ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 72/ मन्त्र 6
त्रिः स॒प्त यद्गुह्या॑नि॒ त्वे इत्प॒दावि॑द॒न्निहि॑ता य॒ज्ञिया॑सः। तेभी॑ रक्षन्ते अ॒मृतं॑ स॒जोषाः॑ प॒शूञ्च॑ स्था॒तॄञ्च॒रथं॑ च पाहि ॥
स्वर सहित पद पाठत्रिः । स॒प्त । यत् । गुह्या॑नि । त्वे॒ इति॑ । इत् । प॒दा । अ॒वि॒द॒न् । निऽहि॑ताः । य॒ज्ञिया॑सः । तेभिः॑ । र॒क्ष॒न्ते॒ । अ॒मृत॑म् । स॒ऽजोषाः॑ । प॒शून् । च॒ । स्था॒तॄन् । च॒रथ॑म् । च॒ । पा॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रिः सप्त यद्गुह्यानि त्वे इत्पदाविदन्निहिता यज्ञियासः। तेभी रक्षन्ते अमृतं सजोषाः पशूञ्च स्थातॄञ्चरथं च पाहि ॥
स्वर रहित पद पाठत्रिः। सप्त। यत्। गुह्यानि। त्वे इति। इत्। पदा। अविदन्। निऽहिताः। यज्ञियासः। तेभिः। रक्षन्ते। अमृतम्। सऽजोषाः। पशून्। च। स्थातॄन्। चरथम्। च। पाहि ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 72; मन्त्र » 6
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
एते विद्यया किं विदित्वा कथं वर्त्तन्त इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे मनुष्याः ! यथा त्वे यज्ञियासो यद्यानि निहिता गुह्यानि सप्त पदानि त्रिरविन्दँस्तथा त्वमप्येतानि लभस्व। हे जिज्ञासो ! यथैते सजोषास्तेभिरमृतं पशून् चाद् भृत्यादीन् स्थातॄन् चाद्राज्यरत्नादींश्चरथं जङ्गमं चात् पुत्रकलत्रादीन् रक्षन्ते, तथैतानि त्वामित् पाहि ॥ ६ ॥
पदार्थः
(त्रि) त्रिवारं श्रवणमनननिदिध्यासनैः (सप्त) साङ्गोपाङ्गाँश्चतुरो वेदान् त्रीन् क्रियाकौशलविज्ञानपुरुषार्थान् (यत्) यानि (गुह्यानि) गुप्तानि सम्यक् स्वीकर्त्तव्यानि (त्वे) केचित् (इत्) अपि (पदा) प्राप्तुमर्हाणि (अविदन्) लभन्ते (निहिता) निधिरूपाणि (यज्ञियासः) यज्ञसम्पादने योग्याः (तेभिः) तैः (रक्षन्ते) पालयन्ति (अमृतम्) धर्मार्थकाममोक्षाख्यममृतसुखम् (सजोषाः) समानप्रीतिसेविनः (पशून्) पशुवद्वर्त्तमानान् मूर्खत्वयुक्तान् गवादीन् वा (च) समुच्चये (स्थातॄन्) भूम्यादिस्थावरान् (चरथम्) मनुष्यादिजङ्गमम् (च) समुच्चये (पाहि) रक्ष ॥ ६ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्विदुषामनुकरणं कार्य्यं न किलाऽविदुषाम्। यथा सत्पुरुषाः सत्कार्येषु प्रवर्त्तन्ते दुष्टानि कर्माणि त्यजन्ति तथैव सर्वमनुष्ठेयमिति ॥ ६ ॥
हिन्दी (4)
विषय
इन विद्वानों को विद्या से किसको जान के वर्त्तना योग्य है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे विद्वान् मनुष्यो ! जैसे (त्वे) कोई (यज्ञियासः) यज्ञ के सिद्ध करनेवाले विद्वान् (यत्) जिन (निहिता) स्थापित विद्यादि धनरूप (गुह्यानि) गुप्त वा सब प्रकार स्वीकार करने (पदा) प्राप्त होने योग्य (सप्त) सात अर्थात् चार वेदों और तीन क्रियाकौशल, विज्ञान और पुरुषार्थों को (त्रिः) श्रवण, मनन और विचार करने से (अविदन्) प्राप्त करते हैं, वैसे तुम भी इनको प्राप्त होओ। हे जानने की इच्छा करनेहारे सज्जन ! जैसे (सजोषाः) समान प्रीति के सेवन करनेवाले (तेभिः) उन्हींसे (अमृतम्) धर्म, अर्थ काम और मोक्षरूपी सुख (पशून्) पशुओं के तुल्य मूर्खत्वयुक्त मनुष्य वा पशु आदि (च) और भृत्य आदि (स्थातॄन्) भूमि आदि स्थावर (च) और राज्य रत्नादि सम्पदा (चरथम्) मनुष्य आदि जङ्गम (च) और स्त्री पुत्र आदि की (रक्षन्ते) रक्षा करते हैं, वैसे उनकी तू (इत्) भी (पाहि) रक्षा कर ॥ ६ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिए कि विद्वानों का अनुकरण करें, मूर्खों का नहीं। जैसे सज्जन पुरुष उत्तम कार्यों में प्रवृत्त होते और दुष्ट कर्मों का त्याग कर देते हैं, वैसा ही सब मनुष्य करें ॥ ६ ॥
विषय
[सात गुणा तीन] इक्कीस यज्ञ
पदार्थ
१. हे (अग्ने) = सब उन्नतियों के साधक प्रभो ! आप (क्षितीनाम्) = मनुष्यों के (वयुनानि) = प्रज्ञानों व कर्मों को [ऋ० ५/४८/२ पर द०] (विद्वान्) = जानते हुए (शुरुधः) = [क्षुद्रूपस्य शोकस्य रोधयित्रीरिषः - सा०] भूखरूपी शोक को दूर करनेवाले अन्नों को (आनुषक्) = निरन्तर (जीवसे) = जीवन के लिए (विधाः) = विशेषरूप से धारण करते१. (अग्ने) = परमात्मन् ! (यत्) = जो (त्रिः सप्त) = तीन गुणा सात - सात पाक यज्ञ, सात हविर्यज्ञ तथा सात सोमयज्ञ - इस प्रकार कुल इक्कीस (गुह्यानि) = अत्यन्त रहस्यमय (पदा) = यज्ञ हैं [पद्यते गम्यते स्वर्ग एभिः] वे (त्वे इत्) = आपमें ही (निहिता) = निहित हैं, उनके आधार आप ही हैं - “अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च” - सर्वव्यापक [अह व्याप्तौ] प्रभु ही सब यज्ञों के भोक्ता और प्रभु हैं । ‘ये त्रिषप्ताः०’ इन अथर्वशब्दों में मनुष्य के २१ बलों का उल्लेख हैं । ये इक्कीस यज्ञ उन सब बलों को उत्पन्न व विकसित करनेवाले हैं । इन यज्ञों का लाभ मनुष्य के ज्ञान का पूर्णतया विषय नहीं बनता । देखने में तो अग्नि में डाले गये घृत व अन्य पदार्थ नष्ट - से प्रतीत होते हैं । इस प्रकार ये यज्ञ कुछ रहस्यमय - से ही हैं । २. (यज्ञियासः) = यज्ञिय वृत्तिवाले धार्मिक लोग उन यज्ञों को (अविदन्) = जानते हैं व उनका अनुष्ठान करते हैं । वस्तुतः इन यज्ञों का निर्देश प्रभु ने ब्रह्म [वेद] में किया है । इन यज्ञों को करके हम प्रभु की ही प्रतिष्ठा कर रहे होते हैं - “तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्” [गीता ३/१५] । ३. (तेभिः) = इन यज्ञों से (सजोषाः) = [सजोषसः] प्रीतिपूर्वक यज्ञों का सेवन करनेवाले ये यज्ञीय लोग (अमृतम्) = नीरोगता का (रक्षन्ते) = रक्षण करते हैं । “मुञ्चामि त्वा हविषा जीवनाय कमज्ञातयक्ष्मादुत राजयक्ष्मात्” प्रभु कहते हैं कि अग्निहोत्र में डाली गई हवि के द्वारा मैं तुझे सब ज्ञात और अज्ञात रोगों से मुक्त कराता हूँ । ४. प्रभु कहते हैं कि हे जीव ! तू इन यज्ञों के द्वारा (पशून् च) = गौ आदि पशुओं को (स्थातॄन्) = स्थावर वृक्षादि को (चरथं च) = और (पशु) = व्यतिरिक्त अन्य गतिशील प्राणियों को (पाहि) = सुरक्षित कर । यज्ञ से सारा हैं । प्रभु हमारे कर्मों और प्रज्ञानों को जानते हुए उनके अनुसार ही हमें अन्न प्राप्त कराते हैं, जिनका प्रयोग करते हुए हम अभाव के कष्ट से ऊपर उठकर जीवन को उन्नत करने में समर्थ होते हैं । २. हे प्रभो ! (अन्तः) = अन्तः स्थित हुए - हुए आप (देवयानान् अध्वनः) = देवताओं से चलने योग्य मार्गों को (विद्वान्) = जानते हुए (अतन्द्रः) = आलस्यशून्य, (दूतः) = उन मार्गों का सन्देश देनेवाले (अभवः) = होते हैं । हृदयस्थरूपेण वे प्रभु हमें निरन्तर उत्तम मार्गों का ज्ञान दे रहे हैं । इस प्रेरणारूप कार्य में प्रभु कभी आलस्य व प्रमाद नहीं करते । वे प्रभु हमें इन मार्गों का ज्ञान देते हुए, मार्गस्थ व्यक्तियों के लिए (हविः वाट्) = हवि को प्राप्त कराते हैं । इन व्यक्तियों के लिए प्रभुकृपा से यज्ञीय पदार्थों की कभी कमी नहीं रहती ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभुकृपा से हमें उत्तम अन्न प्राप्त होते हैं । प्रभु हमें देवयान - मार्गों का उपदेश करते हैं और हमें हविर्द्रव्य प्राप्त कराते हैं ।
विषय
परमेश्वर, गुरु, राजा, आत्मा का वर्णन ।
भावार्थ
( यज्ञियासः ) सर्वोपास्य परमेश्वर की उपासना में कुशल पुरुष ( यत् ) जिन ( त्रिः सप्त ) २१ ( पदा ) ज्ञान करने योग्य (गुह्यानि) गुहा अर्थात् बुद्धि से साक्षात् करने योग्य तत्वों का ( अविदन् ) साक्षात् ज्ञान करते हैं वे सब ( त्वे इत् निहिता ) तुझ में ही स्थित हैं । ( तेभिः ) उन इक्कीसों के द्वारा ( सजोषाः ) समान आश्रय पर स्थित, समान रूप से एक ही को सेवन या प्रेम करने वाले मित्र के समान प्रेम से ( अमृतं ) अमृत, आत्मतत्व की ( रक्षन्ते ) रक्षा करते हैं । हे प्रभो ! तू विद्वान्जन (पशून्) पशुओं के समान मूर्ख जनों को और (स्थातॄन) स्थावर वृक्ष और भूमि आदि लोकों को और ( चरथम् च ) अन्य समस्त जंगम प्राणिसमूह को ( पाहि ) पालन कर । राजा के पक्ष में—( यज्ञियासः ) प्रजापालक राजा या राष्ट्र के उपकारी जन रहस्यमय २१ अधिकार पदों को जानें । वे सब राजा के ही आश्रय पर स्थित हैं। वे सब समान रूप से राजा की रक्षा करें। और राजा राष्ट्र में गौ आदि पशुओं, वृक्ष, ओषधि आदि स्थावरों और अन्य वन के जन्तुओं की भी रक्षा करे । अध्यात्म में—शरीर के घटक २१ सों तत्व तुझ आत्मा में आश्रित हैं। उन द्वारा ही आत्मा की रक्षा करते हैं । वह आत्मा (पशून्) ज्ञानेन्द्रियों को, (स्थातन्) कर्मेन्द्रियों को और ( चरथं ) देह की रक्षा करें । अथवा—विद्वान् लोग (गुह्यानि) चित्त में धारण करने योग्य ( सप्त ) चार वेद और तीन क्रिया, विज्ञान और उद्योग इन सातों को (त्रिः) श्रवण, मनन निदिध्यासन द्वारा धारण करें। उनसे अमृत, मोक्ष सुख को तथा पशु, भृत्य, स्थावर, चर आदि सम्पदा को प्राप्त करें और रक्षा करें ( महर्षि दयानन्द ) ।
टिप्पणी
त्रिः सप्त — ७ पाकयज्ञ, ७ हविर्यज्ञ और ७ सोमयज्ञ ( सा० ) विशेष विवरण देखो अथर्ववेद ( १ । १ । १ ) ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पराशर ऋषिः॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, २, ५, ६, ९ विराट् त्रिष्टुप्। ४, १० त्रिष्टुप् । ७ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ८ भुरिक् पंक्तिः ।
विषय
विषय (भाषा)- इन विद्वानों को विद्या से किसको जान के व्यवहार करना चाहिए, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे मनुष्याः ! यथा त्वे यज्ञियासः यत् यानि निहिता गुह्यानि सप्त पदानि त्रिः अविन्दन् तथा त्वम् अपि एतानि लभस्व। हे जिज्ञासः ! यथा एते सजोषाः तेभिः अमृतं पशून् च आत् भृत्यादीन् स्थातॄन् च आत् राज्यरत्नादीन् चरथं जङ्गमं च आत् पुत्रकलत्रादीन् रक्षन्ते, तथा एतानि त्वाम् इत् पाहि ॥६॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (मनुष्याः)= मनुष्यों ! (यथा)=जैसे, (त्वे) केचित् =कोई, (यज्ञियासः) यज्ञसम्पादने योग्याः= यज्ञ सम्पादन के योग्य, (यत्) यानि=जो, (निहिता) निधिरूपाणि=निधि रूप में, (गुह्यानि) गुप्तानि सम्यक् स्वीकर्त्तव्यानि=अच्छे प्रकार से अपने गुप्त कर्त्तव्य हैं, (सप्त) साङ्गोपाङ्गाँश्चतुरो वेदान् त्रीन् क्रियाकौशलविज्ञानपुरुषार्थान्=अङ् और उपाङ्गों सहित चार वेद और तीन क्रिया, कौशल और विज्ञान के पुरुषार्थ हैं, ये (पदानि) प्राप्तुमर्हाणि=प्राप्त किये जाने योग्य हैं, (त्रि) त्रिवारं श्रवणमनननिदिध्यासनैः=तीन बार सुनने, मनन करने और निदिध्यासन के द्वारा, (अविदन्) लभन्ते=प्राप्त होते हैं, (तथा)=वैसे ही, (त्वम्)=तुम, (अपि)=भी, (एतानि)=इन्हें, (लभस्व)=प्राप्त कीजिये, हे (जिज्ञासः)= जिज्ञासु! (यथा)=जैसे, (एते)=ये, (सजोषाः) समानप्रीतिसेविनः= समान रूप से प्रेम पूर्वक सेवा किये जाने योग्य हैं, (तेभिः) तैः=उनके द्वारा, (अमृतम्) धर्मार्थकाममोक्षाख्यममृतसुखम्= धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष नाम के अमरता प्राप्त करनेवाले सुख को, (पशून्) पशुवद्वर्त्तमानान् मूर्खत्वयुक्तान् गवादीन् वा=पशु के समान मूर्खता युक्त अथवा गाय आदि के, (च) समुच्चये=और, (आत्)=उसके बाद, (भृत्यादीन्)=सेवकों आदि के, (स्थातॄन्) भूम्यादिस्थावरान्=भूमि आदि अचल वस्तुओं के, (च) समुच्चये=और, (आत्)=उसके बाद, (राज्यरत्नादीन्)=राज्य और रत्न आदि के, (चरथम्) मनुष्यादिजङ्गमम्=मनुष्य आदि गतिशील, (च) समुच्चये=और, (आत्)=उसके बाद, (पुत्रकलत्रादीन्)=पुत्र, पत्नी आदि की, (रक्षन्ते) पालयन्ति=रक्षा करते हैं, (तथा)=वैसे ही, (एतानि)=इनकी, (त्वाम्)=तुम्हारे द्वारा, (इत्) अपि=भी, (पाहि) रक्ष=रक्षा की जानी चाहिए॥६॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों के द्वारा विद्वानों का अनुकरण करना चाहिए, अविद्वानों का नहीं। जैसे सज्जन पुरुष उत्तम कार्यों में प्रवृत्त होते और दुष्ट कर्मों का त्याग कर देते हैं, वैसा ही सबको कार्यान्वित करना चाहिए॥६॥
विशेष
अनुवादक की टिप्पणी- (१)- पुरुषार्थ- ऋग्वेद के मन्त्र संख्या ०१.७२.०१ में वैदिक शास्त्रों के अनुसार धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष नाम के चार पुरुषार्थों को स्पष्ट किया गया है। (२)-अङ्ग- वेद के स्वाध्याय में सहायक विद्यायें अङ्ग कहलाती हैं, इनके क्रम हैं- (१) शिक्षा, (२) कल्प, (३) व्याकरण, (४) निरुक्त (५) छन्द (६) ज्योतिष। इनमें प्रत्येक की अपनी निजी विशेषता है। (३)-उपाङ- वेद के ६ उपांग न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्वमीमांसा तथा उत्तरमीमांसा हैं।
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (मनुष्याः) मनुष्यों ! (यथा) जैसे (त्वे) कोई (यज्ञियासः) यज्ञ सम्पादन के योग्य है, (यत्) जो (निहिता) निधि रूप में (गुह्यानि) अच्छे प्रकार से अपने गुप्त कर्त्तव्य हैं, (सप्त) अङ्ग और उपाङ्गों सहित चार वेद और तीन क्रिया, कौशल और विज्ञान के पुरुषार्थ हैं, ये (पदानि) प्राप्त किये जाने योग्य हैं। (त्रि) तीन बार सुनने, मनन करने और निदिध्यासन के द्वारा (अविदन्) प्राप्त होते हैं। (तथा) वैसे ही (त्वम्) तुम (अपि) भी (एतानि) इन्हें (लभस्व) प्राप्त कीजिये। हे (जिज्ञासः) जिज्ञासु! (यथा) जैसे, (एते) ये, (सजोषाः) समान रूप से प्रेम पूर्वक सेवा किये जाने योग्य हैं, (तेभिः) उनके द्वारा (अमृतम्) धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष नाम के अमरता प्राप्त करनेवाले [सुख को प्राप्त करते हैं और] (पशून्) पशु के समान मूर्खता युक्त अथवा गाय आदि के [व्यवहार का त्याग करते हैं] (च) और (आत्) उसके बाद (भृत्यादीन्) सेवकों आदि की और (स्थातॄन्) भूमि आदि अचल वस्तुओं की (च) और (आत्) उसके बाद (राज्यरत्नादीन्) राज्य और रत्न आदि की [और] (चरथम्) मनुष्य आदि गतिशील [प्राणियों की] (च) और (आत्) उसके बाद (पुत्रकलत्रादीन्) पुत्र, पत्नी आदि की (रक्षन्ते) रक्षा करते हैं। (तथा) वैसे ही (एतानि) इनकी (त्वाम्) तुम्हारे द्वारा (इत्) भी (पाहि) रक्षा की जानी चाहिए॥६॥
संस्कृत भाग
त्रिः । स॒प्त । यत् । गुह्या॑नि । त्वे॒ इति॑ । इत् । प॒दा । अ॒वि॒द॒न् । निऽहि॑ताः । य॒ज्ञिया॑सः । तेभिः॑ । र॒क्ष॒न्ते॒ । अ॒मृत॑म् । स॒ऽजोषाः॑ । प॒शून् । च॒ । स्था॒तॄन् । च॒रथ॑म् । च॒ । पा॒हि॒ ॥ विषयः- एते विद्यया किं विदित्वा कथं वर्त्तन्त इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्विदुषामनुकरणं कार्य्यं न किलाऽविदुषाम्। यथा सत्पुरुषाः सत्कार्येषु प्रवर्त्तन्ते दुष्टानि कर्माणि त्यजन्ति तथैव सर्वमनुष्ठेयमिति ॥६॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी विद्वानांचे अनुकरण करावे, मूर्खांचे नव्हे. जसे सज्जन पुरुष उत्तम कार्यात प्रवृत्त होतात व दुष्ट कर्मांचा त्याग करतात, तसेच सर्व माणसांनी करावे. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Agni, lord of life and positive living, those devotees established in you and dedicated to yajna, who know and achieve the thrice-seven deep and secret stages of yajna and abide therein, protect and preserve thereby the immortal wealth of life. Lovers of yajna and the yajnics, protect and promote all movable and immovable wealth of life, humans and animals all.$(According to Swami Dayanand the thrice-seven are: reading, reflection and meditation across the four Vedas, knowledge, practice and industry through Dharma, universal values of life, Artha, economic and social achievement, Kama, love and emotional fulfilment, and Moksha, ultimate freedom. Another way to explain it is to refer to the threefold meaning of yajna: reverence and worship, socialisation and social service, and charity including protection and replenishment of the environment, and then apply those to the seven stages of existence: Bhuh, Bhuvah, Swah, Maha, Janah, Tapah and Satyam. This mystique of yajna is described in detail in the Brahmana works on the Veda and briefly in the Upanishads, Katha and Chhandogya specially.)
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What knowledge do they gain and how do they behave is taught further in the sixth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men, as those respectable persons experts in performing Yajnas, know the worth-preserving four Vedas with their Angas and Upangas (branches and subsidiaries) along with arts and industries, sciences and labour with three means of hearing, reflection and meditation find out their secrets, in the same way, you should also do. O seeker after truth, as these wisemen loving and serving one another, protect the nectar of Dharma (righteousness) Artha [wealth] Kama [noble desires] and Moksha [enancipation] animals and ignorant persons, immovable property like kingdom and jewels etc. and men, wives and children etc. so you should also do.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(त्रिः) त्रिवारं श्रवण मनननिदिध्यासनैः = Thrice i. e. by hearing, reflecting and meditating (सप्त) सांगोपांगान् चतुरो वेदान् त्रीन् क्रियाकौशलविज्ञानपुरुषार्थान = Seven-Four Vedas with their branches & subasididries along with arts and industries, science and exertion. (अमृतम् ) धर्मार्थकाम मोक्षाख्यम् अमृतसुखम् = The happiness of nectar in the form of Dharma [righteousness] Artha [wealth] Kama [noble desire] and Moksha [enancipation or liberation]. (गुह्यानि) गुप्तानि-सम्यक् स्वीकर्तव्यानि = Worth preserving or accepting.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should always imitate the learned persons and not the ignorant. As good men are always engaged in doing noble deeds and giving up ignoble acts, others also should do like wise.
Subject of the mantra
These scholars have been advised in this mantra that they should practice their knowledge with utmost care.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (manuṣyāḥ)=humans, (yathā) =like, (tve) =any, (yajñiyāsaḥ) =is capable of performing yajna,, (yat) =that, (nihitā) =as a treasure, (guhyāni)=are secret duties to be performed well, (sapta) =who perform their secret duties well in the form of treasure, the four Vedas with their aṅga and upāṅga and the three activities, the efforts of skill and special knowledge, these, (padāni) =are attainable, (tri)= are achieved thrice by listening, meditating and nididhyāsana, (avidan) =are attained, (tathā) =similarly, (tvam) =you, (api) =also, (etāni) =to these, (labhasva) =obtain, He=O! (jijñāsaḥ) =inqusutive, (yathā) =like, (ete) =these, (sajoṣāḥ) =deserve to be served with equal love, (tebhiḥ) =by them, (amṛtam) =through them one attains the immortal happiness of dharma(righteousness), artha(wealth), kāma(desir) and mokṣa(alvation), [sukha ko prāpta karate haiṃ aura]=attain happiness and, (paśūn) =Stupid like an animal or like a cow etc., [vyavahāra kā tyāga karate haiṃ] =gives up the of cow etc., (ca) =and, (āt) =afterwards, (bhṛtyādīn) =of servants etc. and, (sthātṝn)=of immovable things like land etc., (ca) =and, (āt) =afterwards, (rājyaratnādīn) =of the kingdom and gems etc., [aura]=and, (caratham) =humns etc. movable, [prāṇiyoṃ kī]=of living beings, (ca) =and, (āt)=afterwards, (putrakalatrādīn) =of son wife etc. ,(rakṣante) =protect, (tathā) =similarly, (etāni) =of these, (tvām) =by you, (it) =as well, (pāhi)=should be protected.
English Translation (K.K.V.)
O humans! Just as a yajna is capable of being performed, those who perform their secret duties well in the form of treasure, the four Vedas with their aṅga and upāṅga and the three activities, the efforts of skill and special knowledge, these are capable of being attained. These are achieved thrice by listening, meditating and nididhyāsana. Similarly, you should also attain these. O inquisitive! As these are equally capable of being served with love, through them one attains the immortal happiness of dharma(righteousness), artha(wealth), kāma(desir) and mokṣa(alvation) and gives up the foolish behaviour like that of an animal or like a cow etc.; and after that they protect servants etc.; and immovable things like land etc.; and after that the kingdom and gems etc.; and human beings etc. movable creatures and after that son, wife etc. Similarly, they should be protected by you as well.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Humans should follow scholars, not non scholars. Just as a gentleman indulges in good deeds and gives up evil deeds, everyone should do the same.
TRANSLATOR’S NOTES-
(1)- Puruṣārtha - According to the Vedic scriptures, in the mantra number 01.72.01 of Rigveda, four Puruṣārtha(human object) are dharma(righteousness), artha(wealth), kāma(desir) and mokṣa(alvation) have been explained. (2)- Aṅga - The sciences helpful in self-study of Vedas are called Aṅga, their order is - (1) Shiksha, (2) Kalpa, (3) Grammar, (4) Nirukta (5) Chhanda (6) Astrology. Each of these has its own personal characteristics. (3)-Upānga- The 6 Upānga of Veda are Nyaya, Vaisheshika, Sankhya, Yoga, Purvamimamsa and Uttarmimamsa.
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