ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 72/ मन्त्र 10
अधि॒ श्रियं॒ नि द॑धु॒श्चारु॑मस्मिन्दि॒वो यद॒क्षी अ॒मृता॒ अकृ॑ण्वन्। अध॑ क्षरन्ति॒ सिन्ध॑वो॒ न सृ॒ष्टाः प्र नीची॑रग्ने॒ अरु॑षीरजानन् ॥
स्वर सहित पद पाठअधि॑ । श्रिय॑म् । नि । द॒धुः॒ । चारु॑म् । अ॒स्मि॒न् । दि॒वः । यत् । अ॒क्षी इति॑ । अ॒मृताः॑ । अकृ॑ण्वन् । अध॑ । क्ष॒र॒न्ति॒ । सिन्ध॑वः । न । सृ॒ष्टाः । प्र । नीचीः॑ । अ॒ग्ने॒ । अरु॑षीः । अ॒जा॒न॒न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अधि श्रियं नि दधुश्चारुमस्मिन्दिवो यदक्षी अमृता अकृण्वन्। अध क्षरन्ति सिन्धवो न सृष्टाः प्र नीचीरग्ने अरुषीरजानन् ॥
स्वर रहित पद पाठअधि। श्रियम्। नि। दधुः। चारुम्। अस्मिन्। दिवः। यत्। अक्षी इति। अमृताः। अकृण्वन्। अध। क्षरन्ति। सिन्धवः। न। सृष्टाः। प्र। नीचीः। अग्ने। अरुषीः। अजानन् ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 72; मन्त्र » 10
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्ते किं धरन्तीत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे अग्ने ! यथा यद्येऽमृता विद्वांसोऽस्मिन् श्रियमधि निदधुश्चारुं दिवोऽक्षी अकृण्वन् सृष्टाः सिन्धवो नाध सुखानि क्षरन्ति नीचीररुषीः प्राजानन् तथात्वमप्येतान्निधेहि कुरु देहि प्रजानीहि ॥ १० ॥
पदार्थः
(अधि) अधिकार्थे (श्रियम्) विद्याराज्यैश्वर्यशोभाम् (नि) नितराम् (दधु) धरन्ति (चारुम्) श्रेष्ठं व्यवहारम् (अस्मिन्) लोके (दिवः) विज्ञानात्सूर्य्यप्रकाशाद्वा (यत्) ये (अक्षी) अश्नुवते व्याप्नुवन्ति याभ्यां बाह्याभ्यन्तरविद्यायुक्ताभ्यान्ते (अमृताः) मरणधर्मरहिताः प्राप्तमोक्षा वा (अकृण्वन्) कुर्वन्ति (अध) अनन्तरम्। अथेत्यस्यार्थे शब्दारम्भेऽधेत्यव्ययम्। (क्षरन्ति) संवर्षन्ति (सिन्धवः) नद्यः (न) इव (सृष्टाः) निर्मिताः (प्र) क्रियायोगे (नीचीः) नितरां सेव्याः (अग्ने) विद्वन् (अरुषीः) उषस इव सर्वसुखप्रापिका विद्याः क्रिया वा (अजानन्) जानीयुः ॥ १० ॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। हे मनुष्या ! यथायोग्यं विदुषामाचरणं स्वीकुरुत, नैवाविदुषाम्। यथा नद्यः सुखानि सृजन्ति तथा सर्वेभ्यः सर्वाणि सुखानि सृजत ॥ १० ॥ अत्रेश्वरविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम् ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे विद्वान् किसको धारण करते हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
जैसे (यत्) जो (अमृताः) मरण-जन्म रहित मोक्ष को प्राप्त हुए विद्वान् लोग (अस्मिन्) इस लोक में (श्रियम्) विद्या तथा राज्य के ऐश्वर्य की शोभा को (अधि निदधुः) अधिक धारण (चारुम्) श्रेष्ठ व्यवहार (दिव्यः) प्रकाश और विज्ञान से (अक्षी) बाहर भीतर से देखने की विद्याओं को (अकृण्वन्) सिद्ध करते (सृष्टाः) उत्पन्न की हुई (सिन्धवः) नदियों के (न) समान (अध) अनन्तर सुखों को (क्षरन्ति) देते हैं (नीचीः) निरन्तर सेवन करने तथा (अरुषीः) प्रभात के समान सब सुख प्राप्त करनेवाली विद्या और क्रिया को (प्र अजानन्) अच्छा जानते हैं, वैसे हे (अग्ने) विद्वान् मनुष्य ! तू भी यथाशक्ति सब कामों को सिद्ध कर ॥ १० ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे मनुष्यो ! तुम लोग यथायोग्य विद्वानों के आचरण को स्वीकार करो और अविद्वानों का नहीं। तथा जैसे नदी सुखों के होने की हेतु होती है, वैसे सबके लिये सुखों को उत्पन्न करो ॥ १० ॥ इस सूक्त में ईश्वर और विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ संगति समझनी चाहिये ॥
विषय
ज्ञान के दो चक्षु
पदार्थ
१. (यत्) = जब (अमृताः) = विषयों के पीछे न मरनेवाले देववृत्ति के पुरुष (दिवः) = ज्ञान की (अक्षी) = आंखो को (अकृण्वन्) = बोलते हैं । यहाँ ‘अपराविद्या’ एक आंख है और ‘पराविद्या’ दूसरी आँख । इसी ‘द्वे विद्ये वेदितव्ये’ के विचार से ही यहाँ अक्षी इस द्विवचन शब्द का प्रयोग है । जब विषयों से अनाक्रान्त पुरुष ज्ञान की इन दो आँखों को खोलते हैं तब (अस्मिन्) = इस जीवन में (चारुं श्रियम्) = सुन्दर शोभा को (अधिनिदधुः) = आधिक्येन धारण करते हैं । ‘अपराविद्या’ रूप आँख उन्हें रोगों व मृत्यु से बचाकर स्वास्थ्य का सौन्दर्य प्रदान करती है और ‘पराविद्या’ रूप आँख उन्हें संसार के स्वादों में फंसने से बचाती है । २. (अध) = अब (सृष्टाः सिन्धवःन) = उत्पन्न हुई - हुई जलधाराओं के समान इनके ज्ञानप्रवाह (नीचीः) = [नितरां अञ्चन्ति] निरन्तर क्रियाशील होकर अपने - आगे और आगे (प्रक्षरन्ति) = [संचलन्ति] चलते हैं । ये अमृतपुरुष (अरुषीः) = आरोचमान ज्ञानप्रवाहों को (अजानन्) = जाननेवाले होते हैं । इनका ज्ञान सर्वतः दीप्त होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - जीवन का सौन्दर्य ज्ञानप्राप्ति में ही है । ‘प्रकृतिविद्या’ उस सुन्दर शरीर की एक आँरख है तो ‘आत्मविद्या’ दूसरी । शोभा दोनों आँखों के मेल में ही है ।
विशेष / सूचना
विशेष - सूक्त का आरम्भ अग्नि के लक्षण से होता है [क], यह वेदवाणी से ज्ञान को प्राप्त करता है [ख], लोकहित के कार्यों में व्याप्त रहता है [ग], धनों का ईश बनता है और [घ] विषयों में आसक्त नहीं होता [१] । ये अमूढ पुरुष ही प्रभु को प्राप्त करते हैं [२] । तीन वर्ष तक निरन्तर अभ्यास से साधना सम्भव होती है [३] । शरीर और मस्तिष्क का समुचित विकास, प्राणसाधना, यज्ञशीलता व वासनाओं के साथ संग्राम - ये चार प्रभु - प्राप्ति के साधन हैं [४] । प्रभु के मित्र बनते हुए हम उसके संदर्शन में पापों से बचें [५] । इक्कीस यज्ञों के अनुष्ठान से हम अमृतत्व का रक्षण करें [६] । अन्तः स्थित प्रभु से देवयान के मार्ग का सन्देश सुनें [७] । इन्द्रियों को ज्ञानेश्वर्य की प्राप्ति का द्वार बनाएँ [८] | अपतन के हेतुभूत कर्मों को करते हुए मोक्ष को प्राप्त करें [९] । परा व अपरा - विद्यारूप ज्ञान की दो आँखों का सम्पादन करते हुए अधिक शोभा को धारण करें [१०] । प्रभु ही उत्कृष्ट जीवन को धारण करनेवाले हैं - इन शब्दों से अगला सूक्त आरम्भ होता है -
विषय
ज्ञानियों और विद्वानों का वर्णन, राज्याभिषेक ।
भावार्थ
( ये ) जो ( अमृता: ) मरण धर्म से रहित, मुमुक्षु या मुक्त जन ( अक्षी ) बाह्य और आभ्यन्तर दोनों चक्षु या इन्द्रियों को ( दिवः ) सूर्य के समान ज्ञान प्रकाश से युक्त (अकृण्वन्) कर लेते हैं वे (अस्मिन्) इस परमेश्वर के आश्रय में ( चारुम् श्रियम् ) अति उत्तम शोभा या ज्ञान दीप्ति को ( अधि निदधुः ) धारण करते हैं । ( सृष्टाः सिन्धवः) मेघ से गिरती जलधाराएं या वेग से चलती नदियें जिस प्रकार ( नीचीः ) नीचे की ओर बह आती हैं हे ( अग्ने ) विद्वन् ! हे ईश्वर ! ( अध ) उसी प्रकार साधकों की पूर्वोक्त दशा में भी (सिन्धवः) रसधाराएं ( नीचीः ) साक्षात् ( क्षरन्ति ) स्रवित हों। (अरुषीः) ज्योतिष्मती, प्रजाओं को (प्र अजानन्) व जानें या साक्षात् करें । राष्ट्रपक्ष में—( अमृताः ) विद्वान्जन ( दिवः अक्षी ) ज्ञान से युक्त विद्वत्-सभा के दो आंखों के समान दो मुख्य पुरुषों को नियुक्त कर लें तब ( अस्मिन् ) उस मुख्य राजा के ऊपर राज्यलक्ष्मी का भार रक्खें । तब ( सिन्धवः ) जलधाराएं नदी-धाराओं के समान उस पर बहे अर्थात् उसका अभिषेक हो । हे ( अग्ने ) अग्रणी नायक ! तब विद्वान् लोग ( अरुषीः ) तेजोयुक्त वेदवाणियों का ज्ञानोपदेश करें या तेजस्विनी उषाओं के समान प्रभाववर्द्धक क्रियाओं का तुझे ज्ञान दें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पराशर ऋषिः॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, २, ५, ६, ९ विराट् त्रिष्टुप्। ४, १० त्रिष्टुप् । ७ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ८ भुरिक् पंक्तिः ।
विषय
विषय (भाषा)- फिर वे विद्वान् किसको धारण करते हैं, यह विषय इस मन्त्र में कहा है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे अग्ने ! यथा यत् ये अमृताः विद्वांसःअस्मिन् श्रियम् अधि निदधुः चारुं दिवः अक्षी अकृण्वन् सृष्टाः सिन्धवः न अध सुखानि क्षरन्ति नीचीः अरुषीः प्राजानन् तथा त्वम् अपि एतान् नि धेहि कुरु देहि प्र जानीहि ॥१०॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (अग्ने) विद्वन्= विद्वान् ! (यथा)=जैसे, (यत्) ये=जो, (अमृताः) मरणधर्मरहिताः प्राप्तमोक्षा वा=मृत्यु के धर्म से रहित या मोक्ष को प्राप्त हुए, (विद्वांसः)= विद्वान् लोग, (अस्मिन्) लोके=इस संसार में, (श्रियम्) विद्याराज्यैश्वर्यशोभाम्= विद्या राज्य के ऐश्वर्य और शोभा को, (अधि) अधिकार्थे = अधिक और, (नि) नितराम् =अच्छे प्रकार से, (दधु) धरन्ति=धारण करते हैं, (चारुम्) श्रेष्ठं व्यवहारम्= श्रेष्ठ व्यवहार को, (दिवः) विज्ञानात्सूर्य्यप्रकाशाद्वा= विशेष ज्ञान से या सूर्य के प्रकाश के समान, (अक्षी) अश्नुवते व्याप्नुवन्ति याभ्यां बाह्याभ्यन्तरविद्यायुक्ताभ्यान्ते =बाह्य और आन्तरिक विद्या से प्राप्त, (अकृण्वन्) कुर्वन्ति=करते हैं, (सृष्टाः) निर्मिताः= निर्मित की गई, (सिन्धवः) नद्यः=नदी के, (न) इव=समान, (अध) अनन्तरम्= तुरन्त इसके बाद में, (सुखानि)=सुखों की, (क्षरन्ति) संवर्षन्ति=अच्छे प्रकार से वर्षा करते हैं, वे (नीचीः) नितरां सेव्याः= अच्छे प्रकार से अनुसरण किये जाने योग्य हैं, (अरुषीः) उषस इव सर्वसुखप्रापिका विद्याः क्रिया वा=उषा या विद्या के समान सबको सुख प्राप्त करानेवाले, (प्र) प्रकृष्टेण=प्रकृष्ट रूप से, (अजानन्) जानीयुः=जानिये, (तथा)=वैसे ही, (त्वम्) =तुम, (अपि)=भी, (एतान्)=इनको, (नि) नितराम् = अच्छे प्रकार से, (धेहि)=धारण, (कुरु)= कीजिये, (प्रजानीहि) उप सर्गे क्रियायोगे =जानिये ॥१०॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे मनुष्यों ! तुम लोग विद्वानों के आचरण को ठीक-ठीक से अपनाओ, अविद्वानों के आचरण को नहीं। जैसे नदी सुखों को उत्पन्न करती हैं, वैसे ही सबके लिये सुखों को उत्पन्न करो ॥१०॥
विशेष
महर्षिकृत के भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस सूक्त में ईश्वर और विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ संगति समझनी चाहिये ॥१०॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (अग्ने) विद्वान् ! (यथा) जैसे (यत्) जो (अमृताः) मृत्यु के धर्म से रहित या मोक्ष को प्राप्त हुए, (विद्वांसः) विद्वान् लोग हैं, [वे] (अस्मिन्) इस संसार में (श्रियम्) विद्या, राज्य के ऐश्वर्य और शोभा को (अधि) अधिक और (नि) अच्छे प्रकार से (दधु) धारण करते हैं। (चारुम्) श्रेष्ठ व्यवहार को, (दिवः) विशेष ज्ञान से या सूर्य के प्रकाश के समान (अक्षी) बाह्य और आन्तरिक विद्या से प्राप्त (अकृण्वन्) करते हैं। (सृष्टाः) निर्मित की गई (सिन्धवः) नदी के (न) समान, (अध) तुरन्त इसके बाद में (सुखानि) सुखों की (क्षरन्ति) अच्छे प्रकार से वर्षा करते हैं, वे (नीचीः) अच्छे प्रकार से अनुसरण किये जाने योग्य हैं। (अरुषीः) उषा या विद्या के समान सबको सुख प्राप्त करानेवाले, [उनको] (प्र) प्रकृष्ट रूप से (अजानन्) जानिये। (तथा) वैसे ही (त्वम्) तुम (अपि) भी (एतान्) इन [व्यवहारों को] (नि) अच्छे प्रकार से (धेहि) धारण (कुरु) कीजिये और (प्रजानीहि) जानिये ॥१० ॥
संस्कृत भाग
अधि॑ । श्रिय॑म् । नि । द॒धुः॒ । चारु॑म् । अ॒स्मि॒न् । दि॒वः । यत् । अ॒क्षी इति॑ । अ॒मृताः॑ । अकृ॑ण्वन् । अध॑ । क्ष॒र॒न्ति॒ । सिन्ध॑वः । न । सृ॒ष्टाः । प्र । नीचीः॑ । अ॒ग्ने॒ । अरु॑षीः । अ॒जा॒न॒न् ॥ विषयः- पुनस्ते किं धरन्तीत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। हे मनुष्या ! यथायोग्यं विदुषामाचरणं स्वीकुरुत, नैवाविदुषाम्। यथा नद्यः सुखानि सृजन्ति तथा सर्वेभ्यः सर्वाणि सुखानि सृजत ॥१०॥ सूक्तस्य भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रेश्वरविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम् ॥१०॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. हे माणसांनो ! तुम्ही यथायोग्य विद्वानांच्या आचरणाचा स्वीकार करा, अविद्वानांच्या नव्हे व नदी जशी सुखाचे कारण असते तसे सर्वांसाठी सुख उत्पन्न करा. ॥ १० ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
The Immortals, realised souls with the vision of Divinity, create the beauty of knowledge, honour and happiness here on earth itself as if the light of heaven is blessing the world with its benign eyes through the divinity of Agni. Agni, like streams released from the waters of space flowing on the earth and blessing it with joy, the rays of light and flames of fire: all constantly revitalise humanity like the light of the dawn resurrecting life and nature after the cover of darkness.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What do the learned persons uphold is taught further in the tenth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person: Immortal emancipated souls have established the beauty of wisdom, kingdom and prosperity in this world. They have made from their light of wisdom two eyes in the form of internal and external knowledge Like the flowing rivers, they spread happiness on all sides. They know acceptable sciences, and the various processes which cause happiness like the dawns. You should also do likewise and give knowledge to all.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(दिवः) विज्ञानात् सूर्यप्रकाशाद् वा = From wisdom or the light of the sun. (अक्षी) अश्नुवते व्याप्नुवन्ति याभ्यां बाह्याभ्यन्तरविद्यायुक्ताभ्यां ते । Eyes in the form of the internal or spiritual and external or material knowledge. (अरुषी:) उपस इव सर्वसुखप्रापिका विद्याः क्रिया वा । = Sciences or various processes which cause all happiness like the dawns.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men, you should suitably accept the conduct of the learned and not that of the ignorant. As rivers cause happiness, so you should create happiness or delight for all.
Translator's Notes
अरुषांति उषोनाम (निघ० १.८ ) It is derived from ॠ-गतिप्रापणयो: hence Rishi Dayananda Sarasvati's interpreation of सर्वसुखप्रापिका विद्याः क्रिया वा दिवः is from दिवु-क्रीडाविजिगीषाव्यवहारविदयुतिस्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिमतिषु । Here the meaning of द्युति or light of wisdom or of the sun has been taken by Rishi Dayananda. This hymn is connected with the previous human as it deals God and the attributes of the enlightened persons. Here ands the commentary on the seventy-second hymn or 18th Varga of the Rigveda.
Subject of the mantra
Then what do those scholars adopt, this topic is said in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (agne) Scholar, (yathā) =like, (yat) =those, (amṛtāḥ) =are free from the nature of death or have attained salvation, (vidvāṃsaḥ) =learned people are, [ve]=they, (asmin) =in this world, (śriyam)=[to knowledge, opulence and beauty of the state, (adhi)=more and, (ni) =well, (dadhu) =possess, (cārum)=to best behaviour, (divaḥ) =with special knowledge or like sunlight, (akṣī)=obtained from external and internal knowledge, (akṛṇvan) =do, (sṛṣṭāḥ) =created, (sindhavaḥ) =of river, (na) =like, (adha)= immediately after this, (sukhāni) =of delights, (kṣaranti)=rain well, they, (nīcīḥ)=are well worth following, (aruṣīḥ)= the one who brings happiness to everyone like dawn or knowledge, [unako]=to them, (pra) =eminently, (ajānan) =know, (tathā) =similarly, (tvam) =you, (api) =also, (etān)=to these, [vyavahāroṃ ko]=practices, (ni) =well, (dhehi) =adopt, (kuru) =do and, (prajānīhi) =know.
English Translation (K.K.V.)
O scholar! Like, those who are free from the nature of death or have attained salvation, are learned people, they enjoy the opulence and splendor of the kingdom of knowledge in this world more and in a better way. Like a river that has been created, there is a good shower of happiness immediately thereafter, they are well worth following. Know Him deeply, who gives happiness to everyone like dawn or knowledge. Similarly, you should also practice these well and know them.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There are simile and silent vocal simile as figurative in this mantra. O humans! You people should properly adopt the conduct of scholars, not the conduct of unlearned. Just as rivers create happiness, similarly create happiness for everyone.
TRANSLATOR’S NOTES-
Since the qualities of God and scholars are described in this hymn, the interpretation of this hymn should be understood to be consistent with the interpretation of the previous hymn.
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