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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 72 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 72/ मन्त्र 8
    ऋषिः - पराशरः शाक्तः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    स्वा॒ध्यो॑ दि॒व आ स॒प्त य॒ह्वी रा॒यो दुरो॒ व्यृ॑त॒ज्ञा अ॑जानन्। वि॒दद्गव्यं॑ स॒रमा॑ दृ॒ळ्हमू॒र्वं येना॒ नु कं॒ मानु॑षी॒ भोज॑ते॒ विट् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्वु॒ऽआध्यः॑ । दि॒वः । आ । स॒प्त । य॒ह्वीः । रा॒यः । दुरः॑ । वि । ऋ॒त॒ऽज्ञाः । अ॒जा॒न॒न् । वि॒दत् । गव्य॑म् । स॒रमा॑ । दृ॒ळ्हम् । ऊ॒र्वम् । येन॑ । नु । क॒म् । मानु॑षी । भोज॑ते । विट् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वाध्यो दिव आ सप्त यह्वी रायो दुरो व्यृतज्ञा अजानन्। विदद्गव्यं सरमा दृळ्हमूर्वं येना नु कं मानुषी भोजते विट् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुऽआध्यः। दिवः। आ। सप्त। यह्वीः। रायः। दुरः। वि। ऋतऽज्ञाः। अजानन्। विदत्। गव्यम्। सरमा। दृळ्हम्। ऊर्वम्। येन। नु। कम्। मानुषी। भोजते। विट् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 72; मन्त्र » 8
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ते ब्रह्मविदो विद्वांसः कीदृशा भवन्तीत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यूयं यथा स्वाध्य ऋतज्ञा विद्वांसो येन यह्वीः सप्त दिवो रायो दुरी व्यजानन् येन सरमा मानुषी विट् दृढमूर्वं गव्यं सुखं नु विदत्कं भोजते तथैव तत्कर्म सदा सेवध्वम् ॥ ८ ॥

    पदार्थः

    (स्वाध्यः) ये सुष्ठु सम्यक् सर्वेषां कल्याणं ध्यायन्ति ते (दिवः) पूर्वोक्तविद्याः (आ) अभितः (सप्त) एतत्संख्याकान् (यह्वीः) महतीः (रायः) अनुत्तमानि धनानि (दुरः) दूर्वन्ति सर्वाणि दुःखानि यैस्तान् विद्याप्रवेशस्थान् द्वारान् (वि) विशेषार्थे (ऋतज्ञाः) सत्यविदः (अजानन्) जानन्ति (विदत्) लभते (गव्यम्) गोभ्यः पशुभ्य इन्द्रियेभ्यो वा हितम् (सरमा) या सरान् बोधान् मिमीते सा (दृढम्) (उर्वम्) दोषहिंसनम् (येन) पुरुषार्थेन (नु) शीघ्रम् (कम्) सुखम् (मानुषी) मानुषाणामियम् (भोजते) भुङ्क्ते। अत्र विकरणव्यत्ययेन शप्। (विट्) प्रजाः ॥ ८ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्याणामियं योग्यतास्ति यादृशीं विद्यां स्वयं प्राप्नुयात् तादृशीं सर्वेभ्यो नैष्कापट्येन सदा दद्युः यतो मनुष्याः सर्वाणि सुखानि लभेरन् ॥ ८ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे ब्रह्म के जाननेवाले विद्वान् कैसे होते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे-जैसे (स्वाध्यः) सबके कल्याण को यथावत् विचारने (ऋतज्ञाः) सत्य के जाननेवाले (येन) जिस पुरुषार्थ से (यह्वीः) बड़ी (बड़ी) (सप्त) सात संख्यावाली (दिवः) सूर्य के तुल्य (पूर्वोक्त मन्त्र ६ में वर्णित) विद्या (रायः) अति उत्तम धनों के (दुरः) प्रवेश के स्थानों को (व्यजानन्) जानते तथा (सरमा) बोध के समान करनेवाली (मानुषी) मनुष्यों की (विट्) प्रजा (दृढम्) दृढ़ निश्चल (ऊर्वम्) दोषों का नाश (गव्यम्) पशु और इन्द्रियों के हितकारक सुख को (नु) शीघ्र (विदत्) प्राप्त होती है, वैसे इस कर्म का सदा सेवन करो ॥ ८ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को यह योग्य है कि जैसे विद्या को पढ़े, वैसी ही कपट-छल छो़ड़ कर सब मनुष्यों को पढ़ावें और उपदेश करें, जिससे मनुष्य लोग सब सुखों को प्राप्त हो ॥ ८ ॥

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    विषय

    ज्ञानेश्वर्य और सात महान् द्वार

    पदार्थ

    १. (स्वाध्यः) = उत्तम ध्यानवाले (ऋतज्ञाः) = सत्य ज्ञानवाले पुरुष (दिवः रायः) = ज्ञान - प्रकाशरूप ऐश्वर्य के (सप्त) = सात (यह्वीः) = महान् (दुरः) = द्वारों को “कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्” (वि आ अजानन्) = विशेष रूप से, पूर्णतया जानते हैं । ध्यान व सत्य ज्ञान को अपनानेवाले पुरुष, कानों, नासिका - छिद्रों, आँखों व मुख को ज्ञान - प्राप्ति के सात महान् द्वारों के रूप में जानते हैं । इन द्वारों से वे ज्ञानप्राप्ति के लिए यत्नशील होते हैं । २. इन ध्यानी व ज्ञानी पुरुषों की (सरमा) = [सरान् बोधान् मिमीते इति सरमा - द०] बुद्धि (गव्यम्) = इन्द्रियों सम्बन्धी (दुळ्हम) = प्रबल (ऊर्वम्) = दोष - हिंसन को (विदत्) = प्राप्त करती है । ये बुद्धि के द्वारा इन्द्रियों को निर्दोष बनाते हैं । वस्तुतः बुद्धि का व्यापार ठीक होने पर मन व इन्द्रियाँ भी निर्दोष बनी रहती हैं । बुद्धि मन का शासन करती है, मन इन्द्रियों का । इस प्रकार इन्द्रियाँ विषय - पंक में फँसने से बची रहती हैं । ३. यह इन्द्रियदोष - हिंसन जीवन में उस उत्तम स्थिति को पैदा करता है (येन) = जिससे (मानुषी विट्) = यह मानुषी प्रजा (नु) = अब, इस जीवन में (कम्) = सुख को (भोजते) = भोगती है । वस्तुतः इन्द्रियों की निर्दोषता ही सुख है - (सु) = उत्तम (ख) = इन्द्रियाँ । इन्द्रियों का दूषित होना ही दुःख का कारण बनता है । बुद्धि इनके दोष का हिंसन करती है, इसलिए बुद्धि को शुद्ध रखने के लिए ही हमारा प्रयत्न होना चाहिए ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हमारी इन्द्रियाँ ज्ञानरूप ऐश्वर्य का द्वार बनें । बुद्धि की शुद्धता इन्द्रियों के दोषों को दूर करे और हमारे जीवनों को सुखमय बनाये ।

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    विषय

    सप्त प्राणमय देह और सप्ताङ्ग राज्य ।

    भावार्थ

    ( स्वाध्यः ) उत्तम रीति से आत्मचिंतन करनेवाले ( ऋतज्ञाः ) सत्य वेदज्ञान के वेत्तापुरुष, (सप्त यह्वीः) सातों इन बड़े प्राणों को (दिवः) मूर्धा स्थान के, या ज्ञान प्रकाशक ( रायः ) ज्ञानेश्वर्य के ( द्वारः ) सात द्वार ही ( वि अजाजन् ) जानते हैं । ( सरमा ) बोध कराने वाली बुद्धि ( गव्यम् ) इन्द्रियों में होनेवाले (दृढ़म् ) दृढ़ (ऊर्वं) बल को ( विदत् ) प्राप्त करती है जिससे ( मानुषी विट् ) मानुष प्रजा ( कं नु भोजते) सुख प्राप्त करती है। राष्ट्रपक्ष में—( यह्वीः सप्त दुरः ) स्वामी, अमात्य, राष्ट्र, दुर्ग, सुहृत् कोष और बल इन सातों को विद्वान् जन ऐश्वर्य का द्वार जानें। ( सरमा ) अपने आक्रमण से शत्रु का नाश करनेवाली सेना ( गव्यम् दृढम् ऊर्वम् ) पृथ्वी के शासन करने वाले प्रबल शत्रुनाशक बल को प्राप्त करती है और ( येन ) जिससे मानुष प्रजा भी सुख और अनैश्वर्य का भोग करती है । अथवा—( सप्त यह्वीः ) पूर्वोक्त ७ अथवा वेद और उनके ६ अंग इन सातों को वेदज्ञ पुरुष ऐश्वर्यो का द्वार जानते हैं । ज्ञानवती बुद्धि या विद्वान् जन इनसे ही ( गव्यं ) वेदवाणियों का प्रबल ज्ञान प्राप्त करती और मनुष्य नाना सुख भोगते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पराशर ऋषिः॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, २, ५, ६, ९ विराट् त्रिष्टुप्। ४, १० त्रिष्टुप् । ७ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ८ भुरिक् पंक्तिः ।

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर वे ब्रह्म के जाननेवाले विद्वान् कैसे होते हैं, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे मनुष्याः ! यूयं यथा स्वाध्यः ऋतज्ञाः विद्वांसः येन यह्वीःसप्त दिवः {आ} रायः दुरः वि अजानन् येन सरमा मानुषी विट् दृढम् ऊर्वं गव्यं सुखं नु विदत् कं भोजते तथा एव तत् कर्म सदा सेवध्वम् ॥८॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (मनुष्याः)= मनुष्यों ! (यूयम्)=तुम सब, (यथा)=जैसे, (स्वाध्यः) ये सुष्ठु सम्यक् सर्वेषां कल्याणं ध्यायन्ति ते=सबके कल्याण के लिये उत्तम रूप से विचार ध्यान रखनेवाले, (ऋतज्ञाः) सत्यविदः=सत्य जाननेवाले, (विद्वांसः)=विद्वान् लोग, (येन)=जिस, (यह्वीः) महतीः=बड़ी, (सप्त) एतत्संख्याकान्=सात, {आ} अभितः=हर ओर से, (दिवः) पूर्वोक्तविद्याः= इस सूक्त मन्त्र ६ में वर्णित अङ्ग और उपाङ्गों सहित चार वेद और तीन क्रिया, कौशल और विज्ञान के पुरुषार्थ हैं, (रायः) अनुत्तमानि धनानि=श्रेष्ठ धन, (दुरः) दूर्वन्ति सर्वाणि दुःखानि यैस्तान् विद्याप्रवेशस्थान् द्वारान्=समस्त दुःखों को दूर करनेवाले विद्या के प्रवेश स्थान के द्वार को, (वि) विशेषार्थे=विशेष रूप से, (अजानन्) जानन्ति=जानते हैं, (येन) पुरुषार्थेन=पुरुषार्थ से, (सरमा) या सरान् बोधान् मिमीते सा=बुद्धि, (मानुषी) मानुषाणामियम्=मनुष्यों की यह, (विट्) प्रजाः=सन्तान, (दृढम्) =दृढ, (उर्वम्) दोषहिंसनम् = दोष और हिंसा को, (गव्यम्) गोभ्यः पशुभ्य इन्द्रियेभ्यो वा हितम्= गाय आदि पशुओं या इन्द्रियों के हित और, (सुखम्)= सुख को, (नु) शीघ्रम्=शीघ्र, (विदत्) लभते=प्राप्त करता है, (कम्) सुखम्=सुख का, (भोजते) भुङ्क्ते=भोग करता है, (तथा)=वैसे, (एव)=ही, (तत्)=उस , (कर्म)= कर्म का, (सदा)=सदा, (सेवध्वम्)=अनुसरण कीजिये ॥८॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों की यह योग्यता है कि जैसी विद्या को स्वयं प्राप्त करते हैं, वैसी ही कपट के विना सदा अन्यों को देवें, क्योंकि मनुष्य लोग सब सुखों को प्राप्त करें ॥८॥

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणी- इस मन्त्र में इसी सूक्त के मन्त्र ६ से ‘सप्त’ पद की अनुवृत्ति आती है।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (मनुष्याः) मनुष्यों ! (यूयम्) तुम सब (यथा) जैसे (स्वाध्यः) सबके कल्याण के लिये उत्तम रूप से विचार ध्यान रखनेवाले, (ऋतज्ञाः) सत्य जाननेवाले (विद्वांसः) विद्वान् लोग (येन) जिन (यह्वीः) बड़ी (सप्त) सात, (दिवः) मन्त्र ६ में वर्णित अङ्ग और उपाङ्गों सहित चार वेद और तीन क्रिया, कौशल और विज्ञान के पुरुषार्थ और (रायः) धन, {आ} हर ओर से (दुरः) समस्त दुःखों को दूर करनेवाले विद्या के प्रवेश स्थान के द्वार को (वि) विशेष रूप से, (अजानन्) जानते हैं। (येन) पुरुषार्थ से (सरमा) बुद्धि और (मानुषी) मनुष्यों की यह (विट्) सन्तान (दृढम्) दृढ, (उर्वम्) दोष और हिंसा को (गव्यम्) गाय आदि पशुओं या इन्द्रियों के हित और (सुखम्) सुख को (नु) शीघ्र (विदत्) प्राप्त करता है। (कम्) सुख का (भोजते) भोग करता है, (तथा) वैसे (एव) ही (तत्) उस (कर्म) कर्म का (सदा) सदा (सेवध्वम्) अनुसरण कीजिये ॥८॥

    संस्कृत भाग

    स्वु॒ऽआध्यः॑ । दि॒वः । आ । स॒प्त । य॒ह्वीः । रा॒यः । दुरः॑ । वि । ऋ॒त॒ऽज्ञाः । अ॒जा॒न॒न् । वि॒दत् । गव्य॑म् । स॒रमा॑ । दृ॒ळ्हम् । ऊ॒र्वम् । येन॑ । नु । क॒म् । मानु॑षी । भोज॑ते । विट् ॥ विषयः- पुनस्ते ब्रह्मविदो विद्वांसः कीदृशा भवन्तीत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्याणामियं योग्यतास्ति यादृशीं विद्यां स्वयं प्राप्नुयात् तादृशीं सर्वेभ्यो नैष्कापट्येन सदा दद्युः यतो मनुष्याः सर्वाणि सुखानि लभेरन् ॥८॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी जशी विद्या शिकावी तसे छळ-कपटाचा त्याग करून सर्व माणसांना शिकवावे व उपदेश करावा. ज्यामुळे माणसांना सर्व सुख मिळावे. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Men of noble thought and action, who know the seven streams of light flowing from heaven, who know the paths of Divine truth and spiritual evolution, who know the celestial doors of existential wealth and divine bliss, realise and bring to the earth all good for the cows, for the mind and senses, message of knowledge, strength and constancy, and immunity against suffering, virtues by which the human community enjoys peace, health and comfort in life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How are the knowers of God is taught further in the 8th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men as thinkers in their hearts of the welfare of all and knowers of truth, know the seven great doors to the wealth of wisdom which destroy all miseries and by which the learned people get abiding happiness that dispels defects and is beneficial to the senses and the cattle etc., you should also do such noble deeds.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (स्वाध्यः) ये सुष्टु सम्यक् सर्वेषां कल्याणं ध्यायन्ति ते । = Those who always think of or have at heart the welfare of all. (ध्यै चिन्तायाम् ) Tr. (दिवः) विद्याः = Knowledge or wisdom. (दुर:) दुर्वन्ति सर्वाणि दुःखानि यैः तान् विद्याप्रवेश स्थानद्वारान् = The doors of knowledge which destroy all miseries. (दृ-विदारणे) (सरमा) या सरान् बोधान् मिमीते सा = That which acquires knowledge-learned. (ऊर्वम्) दोषहिंसनम् = Destruction or removal of defects and evils. उर्वी हिंसायाम् – (Tr.)

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the duty of men to impart good knowledge to all with honesty and strainght-forwardness without deceit of any kind, so that all may enjoy happiness.

    Translator's Notes

    There is no mention of the Ganga and other rivers in the Mantra, yet Sayanacharya takes यह्वीः = Great इति महन्नाम as seven rivers and Wilson translates it as seven pure rivers. By seven is meant here 5 senses of preception, mind and intellect which are doors to the wealth of wisdom or knowledge. सरमा is derived from सॄ गतौ Among three meanings of गबि the first meaning of knowledge has been taken by Rishi Dayananda. माङ-माने

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    Subject of the mantra

    Then, what kind of scholars are those who know Brahma (The Supreme Spirit)?This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (manuṣyāḥ) =humans, (yūyam) =all of you, (yathā) =like, (svādhyaḥ)=one who has the best thoughts for the welfare of all, (ṛtajñāḥ)= those who know the truth, (vidvāṃsaḥ) =scholars, (yena) =which, (yahvīḥ) =great, (sapta) =truthful, (divaḥ) mentioned in mantra 6, the knowledge and wealth of efforts of skill and special knowledge, (rāyaḥ) =wealth, {ā} =from all sides, (duraḥ) =the door to the entry point of knowledge that removes all sorrows, (vi) =specially, (ajānan) =know, (yena) =through efforts, (saramā) =wisdom and, (mānuṣī) =of humans this, (viṭ) =children,(dṛḍham) =firm, (urvam)= blame and violence, (gavyam)=the interests of animals like cows or the senses and, (sukham) =to happiness, (nu) =quickly, (vidat) =obtains and, (kam) =of happiness, (bhojate) =enjoys, (tathā+eva) =similarly, (tat) =that, (karma) =of deed, (sadā) =always, (sevadhvam)=follow.

    English Translation (K.K.V.)

    O humans! Like all of you, well thought and the learned people who know the truth for the welfare of all, the four Vedas and the three activities, the four Vedas with their aṅga and upāṅga mentioned in mantra 6, the knowledge and wealth of efforts of skill and special knowledge, from every side. You especially know the door to the entry point of knowledge that removes all sorrows. Through efforts, this progeny of human beings quickly attains the intelligence, welfare and happiness of animals like cows or the senses, of strong vices and violence and One who enjoys happiness. Always follow that action in the same way.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is silent vocal simile as a figurative in this mantra.It is the ability of humans to always impart the same knowledge to others without any deceit as they have received, so that human beings can attain all the happiness.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    In this mantra, the word 'sapta' is followed from mantra 6 of the same hymn.

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