ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 72/ मन्त्र 4
आ रोद॑सी बृह॒ती वेवि॑दानाः॒ प्र रु॒द्रिया॑ जभ्रिरे य॒ज्ञिया॑सः। वि॒दन्मर्तो॑ ने॒मधि॑ता चिकि॒त्वान॒ग्निं प॒दे प॑र॒मे त॑स्थि॒वांस॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । रोद॑सी॒ इति॑ । बृ॒ह॒ती इति॑ । वेवि॑दानाः॑ । प्र । रु॒द्रिया॑ । ज॒भ्रि॒रे॒ । य॒ज्ञिया॑सः । वि॒दत् । मर्तः॑ । ने॒मऽधि॑ता । चि॒कि॒त्वान् । अ॒ग्निम् । प॒दे । प॒र॒मे । त॒स्थि॒ऽवांस॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ रोदसी बृहती वेविदानाः प्र रुद्रिया जभ्रिरे यज्ञियासः। विदन्मर्तो नेमधिता चिकित्वानग्निं पदे परमे तस्थिवांसम् ॥
स्वर रहित पद पाठआ। रोदसी इति। बृहती इति। वेविदानाः। प्र। रुद्रिया। जभ्रिरे। यज्ञियासः। विदत्। मर्तः। नेमऽधिता। चिकित्वान्। अग्निम्। पदे। परमे। तस्थिऽवांसम् ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 72; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
वेदानामध्येतारः कीदृशा भवेयुरित्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
ये रुद्रिया वेविदाना यज्ञियासो विद्वांसो बृहती रोदसी आजभ्रिरे सर्वाविद्याविदंस्तेषां सकाशाद् विज्ञानं प्राप्य यश्चिकित्वान् नेमधिता मर्त्तः परमे पदे तस्थिवांसमग्निं प्रविदत् स सुखी जायते ॥ ४ ॥
पदार्थः
(आ) अभितः (रोदसी) भूमिराज्यं विद्याप्रकाशं वा (बृहती) महत्यौ (वेविदानाः) अतिशयेन विज्ञानवन्तः (प्र) प्रकृष्टार्थे (रुद्रिया) शत्रून् दुष्टान् रोदयतां सम्बन्धिनो रुद्राः (जभ्रिरे) भरन्ति पुष्णन्ति (यज्ञियासः) यज्ञसम्पादने योग्याः (विदत्) जानाति (मर्त्तः) मनुष्यः (नेमधिता) नेमाः प्राप्ताः पदार्था धिता हिता येन सः। अत्र सुधितवसुधितनेमधितधिष्वधिषीय च। (अष्टा०७.४.४५) इति छन्दसि निपातनात् क्तप्रत्यये हित्वं प्रतिषिध्यते। सुपां सुलुगिति सोः स्थान आकारादेशः। (चिकित्वान्) ज्ञानवान् (अग्निम्) परमेश्वरम् (पदे) प्राप्तव्ये गुणसमूहे (परमे) सर्वोत्कृष्टे (तस्थिवांसम्) स्थितम् ॥ ४ ॥
भावार्थः
मनुष्यैर्वेदविदां सकाशात् सुनियमेन वेदविद्यां प्राप्य विद्वांसो भूत्वा परमेश्वरं तत्सृष्टं च विज्ञायाऽन्येभ्यो विद्या सततं दातव्याः ॥ ४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
वेदों के पढ़नेवाले किस प्रकार के हों, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
जो (रुद्रिया) दुष्ट शत्रुओं को रुलानेवाले के सम्बन्धी (वेविदानाः) अत्यन्त ज्ञानयुक्त (यज्ञियासः) यज्ञ की सिद्धि करनेवाले विद्वान् लोग (बृहती) बड़े (रोदसी) भूमि राज्य वा विद्या प्रकाश को (आजभ्रिरे) धारण-पोषण करते और समग्र विद्याओं को जानते हैं, उनसे विज्ञान को प्राप्त होकर जो (चिकित्वान्) ज्ञानवान् (नेमधिता) प्राप्त पदार्थ को धारण करनेवाला (मर्त्तः) मनुष्य (परमे) सबसे उत्तम (पदे) प्राप्त करने योग्य मोक्ष पद में (तस्थिवांसम्) स्थित हुए (अग्निम्) परमेश्वर को (प्रविदत्) जानता है, वही सुख भोगता है ॥ ४ ॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि वेद के जाननेवाले विद्वानों से उत्तम नियम द्वारा वेदविद्या को प्राप्त हो विद्वान् होके परमेश्वर तथा उसके रचे हुए जगत् को जान अन्य मनुष्यों के लिये निरन्तर विद्या देवें ॥ ४ ॥
विषय
प्रभु - प्राप्ति के चार साधन
पदार्थ
१. (बृहती) = वृद्धि के कारणभूत, अर्थात् सब प्रकार से विकसित (रोदसी) = द्यावापृथिवी को - मस्तिष्क व शरीर को (आवेविदानाः) = सब प्रकार से प्राप्त करते हुए [विद् लाभे], शरीर और मस्तिष्क दोनों का समुचित विकास करते हुए (रूद्रियाः) = प्राणसाधना करनेवाले [रुद्राः प्राणा तेषु साधवः], (यज्ञियासः) = यज्ञों में उत्तम लोग (अग्निम्) = उस प्रकाशमय प्रभु को (प्रजभ्रिरे) = प्रकर्षेण ग्रहण करनेवाले होते हैं । प्रभु की प्राप्ति के लिए तीन बातें आवश्यक हैं - [क] शरीर व मस्तिष्क का समुचित विकास, [ख] प्राणसाधना, [ग] यज्ञशीलता । २. (चिकित्वान् मर्तः) = समझदार मनुष्य (नेमधिता) = संग्राम के द्वारा [नेम का शब्दार्थ आधा है, संग्राम में सेना दो भागों में बँटी होती है, आधी एक ओर आधी दूसरी ओर, इसलिए ‘नेमधित्’ संग्राम का नाम है] । हमारे हृदयक्षेत्र में भी देव व असुर वृत्तियों का संग्राम चलता ही है । “परमे पदे तस्थिवांसम्” परम पद में स्थित (अग्निम्) = उस परमात्मा को (विदत्) = प्राप्त करता है । एवं, पूर्वार्ध के तीन साधनों के साथ यह संग्राम प्रभु - प्राप्ति का चौथा साधन होता है । इन्हीं वासनाओं के साथ किये जानेवाले संग्राम से प्रभु का पूजन पुराणों में उपदिष्ट है - “ इत्थं युद्धैश्च यज्ञैश्च यजामो विष्णुमीश्वरम् ”।
भावार्थ
भावार्थ - शरीर व मस्तिष्क का समुचित विकास, प्राणसाधना, यज्ञशीलता व वासनाओं के साथ संग्राम - इन चार साधनों से परमेष्ठी प्रभु की प्राप्ति होती है ।
विषय
विषय (भाषा)- वेदों के पढ़नेवाले किस प्रकार के हों, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- ये रुद्रियाः वेविदानाः यज्ञियासः विद्वांसः बृहती रोदसी आ जभ्रिरे सर्वा विद्या विदन् तेषां सकाशात् विज्ञानं प्राप्य यःचिकित्वान् नेमधिता मर्त्तः परमे पदे तस्थिवांसम् अग्निं प्र विदत् स सुखी जायते ॥४॥
पदार्थ
पदार्थः- (ये)=जो, (रुद्रिया) शत्रून् दुष्टान् रोदयतां सम्बन्धिनो रुद्राः= (वेविदानाः) अतिशयेन विज्ञानवन्तः=अतिशय विशेष ज्ञानवाले, (यज्ञियासः) यज्ञसम्पादने योग्याः=यज्ञ को सम्पादित करने के योग्य, (विद्वांसः) =विद्वान्लोग, (बृहती) महत्यौ=बड़ी, (रोदसी) भूमिराज्यं विद्याप्रकाशं वा =पृथिवी के राज्य और विद्या के प्रकाश में, (आ) अभितः=हर ओर से, (जभ्रिरे) भरन्ति पुष्णन्ति=बहुत यशस्वी होते हैं, (सर्वा)=समस्त, (विद्या)= विद्या को, (विदन्)=जानते हुए, (तेषाम्)=उसका, (सकाशात्)=समीपता से, (विज्ञानम्)=विशेष ज्ञान, (प्राप्य)=प्राप्त करके, (यः)=जो, (चिकित्वान्) ज्ञानवान्= ज्ञानवान्, (नेमधिता) नेमाः प्राप्ताः पदार्था धिता हिता येन सः= प्राप्त पदार्थों को हित में धारण करनेवाला, (मर्त्तः) मनुष्यः= मनुष्य, (परमे) सर्वोत्कृष्टे= सर्वोत्कृष्ट, (पदे) प्राप्तव्ये गुणसमूहे=प्राप्त वस्तुओं के गुणों के समूह में, (तस्थिवांसम्) स्थितम्= स्थित, (अग्निम्) परमेश्वरम् =परमेश्वर को, (प्र) प्रकृष्टार्थे =प्रकृष्ट रूप से, (विदत्) जानाति=जानता है, (सः)=वह, (सुखी)= सुखी, (जायते)=होता है॥४॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- मनुष्यों के द्वारा वेद के विद्वानों के सामीप्य से अच्छे नियमपूर्वक वेद विद्या को प्राप्त करके, विद्वान् हो करके परमेश्वर और उसके रचे हुए जगत् को विशेष रूप से जान करके, अन्य मनुष्यों के लिये निरन्तर विद्या का दान करना चाहिए ॥४॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- (ये) जो (रुद्रिया) दुष्ट शत्रुओं को रुलाने से रुद्र कहे जाते हैं, वे (वेविदानाः) अतिशय और विशेष ज्ञानवाले, (यज्ञियासः) यज्ञ को सम्पादित करने के योग्य (विद्वांसः) विद्वान्लोग (बृहती) बड़ी और (रोदसी) पृथिवी के राज्य और विद्या के प्रकाश में (आ) हर ओर से (जभ्रिरे) बहुत पोषित होते हैं। (सर्वा) समस्त (विद्या) विद्या को (विदन्) जानते हुए (तेषाम्) उनका (सकाशात्) समीपता से, [अर्थात् गहनता से], (विज्ञानम्) विशेष ज्ञान (प्राप्य) प्राप्त करके (यः) जो (चिकित्वान्) ज्ञानवान् और (नेमधिता) प्राप्त पदार्थों को हित में धारण करनेवाला (मर्त्तः) मनुष्य (परमे) सर्वोत्कृष्ट, (पदे) प्राप्त वस्तुओं के गुणों के समूह में (तस्थिवांसम्) स्थित (अग्निम्) परमेश्वर को (प्र) प्रकृष्ट रूप से (विदत्) जानता है, (सः) वह (सुखी) सुखी (जायते) होता है॥४॥
संस्कृत भाग
आ । रोद॑सी॒ इति॑ । बृ॒ह॒ती इति॑ । वेवि॑दानाः॑ । प्र । रु॒द्रिया॑ । ज॒भ्रि॒रे॒ । य॒ज्ञिया॑सः । वि॒दत् । मर्तः॑ । ने॒मऽधि॑ता । चि॒कि॒त्वान् । अ॒ग्निम् । प॒दे । प॒र॒मे । त॒स्थि॒ऽवांस॑म् ॥ विषयः- वेदानामध्येतारः कीदृशा भवेयुरित्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैर्वेदविदां सकाशात् सुनियमेन वेदविद्यां प्राप्य विद्वांसो भूत्वा परमेश्वरं तत्सृष्टं च विज्ञायाऽन्येभ्यो विद्या सततं दातव्याः ॥४॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी वेदज्ञ विद्वानांकडून उत्तम नियमाने वेदविद्या प्राप्त करून विद्वान बनावे. परमेश्वर व त्याने निर्माण केलेले जग जाणून इतर माणसांना निरंतर विद्या द्यावी. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Dedicated yajnic souls, lovers of Rudra pranas and devotees of Rudra, lord of justice and dispensation of karma, know, reach and replenish the vast heaven and earth with the fragrance of yajna. Such a man in mortal body finds the objects of his desire and, rising to divine knowledge, attains to the beatific vision of Agni abiding in the highest state of man’s spiritual experience.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should be the scholars of the Vedas is taught in the fourth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
That man becomes happy who having received education from the brave great scholars, experts in performing Yajnas (non-violent sacrifices) or knowers and supporters of the vast heaven and the earth, well-versed in all sciences, becomes a great scholar, possessing the knowledge of all objects and knows God endowed with the most excellent attributes.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(रुद्रिया:) शत्रून् दुष्टान् रोदयतां सम्बन्धिन: = Brave destroyers of wicked enemies. (नेमधिता:) नेमाः प्राप्ताः पदार्था धिताहिता येन अत्र सुधितवसुधितनेमधितधिष्वधिषीय च ( अष्टा० ७. ४. ४५) इति छन्दसि निपातनात् क्तप्रत्यये हित्वं प्रतिषिध्यते । सुपां सुलुक् इति सो: स्थाने प्रकारादेशः । = Possessing the knowledge of all objects. (पदे) प्राप्तव्ये गुणसमूहे = In the attributes that are to be attained. अग्निम् परमेश्वरम् = God. (पद-गतौ गतेत्रिष्वर्येषु प्राप्त्यर्थग्रहणमत्र ) || = Among the three meanings of the third meaning of attainment has been taken here).Tr.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should receive the knowledge of the Vedas from the Vedic Scholars observing well-prescribed rules and regulations and after knowing God and His creation should give that knowledge to others.
Subject of the mantra
What type of readers of the Vedas should be? This has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(ye) =That, (rudriyā) =who is called Rudra by making the evil enemies cry, [vaha]=he, (vevidānāḥ)=one with immense and special knowledge, (yajñiyāsaḥ) =capable of performing yajna, (vidvāṃsaḥ) =among scholars, (bṛhatī) =great and, (rodasī)=In the light of earthly kingdoms and wisdom, (ā) =from every side, (jabhrire) =is very glorious, (sarvā)=all, (vidyā) =to knowledge, (vidan) =knowing, (teṣām) =it’s, (sakāśāt) =by proximity, [arthāt gahanatā se]= that is, in depth, (vijñānam) =special knowledge, (prāpya) =obtaining, (yaḥ) =who, (cikitvān) =knowledgeable and, (nemadhitā)= who possesses the obtained things for his benefit, (marttaḥ) =human, (parame) =quintessential, (pade) =In the set of properties of the obtained objects, (tasthivāṃsam) =situated, (agnim) =to god, (pra)=eminently, (vidat) =knows, (saḥ) =he, (sukhī) =happy,(jāyate) =becomes.
English Translation (K.K.V.)
The one who is called Rudra by making the evil enemies cry, he has immense and special knowledge, is the greatest among the scholars capable of performing the yajna and is very glorious from all sides in the light of knowledge and kingdom of the earth. Acquiring all the knowledge, with its closeness, that is, by acquiring special knowledge in depth, the person who is knowledgeable and who possesses the quintessential obtained things for his benefit, eminently knows the God situated in the group of qualities of the best obtained things, he becomes happy.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Human beings, after acquiring the knowledge of Vedas in depth, becoming learned and knowing God and His created world in a special way, should continuously impart knowledge to other human beings.
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