ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 72/ मन्त्र 7
वि॒द्वाँ अ॑ग्ने व॒युना॑नि क्षिती॒नां व्या॑नु॒षक्छु॒रुधो॑ जी॒वसे॑ धाः। अ॒न्त॒र्वि॒द्वाँ अध्व॑नो देव॒याना॒नत॑न्द्रो दू॒तो अ॑भवो हवि॒र्वाट् ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒द्वान् । अ॒ग्ने॒ । व॒युना॑नि । क्षि॒ती॒नाम् । वि । आ॒नु॒षक् । शु॒रुधः॑ । जी॒वसे॑ । धाः॒ । अ॒न्तः॒ऽवि॒द्वान् । अध्व॑नः । दे॒व॒ऽयाना॑न् । अत॑न्द्रः । दू॒तः । अ॒भ॒वः॒ । ह॒विः॒ऽवाट् ॥
स्वर रहित मन्त्र
विद्वाँ अग्ने वयुनानि क्षितीनां व्यानुषक्छुरुधो जीवसे धाः। अन्तर्विद्वाँ अध्वनो देवयानानतन्द्रो दूतो अभवो हविर्वाट् ॥
स्वर रहित पद पाठविद्वान्। अग्ने। वयुनानि। क्षितीनाम्। वि। आनुषक्। शुरुधः। जीवसे। धाः। अन्तःऽविद्वान्। अध्वनः। देवऽयानान्। अतन्द्रः। दूतः। अभवः। हविःऽवाट् ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 72; मन्त्र » 7
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनरीश्वरगुणा उपदिश्यन्ते ॥
अन्वयः
हे अग्ने ! यतोऽन्तर्विद्वान् बहिर्विद्वानतन्द्रो हविर्वाट् त्वं क्षितीनां वयुनानि जीवसे शुरुध आनुषक् वि धाः, देवयानानध्वनो दूतोऽभवस्तस्मात्पूज्यतमोऽसि ॥ ७ ॥
पदार्थः
(विद्वान्) यः सर्वं वेत्ति (अग्ने) सर्वसुखप्रापक ! (वयुनानि) विज्ञानानि (क्षितीनाम्) मनुष्याणाम् (वि) विविधार्थे (आनुषक्) आनुकूल्ये (शुरुधः) प्राप्तव्यानि सुखानि (जीवसे) जीवितुम् (धाः) दधासि (अन्तर्विद्वान्) योऽन्तर्वेत्ति सः (अध्वनः) मार्गान् (देवयानान्) यान्ति यैस्तान् देवानाम् विदुषां गमनाधिकरणान् (अतन्द्रः) अनलसः (दूतः) विज्ञापकः (अभवः) भवति (हविर्वाट्) विज्ञानादिप्रापकः ॥ ७ ॥
भावार्थः
अत्र श्लेषालङ्कारः। यः प्रार्थितो सेवित ईश्वरो विद्वान् वा धर्म्यमार्गं विज्ञानं प्रदर्श्य सुखानि ददाति स कथं न सेवनीयः ॥ ७ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर भी अगले मन्त्र में ईश्वर के गुणों का उपदेश किया है ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) सब सुख प्राप्त करनेवाले जगदीश्वर ! जिस कारण (अन्तर्विद्वान्) अन्तःकरण के सब व्यवहारों को तथा (विद्वान्) बाहर के कार्य्यों को जाननेवाले (अतन्द्रः) आलस्यरहित (हविर्वाट्) विज्ञान आदि प्राप्त करानेवाले आप (क्षितीनाम्) मनुष्यों के (वयुनानि) विज्ञानों को (जीवसे) जीवन के लिये (शुरुधः) प्राप्त करने योग्य सुखों को (आनुषक्) अनुकूलतापूर्वक (वि धाः) विविध प्रकार से धारण करते हो, वेदद्वारा (देवयानान्) विद्वानों के जाने-आनेवाले (अध्वनः) मार्गों के (दूतः) विज्ञान करानेवाले (अभवः) होते हो, इससे आपका सत्कार हम लोग अवश्य करें ॥ ७ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जो प्रार्थना वा सेवन किया हुआ ईश्वर धर्ममार्ग वा विज्ञान को दिखाकर सुखों को देता है, उनका सेवन अवश्य करना चाहिये ॥ ७ ॥
विषय
देवयानमार्ग का उपदेश
पदार्थ
१. हे (अग्ने) = सब उन्नतियों के साधक प्रभो ! आप (क्षितीनाम्) = मनुष्यों के (वयुनानि) = प्रज्ञानों व कर्मों को [ऋ० ५/४८/२ पर द०] (विद्वान्) = जानते हुए (शुरुधः) = [क्षुद्रूपस्य शोकस्य रोधयित्रीरिषः - सा०] भूखरूपी शोक को दूर करनेवाले अन्नों को (आनुषक्) = निरन्तर (जीवसे) = जीवन के लिए (विधाः) = विशेषरूप से धारण करते हैं । प्रभु हमारे कर्मों और प्रज्ञानों को जानते हुए उनके अनुसार ही हमें अन्न प्राप्त कराते हैं, जिनका प्रयोग करते हुए हम अभाव के कष्ट से ऊपर उठकर जीवन को उन्नत करने में समर्थ होते हैं । २. हे प्रभो ! (अन्तः) = अन्तः स्थित हुए - हुए आप (देवयानान् अध्वनः) = देवताओं से चलने योग्य मार्गों को (विद्वान्) = जानते हुए (अतन्द्रः) = आलस्यशून्य, (दूतः) = उन मार्गों का सन्देश देनेवाले (अभवः) = होते हैं । हृदयस्थरूपेण वे प्रभु हमें निरन्तर उत्तम मार्गों का ज्ञान दे रहे हैं । इस प्रेरणारूप कार्य में प्रभु कभी आलस्य व प्रमाद नहीं करते । वे प्रभु हमें इन मार्गों का ज्ञान देते हुए, मार्गस्थ व्यक्तियों के लिए (हविः वाट्) = हवि को प्राप्त कराते हैं । इन व्यक्तियों के लिए प्रभुकृपा से यज्ञीय पदार्थों की कभी कमी नहीं रहती ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभुकृपा से हमें उत्तम अन्न प्राप्त होते हैं । प्रभु हमें देवयान - मार्गों का उपदेश करते हैं और हमें हविर्द्रव्य प्राप्त कराते हैं ।
विषय
उनके कर्तव्य ।
भावार्थ
( अग्ने ) विद्वन् ! राजन् ! ईश्वर ! तू ( वयुनानि ) समस्त जानने योग्य पदार्थों और ज्ञानों को ( विद्वान् ) जानता हुआ ( क्षितीनां ) प्रजाओं के ( जीवसे ) जीवन धारण करने के लिए ( शुरुधः ) दुःखदायी अज्ञान, क्षुधा, पीड़ा आदि रोकने वाले अन्नादि ओषधियों और उपयों को (आनुषक्) निरन्तर उनके स्वभाव के अनुकूल ( विधाः ) विविध प्रकार से रचता और प्रदान करता है । और ( अन्तः ) भीतर आत्मा के समस्त तत्वों को ( विद्वान् ) जानता हुआ हे विद्वन् ! तू ( अतन्द्रः ) आलस्य रहित होकर ( देवयानान् अध्वनः ) विद्वान् पुरुषों से आचरण करने योग्य मोक्ष मार्गों को (विधाः) नाना प्रकार से विधान या उपदेश कर । तू ( हविःर्वाट् ) ग्राह्य ज्ञानों को प्राप्त करानेहारा, ( दूतः ) सबको ज्ञानवाणी का संदेश सुनानेहारा ( अभवः ) हो । राजा के पक्ष में—अग्रणी नायक सब कुछ ज्ञातव्यों को जानता हुआ प्रजाओं की नाना विपत्तियों के रोकनेवाले अन्न संग्रह आदि उपायों को प्रजाओं के जीवन के लिए करे । ( अन्तः ) राष्ट्र के भीतर बड़े ( देवयानान् अध्वनः ) राजमार्गों को बनवावे, आलस्य रहित होकर ( हविर्वाट् ) आज्ञाएँ देता हुआ ( दूतः ) शत्रु संतापक एवं दुष्टों का दण्डकारी हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पराशर ऋषिः॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, २, ५, ६, ९ विराट् त्रिष्टुप्। ४, १० त्रिष्टुप् । ७ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ८ भुरिक् पंक्तिः ।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे अग्ने ! यतः अन्तः विद्वान् बहिः विद्वान् अतन्द्रः हविर्वाट् त्वं क्षितीनां वयुनानि जीवसे शुरुध आनुषक् वि धाः, देवयानान् अध्वनः दूतः अभवः तस्मात् पूज्यतमः असि ॥७॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (अग्ने) सर्वसुखप्रापक=समस्त सुखों के प्राप्त करानेवाले ! (यतः)=क्योंकि, (अन्तर्विद्वान्) योऽन्तर्वेत्ति सः=अन्दर से जाननेवाले और, (बहिः)=बाहर से, (विद्वान्) यः सर्वं वेत्ति=सबके जाननेवाले, (अतन्द्रः) अनलसः= सक्रिय, (हविर्वाट्) विज्ञानादिप्रापकः=विशेष ज्ञान आदि को प्राप्त करानेवाले, (त्वम्) =तुम, (क्षितीनाम्) मनुष्याणाम्=मनुष्यों के, (वयुनानि) विज्ञानानि=विशेष ज्ञानों को, (जीवसे) जीवितुम् =जीवित करने के लिये, (शुरुधः) प्राप्तव्यानि सुखानि=प्राप्त सुखों को, (आनुषक्) आनुकूल्ये=अनुकूलता में, (वि) विविधार्थे= विविध रूप से, (धाः) दधासि=धारण करते हो, (देवयानान्) यान्ति यैस्तान् देवानाम् विदुषां गमनाधिकरणान्= देवों और विद्वानों के जाने के, (अध्वनः) मार्गान्=मार्गों के, (दूतः) विज्ञापकः=विशेष रूप से ज्ञान करानेवाला, (अभवः) भवति=होता है, (तस्मात्)=इसलिये, (पूज्यतमः)=सबसे अधिक पूज्य, (असि)=हो ॥७॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जो प्रार्थना और पूजा किया हुआ ईश्वर या विद्वान् है, वह धर्म के मार्ग से विशेष ज्ञान को प्रदर्शित करते हुए सुखों को देता है, वह क्यों न पूजनीय होवे ॥७॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (अग्ने) समस्त सुखों के प्राप्त करानेवाले ! (यतः) क्योंकि (अन्तर्विद्वान्) अन्दर से जाननेवाले और (बहिः) बाहर से (विद्वान्) सबके जाननेवाले, (अतन्द्रः) सक्रिय और (हविर्वाट्) विशेष ज्ञान आदि को प्राप्त करानेवाले (त्वम्) तुम (क्षितीनाम्) मनुष्यों के (वयुनानि) विशेष ज्ञानों को और (जीवसे) जीवित करने के लिये (शुरुधः) प्राप्त सुखों को (आनुषक्) अनुकूलता से, (वि) विविध रूप से (धाः) धारण करते हो। (देवयानान्) देवों और विद्वानों के जाने के (अध्वनः) मार्गों का (दूतः) विशेष रूप से ज्ञान करानेवाला (अभवः) होता है, (तस्मात्) इसलिये [तुम] (पूज्यतमः) सबसे अधिक पूज्य (असि) हो ॥७॥
संस्कृत भाग
वि॒द्वान् । अ॒ग्ने॒ । व॒युना॑नि । क्षि॒ती॒नाम् । वि । आ॒नु॒षक् । शु॒रुधः॑ । जी॒वसे॑ । धाः॒ । अ॒न्तः॒ऽवि॒द्वान् । अध्व॑नः । दे॒व॒ऽयाना॑न् । अत॑न्द्रः । दू॒तः । अ॒भ॒वः॒ । ह॒विः॒ऽवाट् ॥ विषयः- पुनरीश्वरगुणा उपदिश्यन्ते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र श्लेषालङ्कारः। यः प्रार्थितो सेवित ईश्वरो विद्वान् वा धर्म्यमार्गं विज्ञानं प्रदर्श्य सुखानि ददाति स कथं न सेवनीयः ॥७॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. जो प्रार्थनेद्वारे सेवन केलेला ईश्वर धर्ममार्ग व विज्ञान यांनी सुख देतो. त्याचे अवश्य सेवन केले पाहिजे. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Agni, lord omniscient of the sciences and ways of the world, you continuously provide nourishing foods, healing herbs and means of comfort for the life and sustenance of the children of the earth. You know the divine paths of spiritual evolution between earth and heaven. Pray, be the harbinger of holy fragrance of Divinity like a prophet for us without relent or delay.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of God are taught in the seventh Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O God, Source of all true happiness, Thou being Omniscient, knowest all within [the minds of the beings] and without [their acts] and ever diligent and watchful, providest for the sustenance of men grief-alleviating good knowledge and food which give them happiness. Thou teachest [through the Vedas] the right path which all enlightened persons should follow. Therefore Thou art worthy of adoration.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(क्युनानि) विज्ञानानि = Knowledge and act. (शुरुधु:) प्राप्तव्यानि सुखानि = The happiness which should be attained or grief-alleviating. =(दूतः ) विज्ञापकः = Teacher or Giver of knowledge. (हविर्वाद) विज्ञानादिप्रपाकः = Causing the attainment of knowledge etc.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
(1) Why should not God be adored who when prayed to shows the path of righeousness and thus gives happiness? (2) Why should not a wise learned man be respected who when served gives knowledge and thus makes people happy ?
Translator's Notes
Therefore Rishi Dayananda Sarasvati has interpreted as विज्ञानानि दूतः is derived from दु-गतौ म्वा गतेस्त्रयोऽर्थाः गमनं प्राप्तिश्च । Taking the first and the third meaning Rishi Dayananda has interpreted it as fa: It is noteworthy that both Prof. Wilson and Griffith translate the epithets used for Agni in the Mantra which are applicable only to an Omniscient Supreme Being. For instance, Prof: Wilson translates विद्वां अग्नेक्युनानि क्षितीनाम् "Agni who art cognizant of all things to be known."(Wilson).अन्तर्विद्वां अध्वनो देवयानान् is translated by him as “Knowing the paths between (earth and heaven) by which they (gods) travel. (Wilson). Are such epithets applicable for the material fire ? Griffith's translation of the first stanza is "Thou", Agni knower of men's works. The third stanza is translated by him as "Thou deeply skilled in paths of Gods." (Griffith).Though the word a as usual has been wrongly translated by both as "gods" or "Gods" which Rishi Dayananda has interpreted as विद्वांस: on the authority of विद्वांसो हि देवा: (शतपथ ३.७.३.९०) and other passages in the Brahmanas, their own translation clearly shows that Agni stands here for an Omniscient Supreme Being and not for inaminate material fire. Rishi Dayananda Sarasvati's interpretation is therefore correct.
Subject of the mantra
Then again, the qualities of God have been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (agne) =provider of all happiness, (yataḥ) =because, (antarvidvān)=those who know from within and, (bahiḥ) =from outside, (vidvān) =knowing all, (atandraḥ) =active and, (havirvāṭ those who get acquire special knowledge etc., (tvam) =you, (kṣitīnām) =of humans, (vayunāni) =to special knowledges and, (jīvase) =to bring alive, (śurudhaḥ) =to obtained delights, (ānuṣak) =favourably, (vi) =in varios ways, (dhāḥ) =possess, (devayānān) = of departure of deities and scholars, (adhvanaḥ) =of paths, (dūtaḥ) =who imparts knowledge specially, (abhavaḥ) =is, (tasmāt) =therefore, [tuma]=you, (pūjyatamaḥ) =are the most reverend.
English Translation (K.K.V.)
O the provider of all happiness! Because you, the knower from within and the knower of all from outside, the one who enables people to acquire special knowledge etc., in order to further revive the special knowledge of human beings, you adopt the happiness received in various ways as per your suitability. He is especially the one, who imparts knowledge about the paths of deities and scholars, hence you are the most reverend.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is paronomasia as a figurative in this mantra. The one who is prayed to and worshiped by is God or a learned man, who bestows happiness by displaying special knowledge through the path of righteousness, why should not He be reverend?
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