ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 72/ मन्त्र 3
ति॒स्रो यद॑ग्ने श॒रद॒स्त्वामिच्छुचिं॑ घृ॒तेन॒ शुच॑यः सप॒र्यान्। नामा॑नि चिद्दधिरे य॒ज्ञिया॒न्यसू॑दयन्त त॒न्वः१॒॑ सुजा॑ताः ॥
स्वर सहित पद पाठति॒स्रः । यत् । अ॒ग्ने॒ । श॒रदः॑ । त्वाम् । इत् । शुचि॑म् । घृ॒तेन॑ । शुच॑यः । स॒प॒र्यान् । नामा॑नि । चि॒त् । द॒धि॒रे॒ । य॒ज्ञिया॑नि । असू॑दयन्त । त॒न्वः॑ । सुऽजा॑ताः ॥
स्वर रहित मन्त्र
तिस्रो यदग्ने शरदस्त्वामिच्छुचिं घृतेन शुचयः सपर्यान्। नामानि चिद्दधिरे यज्ञियान्यसूदयन्त तन्वः१ सुजाताः ॥
स्वर रहित पद पाठतिस्रः। यत्। अग्ने। शरदः। त्वाम्। इत्। शुचिम्। घृतेन। शुचयः। सपर्यान्। नामानि। चित्। दधिरे। यज्ञियानि। असूदयन्त। तन्वः। सुऽजाताः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 72; मन्त्र » 3
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तं किमर्थमधीयीरन्नित्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे अग्ने ! यद्ये शुचयः सुजाता मनुष्याः शुचिं त्वां तिस्रः शरदः सपर्यान् त इद्यज्ञियानि नामानि दधिरे चिदपि घृतेन तन्वस्तनूरसूदयन्त ॥ ३ ॥
पदार्थः
(तिस्रः) त्रित्वसंख्याविशिष्टान् (यत्) ये (अग्ने) विद्वन् (शरदः) शरदृत्वन्तान् संवत्सरान् (त्वाम्) तम् (इत्) एव (शुचिम्) पवित्रम् (घृतेन) आज्येनोदकेन वा (शुचयः) पवित्राः सन्तः (सपर्यान्) परिचरेयुः सेवेरन् (नामानि) अर्थज्ञानक्रियासहिताः संज्ञाः (चित्) अपि (दधिरे) दधति (यज्ञियानि) कर्मोपासनाज्ञानसम्पादनार्हाणि कर्माणि (असूदयन्त) संचालयेयुः (तन्वः) तनूः (सुजाताः) विद्याक्रियासुकौशले सुष्ठु प्रसिद्धाः ॥ ३ ॥
भावार्थः
नहि कश्चिदपि वेदाननधीत्य विद्याः प्राप्नोति, नहि विद्याभिर्विना मनुष्यजन्मसाफल्यं पवित्रता च जायते, तस्मात्सर्वैर्मनुष्यैरेतत्कर्म प्रयत्नेन सदैवानुष्ठेयम् ॥ ३ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे उन वेदों को किसलिये पढ़ें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) विद्वन् ! (यत्) जो (शुचयः) पवित्र (सुजाताः) विद्याक्रियाओं में उत्तम कुशलता से प्रसिद्ध मनुष्य (शुचिम्) पवित्र (त्वाम्) तुझको (तिस्रः) तीन (शरदः) शरद् ऋतुवाले संवत्सरों को (सपर्यान्) सेवन करें, वे (इत्) ही (यज्ञियानि) कर्म्म, उपासना और ज्ञान को सिद्ध करने योग्य व्यवहार (नामानि) अर्थज्ञान सहित संज्ञाओं को (दधिरे) धारण करें (चित्) और (घृतेन) घृत वा जलों के साथ (तन्वः) शरीरों को भी (असूदयन्त) चलावें ॥ ३ ॥
भावार्थ
कोई भी मनुष्य वेदविद्या के विना पढ़े विद्वान् नहीं हो सकता और विद्याओं के विना निश्चय करके मनुष्य जन्म की सफलता तथा पवित्रता नहीं होती, इसलिये सब मनुष्यों को उचित है कि धर्म्म का सेवन नित्य करें ॥ ३ ॥
विषय
तीन वर्ष तक
पदार्थ
१. हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (यत्) = जो (तिस्रः शरदः) = तीन वर्ष तक निरन्तर (शुचिम्) = अत्यन्त पवित्र (त्वाम्) = आपकी (शुचयः) = पवित्र ज्ञानवाले बनकर (इत्) = निश्चय से (घृतेन) = मलों के क्षरण से तथा ज्ञान की दीप्ति से (सपर्यान्) = पूजा करते हैं तथा (यज्ञियानि) = संगतिकरण योग्य अथवा पूज्य [पवित्र] (नामानि चित्) = नामों को भी (दधिरे) = धारण करते हैं, अर्थात् आपके पवित्र नामों का उच्चारण करते हैं तो वे (सुजाताः) = उत्तम विकासवाले व्यक्ति (तन्वः) = अपने शरीरों को (असूदयन्त) = सूदूर फेंक [Throw away] देते हैं, अर्थात् वे फिर जन्म - मरण के चक्र में नहीं फँसते । २. इस प्रकार प्रस्तुत मन्त्र में जन्म - मरण के चक्र से बचने के लिए साधन के रूप में दो बातें उपस्थित की गई हैं - [क] एक तो यह कि तीन वर्ष तक निरन्तर अपने को पवित्र बनाने का प्रयत्न करते हुए उस पवित्र प्रभु का प्रातः - सायं उपासन करें और [ख] दूसरा यह कि खाली समय में प्रभु के पवित्र नामों का उच्चारण करें । इन दोनों साधनों के अवलम्बन से हमारे जीवन का उत्तम विकास होगा और जीवन का उद्देश्य पूर्ण होकर पुनः जन्म लेना अनावश्यक हो जाएगा । हम मुक्ति के योग्य हो जाएँगे ।
भावार्थ
भावार्थ - साधना के लिए हम तीन वर्ष तक अविच्छिन्नरूप से प्रतिदिन प्रभु की उपासना करें और प्रभु के पवित्र नामों का उच्चारण करें ।
विषय
ईश्वर और गुरु की उपासना ।
भावार्थ
हे (अग्ने) ज्ञानवन् ! आचार्य ! राजन् ! ( यत् ) जो ( शुचयः ) शुद्ध पवित्र होकर ( शुचिम् ) शुद्ध पवित्र ( त्वाम् ) तुझको ( तिस्रः शरदः ) तीन वर्षों तक ( सपर्यान् ) सेवन करे तेरा ही सत्संग करें वे ( सुजाताः ) उत्तम क्रिया कुशल और आवरणीय, उत्तम चरित्रवान् पुरुष ( यज्ञियानि ) यज्ञ, अर्थात् परमेश्वर के उपासना, प्रार्थना, तथा उत्तम श्रेष्ठ कर्मों के अनुसार ही समस्त व्यवहारों और ( नामानि ) उत्तम नामों को भी ( दधिरे ) धारण करें। और वे ( घृतेन ) जल से (तन्वः) अपने देहों को ( असूदयन्त ) स्नान करावें, गुरुओं के पास विशेष योग्यता प्राप्त करने के लिये तीन वर्ष उसका सत्संग करके निष्णात हों । इसी प्रकार अग्नि अर्थात् राजा के अधीन भी तीन वर्ष निष्कपट सेवा करके स्थिर कार्य पर विशेष उपाधि सहित नियुक्त किये जायँ । अभिषेक द्वारा उनको विशेष रूप से दीक्षित कर दिया जाय । परमेश्वरपक्ष में—शुद्ध भाव से तीन वर्ष लगातार ब्रह्मचर्यपूर्वक निष्कपटता से रहने पर तपस्वी जन परमेश्वर के गुणों और स्वरूपों को साक्षात् करने लगते हैं और (घृतेन) तेज, से उनके देह तमतमाने लगते हैं । यह अनुभवापेक्ष है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पराशर ऋषिः॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, २, ५, ६, ९ विराट् त्रिष्टुप्। ४, १० त्रिष्टुप् । ७ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ८ भुरिक् पंक्तिः ।
विषय
विषय (भाषा)- फिर वे उन वेदों को किसलिये पढ़ें, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे अग्ने ! यत् ये शुचयः सुजाताः मनुष्याः शुचिं त्वां तिस्रः शरदः सपर्यान् त इत् यज्ञियानि नामानि दधिरे चित् अपि घृतेन तन्वः तनूः असूदयन्त॥३॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (अग्ने) विद्वन्= विद्वान् ! (यत्) ये=जो, (शुचयः) पवित्राः सन्तः= पवित्र होते हुए, (सुजाताः) विद्याक्रियासुकौशले सुष्ठु प्रसिद्धाः= विद्या और क्रिया में कुशल, उत्तम व प्रसिद्ध, (मनुष्याः)= मनुष्य हैं, [उन] (शुचिम्) पवित्रम्=पवित्र [मनुष्यों], (त्वाम्) तम्=उनको, (तिस्रः) त्रित्वसंख्याविशिष्टान्=तीन, (शरदः) शरदृत्वन्तान् संवत्सरान्=वर्षों तक, (सपर्यान्) परिचरेयुः सेवेरन्=सेवा कीजिये, (त) तम् =उनको (इत्) ही (यज्ञियानि) कर्मोपासनाज्ञानसम्पादनार्हाणि कर्माणि=कर्म, उपासना और ज्ञान के योग्य कर्मों में के करने के सम्पादन के योग्य, (नामानि) अर्थज्ञानक्रियासहिताः संज्ञाः= अर्थ, ज्ञान और क्रिया सहित नाम से, (दधिरे) दधति=धारण करता है, (चित्) अपि=भी, (घृतेन) आज्येनोदकेन वा=घी और जल से, (तन्वः) तनूः=शरीरों को, (असूदयन्त) संचालयेयुः=संचालित कीजिये ॥३॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- किसी को भी वेद को पढ़े विना विद्या प्राप्त नहीं हो सकती है, विद्याओं के विना मनुष्य जन्म की सफलता ओर पवित्रता नहीं होती है, इसलिये सब मनुष्यों को इस कर्म के प्रयत्न को सदा कार्यान्वित करना चाहिए ॥३॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (अग्ने) विद्वान् ! (यत्) जो (शुचयः) पवित्र होते हुए, (सुजाताः) विद्या और क्रिया में कुशल, उत्तम व प्रसिद्ध, मनुष्य हैं, उन पवित्र मनुष्यों की तीन वर्षों तक सेवा कीजिये। (त) उनको (इत्) ही, (यज्ञियानि) कर्म, उपासना और ज्ञान के योग्य कर्मों के करने के सम्पादन के योग्य, (नामानि) अर्थ, ज्ञान और क्रिया सहित नाम से (दधिरे) धारण करता है और (घृतेन) घी और जल से (चित्) भी (तन्वः) शरीरों को (असूदयन्त) संचालित कीजिये ॥३॥
संस्कृत भाग
ति॒स्रः । यत् । अ॒ग्ने॒ । श॒रदः॑ । त्वाम् । इत् । शुचि॑म् । घृ॒तेन॑ । शुच॑यः । स॒प॒र्यान् । नामा॑नि । चि॒त् । द॒धि॒रे॒ । य॒ज्ञिया॑नि । असू॑दयन्त । त॒न्वः॑ । सुऽजा॑ताः ॥ विषयः- पुनस्तं किमर्थमधीयीरन्नित्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- नहि कश्चिदपि वेदाननधीत्य विद्याः प्राप्नोति, नहि विद्याभिर्विना मनुष्यजन्मसाफल्यं पवित्रता च जायते, तस्मात्सर्वैर्मनुष्यैरेतत्कर्म प्रयत्नेन सदैवानुष्ठेयम् ॥३॥
मराठी (1)
भावार्थ
कोणताही माणूस वेदविद्या शिकल्याशिवाय विद्वान होऊ शकत नाही व विद्येशिवाय निश्चयाने मनुष्य जन्माची सफलता व पवित्रता उत्पन्न होत नाही त्यासाठी सर्व माणसांनी धर्माचा स्वीकार करावा. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Agni, lord of light and cosmic yajna of evolution, those people of pure and dedicated soul who serve you, lord of purity, for three years with oblations of ghrta in yajna would justify their name with fame and yajnic karma and also perfect their physical existence in perfect bodies reborn in happy and enlightened homes.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Why should men study the Vedas is taught further in the third mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned man, Those pure and famous persons on account of their knowledge (theoretical and practical), who serve thee that art pure for three years, uphold the actions that enable them to acquire knowledge, meditate and perform noble deeds and then develop their bodies with proper use of the water and ghee [clarified butter].
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(यज्ञियानि) कर्मोपासनाज्ञानसम्पादनार्हाणि कर्माणि ॥ = Noble deeds that enable one to have pure acts, meditation and knowledge. (असूदयन्त) संचालयेयुः = Direct (सुजाता: विद्याक्रियासुकौशले सुष्ठु प्रसिद्धाः = Famous in knowledge, arts and industries. (घृतेन) आज्येन उदकेन वा = With Ghee or water.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
No can get true knowledge without the study of the Vedas. Without knowledge, it is not possible for any one to make human life fruitful and to obtain purity. Therefore all men should study the Vedas well.
Translator's Notes
घृतम् इति उदकनाम (निघ० १.१२) घृ-क्षरणदीप्त्योः So it stands for the Ghee or clarified butter also.
Subject of the mantra
Then, why should they read those Vedas?This subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (agne) =scholar, (yat) =those, (śucayaḥ) =being holy, (sujātāḥ)=there are people who are skilled in knowledge and action, excellent and famous, serve those holy people for three years, (ta) =to them, (it) =only, (yajñiyāni)= capable of performing deeds worthy of action, worship and knowledge, (nāmāni) =by name as knowledge and action, (dadhire) =possesses and, (ghṛtena) =by ghee and water, (cit) =also, (tanvaḥ) =to bodies, (asūdayanta) =operate.
English Translation (K.K.V.)
O scholar! Serve those holy persons for three years, who are pure, skilled in knowledge and action, excellent and famous. He is the one who is worthy of doing the deeds worthy of action, worship and knowledge, he holds them in name along with wealth, knowledge and action and also operates the bodies with ghee and water.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
No one can have knowledge without reading the Vedas, without knowledge there is no success and purity in human birth, hence all human beings should always make efforts for this work.
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