वानासो विद्वांसो महद्भिर्गुणः सह विश्वानि स्वपत्यानि मह्ना धायसे पृथिवीव पुत्रैर्मात्रेवादितिर्मूर्त्तान् पदार्थान् वेरिवातस्थुस्तथैवैतदहं वितस्थे ॥ ९ ॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (ये) विद्वांसः (विश्वा) सर्वाणि (स्वपत्यानि) शोभनशिक्षायुक्तान् पुत्रादीन् (तस्थुः) तिष्ठन्ति (कृण्वानासः) कुर्वन्तः (अमृतत्वाय) मोक्षादिसुखानां भावाय (गातुम्) बोधसमूहम् गातुरिति पदनामसु पठितम्। (निघं०४.१) (मह्ना) महागुणसमूहेन (महद्भिः) महासुखकारकैर्गुणैः (पृथिवीः) भूमिः (वि) विशेषार्थे (तस्थे) तिष्ठामि (मा) उत्पादिका (पुत्रैः) सह (अदितिः) द्यौः (धायसे) धारणाय। अत्र बाहुलकादौणादिकोऽसुन्प्रत्ययो युट् च। (वेः) पक्षिण इव ॥ ९ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्विद्वद्वत्स्वसंतानान् सुशिक्षाविद्या युक्तान् कृत्वा धर्मार्थकाममोक्षाः प्राप्यन्ताम् ॥ ९ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे कैसे हों, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    जैसे (ये) जो (अमृतत्वाय) मोक्षादि सुख होने के लिये (गातुम्) भूमि के समान बोध के कोश को (कृण्वानासः) सिद्ध करते हुए विद्वान् लोग (महद्भिः) अतिसुख करनेवाले गुणों के साथ (विश्वा) सब (स्वपत्यानि) उत्तम शिक्षायुक्त पुत्रादिकों को (मह्ना) बड़े-बड़े गुणों से (धायसे) धारण के लिये (पृथिवी) भूमि के तुल्य (पुत्रैः) पुत्रों के साथ (माता) माता के समान (अदितिः) प्रकाशस्वरूप सूर्य स्थूल पदार्थों में (वेः) व्याप्ति करनेवाले पक्षी के समान (आतस्थुः) स्थित होते हैं, वैसे मैं इस कर्म का (वितस्थे) विशेष करके ग्रहण करता हूँ ॥ ९ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को विद्वानों के समान अपने सन्तानों को विद्या शिक्षा से युक्त करके धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूपी सुखों को प्राप्त करना चाहिये ॥ ९ ॥

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    विषय

    माता व पुत्र

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार इन्द्रिय - दोष दूर हो जाने के कारण (ये) = जो भी लोग (विश्वा) = सब (सु अपत्यानि) = शोभन, अपतनहेतुभूत कार्यों को (आतस्थुः) = अनुष्ठित करते हैं वे (अमृतत्वाय) = मोक्षप्राप्ति के लिए (गातुम्) = मार्ग को (कृण्वानासः) = करनेवाले होते हैं । उत्तम कार्यों के परिणामस्वरूप मोक्ष - प्राप्ति होती है । इन उत्तम कर्मों के द्वारा (महद्भिः) = प्रभु का पूजन करनेवाले लोगों से [मह पूजायाम्] (पृथिवी) = यह पृथिवी (मह्ना) = महिमा के साथ, गौरव के साथ (वितस्थे) = विशेष रूप से स्थित होती है । पृथिवी का धारण इन पवित्र कर्मों के करनेवाले लोगों से ही होता है । पृथिवी इन लोगों से इस प्रकार गौरव से स्थित होती है जिस प्रकार कि (माता पुत्रैः) = एक माता अपने गुणी पुत्रों से गौरव का अनुभव करती हुई स्थित होती है । २. (अदितिः) = अदीना देवमाता (धायसे) = इनके धारण के लिए (वेः) = इन्हें प्राप्त होती है । यहाँ ‘अदितिः’ का अर्थ पृथिवी [नि० १/१] लिया जाए तो यह अर्थ होता है कि पृथिवी इनको धारण करने के लिए प्राप्त होती है । ये पृथिवी का धारण करते हैं, पृथिवी इनका धारण करती है । जैसे पहले माता पुत्रों का धारण करती है और फिर पुत्र माता का, इसी प्रकार ये लोग पृथिवी का धारण करते हैं और पृथिवी इनका ।

    भावार्थ

    भावार्थ - शोभन, अपतन के हेतुभूत कर्मों को करनेवाले ही मोक्ष को प्राप्त करते हैं । पृथिवी इन्हीं से गौरवान्वित होती है । इन्हीं का पृथिवी धारण करती है ।

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    विषय

    मुमुक्षुत्व का अधिकारी, परमेश्वर का माता के समान वर्णन

    भावार्थ

    ( ये ) जो विद्वान्जन ( सु-अपत्यानि ) उत्तम सन्तानों को ( कृण्वानासः) उत्पन्न कर उनको सुशिक्षित कर चुकते हैं वे (अमृतत्वाय) अमरपद ब्रह्म को प्राप्त करने के लिए ( गातुम् ) मोक्षमार्ग का (आतस्थुः) आश्रय लेवें । (माता पुत्रैः) माता जिस प्रकार अपने पुत्रों सहित विराजती है उसी प्रकार ( पृथिवी ) समस्त पृथिवी (अदितिः) अखण्ड ऐश्वर्य वाली होकर ( मरुद्भिः ) अपने बड़े-बड़े सामर्थ्यों से ( वेः ) कर्मफलों के भोक्ता या देह से देहान्तर में जाने वाले आत्मा जीवगण के ( धायसे ) धारण पोषण के लिए (मह्ना) अपने महान् सामर्थ्य से (वितस्थे) विशेष रूप से स्थित होती है । अथवा (पृथिवी अदितिः) वह विस्तृत अखण्ड परमेश्वरी शक्ति (वेः) तेजस्वी सूर्य के समान मुमुक्षु को ( मह्ना धायसे ) महान् सामर्थ्य और आनन्द रस से धारण पोषण के लिए (महद्भिः पुत्रै माता इव ) बड़े २ पुत्रों से माता के समान (वितस्थे ) विशेष रूप से स्थित रहती है । राज्यपक्ष में—जो (अपत्यानि) शत्रुओं को दूर करने के सब उत्तम उपायों को करते हैं। वे ( अमृतत्वाय ) अन्न जल के तथा राज्य के सुख पाने के लिए पृथिवी पर शासन करें। और पृथिवी माता ( अदितिः ) अखण्ड, अदीन होकर अपने बड़े बड़े तेजस्वी वीर पुत्रों सहित ( मह्ना ) बड़े भारी बल से ( वेः धायसे ) सूर्य के समान तेजस्वी राजा के पालन पोषण के लिए ( वितस्थे ) विविध प्रकार से हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पराशर ऋषिः॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, २, ५, ६, ९ विराट् त्रिष्टुप्। ४, १० त्रिष्टुप् । ७ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ८ भुरिक् पंक्तिः ।

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर वे विद्वान् लोग कैसे हों, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- यथा ये अमृतत्वाय गातुं कृण्वानासः विद्वांसः महद्भिः गुणः सह विश्वानि स्वपत्यानि मह्ना धायसे पृथिवीः इव पुत्रैः माता इव अदितिः मूर्त्तान् पदार्थान् वेः इव आ तस्थुः तथा एतत् अहं वि तस्थे ॥९॥

    पदार्थ

    पदार्थः- (यथा)=जिस प्रकार से, (ये) विद्वांसः=विद्वान् लोग, (अमृतत्वाय) मोक्षादिसुखानां भावाय= मोक्ष आदि सुखों के भाव के, (गातुम्) बोधसमूहम्=जानने के समूह को, (कृण्वानासः) कुर्वन्तः=करते हुए, (विद्वांसः)= विद्वान् लोग, (महद्भिः) महासुखकारकैर्गुणैः=बहुत सुख देनेवाले गुणों के, (गुणः)= गुणों के, (सह)=साथ, (विश्वानि) सर्वाणि=समस्त, (स्वपत्यानि) शोभनशिक्षायुक्तान् पुत्रादीन्=उत्तम शिक्षा से युक्त अपने पुत्र आदि, (मह्ना) महागुणसमूहेन= बहुत गुणों के समूह को, (धायसे) धारणाय=धारण करने के लिये, (पृथिवीः) भूमिः= भूमि के, (इव)=समान, (पुत्रैः) पुत्रैः सह= पुत्रों के साथ और, (माता) उत्पादिका=उत्पन्न करनेवाली माता के, (इव)=समान, (अदितिः) द्यौः=आकाश, (मूर्त्तान्)=साकार, (पदार्थान्)= पदार्थों, (वेः) पक्षिण इव=पक्षियों के समान, (आ) समन्तात्=हर ओर से, (तस्थुः) तिष्ठन्ति=स्थित होते हैं, (तथा)=वैसे ही, (एतत्)= इसमें, (अहम्)= मैं, (वि) विशेषार्थे=विशेष रूप से, (तस्थे) तिष्ठामि= स्थित होता हूँ ॥९॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों के द्वारा विद्वानों के समान अपने सन्तानों को उत्तम शिक्षा और विद्या से युक्त करके धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त करना चाहिये ॥९॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- (यथा) जिस प्रकार से (ये) विद्वान् लोग (अमृतत्वाय) मोक्ष आदि सुखों के भाव को (गातुम्) जानने के समूह का [उपयोग] (कृण्वानासः) करते हुए (विद्वांसः) विद्वान् लोग (महद्भिः) बहुत सुख देनेवाले गुणों के (सह) साथ (विश्वानि) समस्त (स्वपत्यानि) उत्तम शिक्षा से युक्त अपने पुत्र आदि (मह्ना) बहुत गुणों के समूह को (धायसे) धारण करने के लिये, (पृथिवीः) भूमि के (इव) समान, (पुत्रैः) पुत्रों के साथ और (माता) उत्पन्न करनेवाली माता के (इव) समान (अदितिः) आकाश में, (मूर्त्तान्) साकार (पदार्थान्) पदार्थों, [जैसे] (वेः) पक्षियों के समान (आ) हर ओर से (तस्थुः) स्थित होते हैं। (तथा) वैसे ही (एतत्) इसमें (अहम्) मैं (वि) विशेष रूप से (तस्थे) स्थित होता हूँ ॥९॥

    संस्कृत भाग

    आ । ये । विश्वा॑ । सु॒ऽअ॒प॒त्यानि॑ । त॒स्थुः । कृ॒ण्वा॒नासः॑ । अ॒मृ॒त॒ऽत्वाय॑ । गा॒तुम् । म॒ह्ना । म॒हत्ऽभिः॑ । पृ॒थि॒वी । वि । त॒स्थे॒ । मा॒ता । पु॒त्रैः । अदि॑तिः । धाय॑से । वेः ॥ विषयः- पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्विद्वद्वत्स्वसंतानान् सुशिक्षाविद्या युक्तान् कृत्वा धर्मार्थकाममोक्षाः प्राप्यन्ताम् ॥९॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी विद्वानांसारखे आपल्या संतानांना विद्या शिक्षणाने युक्त करून धर्म, अर्थ, काम, मोक्षरूपी सुख प्राप्त करावे. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Just as all parents abide by their children, men of noble action abide by the way of knowledge and virtue for the attainment of the nectar of salvation, the earth abides by her children with her great virtues and universal generosity, the mother abides by her children, the vast heaven abides for the support of her creations, and the sun light abides by the birds, so do I abide with life for the sake of good actions in the yajna of life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How are they (learned persons) is taught further in the ninth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    As learned men giving wisdom for the attainment of immortality or emancipation make all their good children endowed with great virtues, as the earth upholds all, a mother properly brings up her children, as the sky upholds birds etc. so do I try to uphold or support all.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (गातुम्) बोधसमूहम् गातुरिति पदनाम (निघ० ४.१ ) पढ़-गतौ गतेस्त्रिष्वर्थेषु अत्र ज्ञानार्थग्रहणम् = Knowledge or group of teachings. (अदितिः) द्यौः = Sky. (अदितिधौरदितिरन्तरिक्षम् इति प्रामाण्यात् ) अदिती द्यावापृथिवीनाम (निघ० ३.३० ) अदितिरिति पृथिवीनाम (निघ० १.१ )

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the duty of all men to make their children endowed with good education and wisdom and enable them to attain (righteousness) (wealth) (noble desires) and (emancipation) like other wise learned persons.

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    Subject of the mantra

    Then how should those learned people should be, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yathā)= Just as, (ye)=learned people, (amṛtatvāya)= the feeling of happiness like salvation etc., (gātum)=of group of knowledge, [upayoga]=use, (kṛṇvānāsaḥ) =doing, (vidvāṃsaḥ) =learned people, (mahadbhiḥ)= of very pleasurable qualities, (saha) =with, (viśvāni) =all, (svapatyāni) =own sons with good education etc., (mahnā) =to group of many qualities, (dhāyase) =for possessing, (pṛthivīḥ) =of earth, (iva) =like, (putraiḥ) =with sons and, (mātā) =of creating mother, (iva) =like, (aditiḥ) =in sky, (mūrttān) =corporeal, (padārthān) =substances, [jaise]=like, (veḥ) =like birds, (ā) =from all sides, (tasthuḥ) =arestationed, (tathā) =similarly, (etat) =in this, (aham)=I, (vi) =specially, (tasthe) =situated.

    English Translation (K.K.V.)

    Just as the learned people use the group of knowing the pleasures like salvation etc., the learned people use the group of many qualities like land to give their sons with all the best education along with many happiness-giving qualities, like the land, they have sons. Along with and like the mother who gives birth, in the sky, corporeal objects, like birds, are situated on every side. Similarly, I am specially situated in it.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Like scholars, human beings should equip their children with good education and knowledge to attain dharma (righteouness), artha(wealth), kāma(dese) and mokṣa(salvation).

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