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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 128 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 128/ मन्त्र 3
    ऋषिः - विहव्यः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    मयि॑ दे॒वा द्रवि॑ण॒मा य॑जन्तां॒ मय्या॒शीर॑स्तु॒ मयि॑ दे॒वहू॑तिः । दैव्या॒ होता॑रो वनुषन्त॒ पूर्वेऽरि॑ष्टाः स्याम त॒न्वा॑ सु॒वीरा॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मयि॑ । दे॒वाः । द्रवि॑णम् । आ । य॒ज॒न्ता॒म् । मयि॑ । आ॒ऽशीः । अ॒स्तु॒ । मयि॑ । दे॒वऽहू॑तिः । दैव्याः॑ । होता॑रः । व॒नु॒ष॒न्त॒ । पूर्वे॑ । अरि॑ष्टाः । स्या॒म । त॒न्वा॑ । सु॒ऽवीराः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मयि देवा द्रविणमा यजन्तां मय्याशीरस्तु मयि देवहूतिः । दैव्या होतारो वनुषन्त पूर्वेऽरिष्टाः स्याम तन्वा सुवीरा: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मयि । देवाः । द्रविणम् । आ । यजन्ताम् । मयि । आऽशीः । अस्तु । मयि । देवऽहूतिः । दैव्याः । होतारः । वनुषन्त । पूर्वे । अरिष्टाः । स्याम । तन्वा । सुऽवीराः ॥ १०.१२८.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 128; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (देवाः) यज्ञ में आये हुए विद्वान् जन (मयि) मेरे-निमित्त (द्रविणम्) ज्ञानधन को (आ यजन्ताम्) भलीभाँति प्राप्त करावें (मयि) मेरे निमित्त (आशीः) कामपूर्ति (अस्तु) हो (मयि) मेरे निमित्त (देवहूतिः) देवों का सत्कार फल हो (पूर्वे दैव्याः-होतारः) श्रेष्ठ, परमात्मदेवसम्बन्धी उपदेश देनेवाले अध्यात्मयज्ञ के साधक (वनुषन्त) मुझे सम्भागी बनावें-स्वीकार करें (तन्वा-अरिष्टाः) यज्ञसेवन द्वारा शरीर से दुःखतापरहित (सुवीराः) सुष्ठु प्राणवाले (स्याम) होवें ॥३॥

    भावार्थ

    यज्ञ में आये विद्वान् के द्वारा ज्ञान धन को प्राप्त करना चाहिये और अपनी कामनाओं की पूर्ति के साधन जानना चाहिये, परमात्मसम्बन्धी उपदेश के अपने को भागी बनावें तथा शरीर से स्वस्थ अच्छे प्राणवाले यज्ञ के सेवन से होना चाहिये ॥३॥

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    विषय

    देव द्रविणों की प्राप्ति

    पदार्थ

    [१] (देवाः) = सब सूर्य आदि देव (मयि) = मेरे में (द्रविणं आयजन्ताम्) = अपने-अपने ऐश्वर्य का संगमन करें। सूर्य से मुझे चक्षुशक्ति प्राप्त हो तो चन्द्रमा से मुझे मानस आह्लाद की प्राप्ति हो । (मयि आशीः अस्तुः) = मेरे में सदा इन देव द्रविणों को प्राप्त करने की कामना हो और (मयि देवहूतिः) = मेरे में देवों का पुकारना व देवों का आराधन रहे। मैं उस देवाधिदेव प्रभु को सदा पुकारनेवाला होऊँ। [२] मेरी सब इन्द्रियाँ (दैव्याः) = उस देव की ओर चलनेवाली (होतार:) = जीवन-यज्ञ के चलानेवाली व दानपूर्वक अदनवाली हों। ये सब (पूर्वे) = पालन व पूरण करनेवाली होती हुई (वनुषन्त) = उस प्रभु का सम्भजन करनेवाली हों । अथवा देव द्रविणों का विजय करनेवाली बनें। [३] हम (तन्वा) = अपने इस शरीर से (अरिष्टा:) = अहिंसित हों, रोगों से आक्रान्त न हों। और (सुवीराः) = उत्तम वीर बनें। वस्तुतः रोगों से अनतिक्रान्त वीर पुरुष प्रभु का सच्चा आराधक है, इसने प्रभु से दिये शरीर का समुचित समादर किया है।

    भावार्थ

    भावार्थ- मैं सूर्यादि देवों से दृष्टि शक्ति आदि द्रविणों को प्राप्त करूँ। शरीर को अहिंसित व वीर बनाता हुआ प्रभु का पूजन करूँ ।

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    विषय

    उसकी शुभ कामना और आज्ञाएं।

    भावार्थ

    (मयि देवाः) मुझ में समस्त देवगण, विद्वान् और दानशील प्रजा जन (द्रविणम् आ यजन्ताम्) ऐश्वर्य प्रदान करें। (मयि आशीः अस्तु) मेरे में आशानुरूप फल की प्राप्ति हो। (देव-हूतिः मयि विद्वानों का सत्योपदेश दान, एवं यज्ञ मेरे में स्थिर हों। (पूर्व) पूर्व वृद्ध और (देव्याः होतारः) देव प्रभु सम्बन्धी तथा मनुष्यों के हितकारी, (होतारः) ज्ञान देने वाले जन (वनुषन्तः) ज्ञान प्रदान करें और हम (सु-वीराः) उत्तम वीर होकर (तन्वा अरिष्टाः स्याम) के शरीर से सुखी, अहिंसित, अपीड़ित होवें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्विहव्यः॥ विश्वेदेवा देवताः। छन्द:—१, ३ विराट् त्रिष्टुप्। २, ५, ८ त्रिष्टुप्। ३, ६ निचृत् त्रिष्टुप्। ७ भुरिक् त्रिष्टुप्। ९ पादनिचृज्जगती॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (देवाः-मयि द्रविणम्-आ यजन्ताम्) विद्वांसो यज्ञे समागताः-मयि ‘निमित्तसप्तमी’ मन्निमित्तं ज्ञानधनम्-“द्रविणम्-विद्यादिकम्” [यजु० ८।६० दयानन्दः] आसङ्गमयन्तु समन्तात् प्रापयन्तु (मयि-आशीः-अस्तु) मन्निमित्तं कामपूर्तिर्भवतु, (मयि देवहूतिः) मन्निमित्तं देवानां सत्कारफलं भवतु (पूर्वे दैव्याः-होतारः-वनुषन्त) देवं परमात्मानं ये खलूपदिशन्ति ते पूर्वे श्रेष्ठाः दैव्या होतारोऽध्यात्मयज्ञसाधकाः मां सम्भजन्तु-स्वीकुर्वन्तु ‘वनधातोर्विकरणत्रयमत्र उ सिप्-शप्’ (तन्वा-अरिष्टाः-सुवीराः स्याम) यज्ञसेवनेन खलु वयं शरीरेण दुःखतापरहिता सुष्ठु प्राणवन्तश्च भवेम “प्राणा वै दशवीराः” [श० १२।८।१।२२] ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    May the Devas bless me with power, wealth and excellence. Let there be all good wishes, benediction and self fulfilment for me at yajna. May the invocation and homage to Devas bring me success. May veteran and divine yajakas in nature and humanity join me in our yajna for the general good. May we be blest with health of body, mind and spirit, be inviolable and blest with noble progeny.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    यज्ञात आलेल्या विद्वानांद्वारे ज्ञानधन प्राप्त केले पाहिजे व आपल्या कामनापूर्तीचे साधन जाणले पाहिजे. परमात्म्यासंबंधी उपदेशात आपल्याला सहभागी बनवावे व यज्ञाचे सेवन करून शरीर स्वस्थ चांगले प्राणवान बनविले पाहिजे. ॥३॥

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