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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 128 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 128/ मन्त्र 4
    ऋषिः - विहव्यः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    मह्यं॑ यजन्तु॒ मम॒ यानि॑ ह॒व्याकू॑तिः स॒त्या मन॑सो मे अस्तु । एनो॒ मा नि गां॑ कत॒मच्च॒नाहं विश्वे॑ देवासो॒ अधि॑ वोचता नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मह्य॑म् । य॒ज॒न्तु॒ । मम॑ । यानि॑ । ह॒व्या । आऽकू॑तिः । स॒त्या । मन॑सः । मे॒ । अ॒स्तु॒ । एनः॑ । मा । नि । गा॒म् । क॒त॒मत् । च॒न । अ॒हम् । विश्वे॑ । दे॒वा॒सः॒ । अधि॑ । वो॒च॒त॒ । नः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मह्यं यजन्तु मम यानि हव्याकूतिः सत्या मनसो मे अस्तु । एनो मा नि गां कतमच्चनाहं विश्वे देवासो अधि वोचता नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मह्यम् । यजन्तु । मम । यानि । हव्या । आऽकूतिः । सत्या । मनसः । मे । अस्तु । एनः । मा । नि । गाम् । कतमत् । चन । अहम् । विश्वे । देवासः । अधि । वोचत । नः ॥ १०.१२८.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 128; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (मम) मेरी (यानि) जो (हव्या) ग्राह्य-ग्रहण करने योग्य वस्तुएँ (मह्यम्) मेरे लिये श्रेष्ठता से (यजन्त) सङ्गत हों-प्राप्त हों (मे) मेरे (मनसः) मन की (आकूतिः) सङ्कल्पधारा (सत्या-अस्तु) यथार्थ या सफल हो (एनः कतमत्-चन) पाप को कदापि (मा निगाम्) मत प्राप्त होऊँ (विश्वे देवासः) सब विद्वान् (नः) हमें मुझे (अधि वोचत) अपने अधीन उपदेश करें ॥४॥

    भावार्थ

    मानव के पास जितनी वस्तुएँ हों, आवश्यक हों, अनावश्यक संग्रह न हो, सङ्कल्पधारा यथार्थ सफलवाली अयथार्थ निष्फल न उठे, पाप को कभी न करे, विद्वानों से उपदेश सुनते रहना चाहिये ॥४॥

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    विषय

    सत्या आकूति [सत्य अभिप्राय]

    पदार्थ

    [१] (मम यानि हव्या) = मेरी जो पुकारने योग्य चीजें हैं, जो आराधनीय वस्तुएँ हैं, वे (मह्यं यजन्तु) = मेरे लिए प्राप्त हों। सब देव उन्हें मेरे लिए देनेवाले हों। (मे मनसः) = मेरे मन की (आकूतिः) = कामना व संकल्प (सत्या अस्तु) = सत्य हो । मैं कभी अशुभ कामना करनेवाला न होऊँ । [२] इस प्रकार अशुभ कामनाओं से ऊपर उठकर (अहम्) = मैं (कतमच्चन) = किसी भी (एनः) = पाप को (मा निगाम्) = मत प्राप्त होऊँ । अशुभ का मजा ही अशुभ को पैदा करता है, शुभकामनाओंवाला होकर मैं शुभ को ही प्राप्त करूँ । (विश्वे देवासः) = सब देव व विद्वान् (नः) = हमें (अधिवोचता) = आधिक्येन उपदेश देनेवाले हों। उनके उपदेशों से सत्प्रेरणा को प्राप्त करता हुआ मैं कभी भी पाप की ओर न झुकूँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रार्थित वस्तुओं को प्राप्त करें। हमारे संकल्प सत्य हों। हम निष्पाप हों । देवों से सत्प्रेरणा को सदा प्राप्त करें।

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    विषय

    ६ प्रकार की विशाल शक्तियां। उनके सदृश ६ प्रकार के पूज्य व्यक्ति। अध्यात्म में—षड्धातु।

    भावार्थ

    (मह्यम् यजन्तु) लोग मेरे लिये यज्ञ करें। मेरी शुभ कामना से प्रभु की प्रार्थना करें, वे मुझे उत्तम ऐश्वर्य, ज्ञान और यश, बल प्रदान करें। (यानि हव्या) जितने ग्रहण करने योग्य, उत्तम अन्न, ज्ञान आदि पदार्थ हैं वे मुझे प्राप्त हों। (मे मनसः आकूतिः सत्या अस्तु) मेरे मन की संकल्प शक्ति सत्य हो। (अहम्) मैं (कतमत् चन एनः मा निगाम्) किसी भी पाप की ओर न जाऊं। (विश्वे देवासः) समस्त ज्ञानी पुरुष (नः अधि वोचत) हमें उपदेश करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्विहव्यः॥ विश्वेदेवा देवताः। छन्द:—१, ३ विराट् त्रिष्टुप्। २, ५, ८ त्रिष्टुप्। ३, ६ निचृत् त्रिष्टुप्। ७ भुरिक् त्रिष्टुप्। ९ पादनिचृज्जगती॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (मम यानि हव्या) मम पार्श्वे यानि ग्राह्याणि (मह्यं यजन्तु) मदर्थं श्रेष्ठतया सङ्गतानि भवन्तु (मे मनसः-आकूतिः) मम मनसः सङ्कल्पधारा (सत्या-अस्तु) यथार्था सफला वा भवतु (एनः कतमत्-चन) पापं कदापि (मा नि गाम्) नाहं प्राप्नुयां (विश्वे देवासः नः-अधि वोचत) हे सर्वे विद्वांसः स्वाधीने मामुपदिशत ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    May my havis that I offer in yajna bring me the success I plan. May the thoughts and intentions of my mind be true and fruitful. May I never take to sin or evil whatsoever. O divinities of the world, bless us and say: May all be well with you!

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    मानवाजवळ ज्या वस्तू असतील त्या आवश्यक असाव्यात. अनावश्यक संग्रह नसावा. संकल्पधारा यथार्थ सफल होणारीच असावी. अयथार्थ निष्फल नसावी. पाप कधीही करू नये. विद्वानाकडून उपदेश ऐकत राहावे. ॥४॥

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