ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 128/ मन्त्र 5
देवी॑: षळुर्वीरु॒रु न॑: कृणोत॒ विश्वे॑ देवास इ॒ह वी॑रयध्वम् । मा हा॑स्महि प्र॒जया॒ मा त॒नूभि॒र्मा र॑धाम द्विष॒ते सो॑म राजन् ॥
स्वर सहित पद पाठदेवीः॑ । षट् । उ॒र्वीः॒ । उ॒रु । नः॒ । कृ॒णो॒त॒ । विश्वे॑ । दे॒वा॒सः॒ । इ॒ह । वी॒र॒य॒ध्व॒म् । मा । हा॒स्म॒हि॒ । प्र॒ऽजया॑ । मा । त॒नूभिः॑ । मा । र॒धा॒म॒ । द्वि॒ष॒ते । सो॒म॒ । रा॒ज॒न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
देवी: षळुर्वीरुरु न: कृणोत विश्वे देवास इह वीरयध्वम् । मा हास्महि प्रजया मा तनूभिर्मा रधाम द्विषते सोम राजन् ॥
स्वर रहित पद पाठदेवीः । षट् । उर्वीः । उरु । नः । कृणोत । विश्वे । देवासः । इह । वीरयध्वम् । मा । हास्महि । प्रऽजया । मा । तनूभिः । मा । रधाम । द्विषते । सोम । राजन् ॥ १०.१२८.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 128; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
Acknowledgment
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(षट्) छः वसन्त आदि ऋतुएँ या छः पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, दिन, रात्रि (उर्वीः) महत्त्ववाली (देवीः) दिव्यगुणवाली वस्तुएँ (नः) हमारे लिये (उरु) बहुत अन्न आदि (कृणोत) करें (विश्वे देवासः) सब विद्वान् विद्युत् मेघ आदि (इह वीरयध्वम्) इस राष्ट्र में बल कार्य करो (प्रजया मा हास्महि) सन्तान से त्यक्त रहित हम न होवें (तनूभिः) अङ्गों से रहित न हों (सोम-राजन्) हे उत्पादक सर्वत्र राजमान परमात्मन् ! (द्विषते मा रधाम) हम द्वेष करनेवाले शत्रु के वश में न होवें ॥५॥
भावार्थ
छः वस्तुएँ या पृथिवी जल अग्नि वायु दिन रात बहुत अन्नादिसम्पन्न करनेवाले हों, ऐसा प्रयत्न राष्ट्र के विद्वान् जन करते हैं, मेघादि भी अनुकूल वर्षा कर ऐसा उपचार करते रहें, सन्तान से अपने अङ्गों से फलते-फूलते रहें, शत्रु के वश में भी कभी न आवें, यह यत्न करना चाहिये ॥५॥
विषय
षड् उर्वीः देवी:
पदार्थ
[१] हे (षड्) = छह (उर्वी: देवी:) = विशाल प्रकाशमय प्रभु शक्तियो ! द्युलोक व पृथिवी लोक, दिन व रात तथा जल व ओषधियो ! आप (नः) = हमारे लिए (उरु) = विस्तीर्ण धन को (कृणोत) = करनेवाली होवो। द्युलोक व पृथिवीलोक हमें उत्तम ज्ञान व उत्तम शरीर प्राप्त कराएँ । दिन व रात हमें उद्योगशीलता व अचञ्चलता को प्राप्त कराएँ तथा जल व ओषधियाँ हमें स्वास्थ्य को देनेवाली हों। [२] हे (विश्वे देवासः) = सब देवो ! आप इह यहाँ हमारे शरीर में (वीरयध्वम्) = वीरतापूर्वक आचरण करो। सूर्य हमारी आँख को दूर दृष्टिवाला बनाए, चन्द्रमा हमारे मन को आह्लादयुक्त करे, अग्नि हमारी वाणी को शक्तिशाली बनाए। इस प्रकार सभी देव हमारे शरीरों में उस-उस शक्ति को स्थापित करें। [३] इन सब देवों के कार्य के ठीक होने से हम (प्रजया) = प्रजा से (मा हास्महि) = मत विरहित हों, (मा तनूभिः) = और अपने शरीरों से भी रोगादि के कारण छूट न जाएँ। स्वस्थ शरीरों में दीर्घायुष्यवाले हों। [४] हे सोम (राजन्) = शान्त व हमारे शरीरों के शासक प्रभो ! हम (द्विषते मा रधाम) = शत्रुओं के लिये न सिद्ध हों। वे प्रभु सोम राजा हैं ही। यहाँ इन शब्दों का प्रयोग सोम शक्ति का भी संकेत करता है। यह सोम शक्ति सुरक्षित हुई हुई हमारे शरीर की सब संस्थाओं को व्यवस्थित करती है । इस शक्ति का विनाश शरीर को विकृत कर देता है।
भावार्थ
भावार्थ- हमारे लिए द्युलोक, पृथिवीलोक, दिन-रात व जल ओषधियाँ विशाल धनों को प्राप्त कराएँ। इनके धनों को प्राप्त करके हम सुन्दर स्वस्थ जीवनवाले हों ।
विषय
विद्वानों के कर्त्तव्य प्रभु से प्रार्थना।
भावार्थ
हे (षट् उर्वीः देवीः) छः विशालशक्ति वाली देवियो, आकाश, पृथिवी, दिन, रात्रि आपः और औषधियां इनके सदृश, पिता, माता, भाई भगिनी, आप्त पुरुष, और गृह देवियो ! अध्यात्म में—शिर, पैर, दोनों बाहु, देह में रक्त, और लोम आदि, (नः उरु कृणोत) हमारे धन, बल, सामर्थ्य को बहुत अधिक करें। (विश्वे देवासः) समस्त देव विद्वान्, पुरुष, (इह) इस देश में (वीरयध्वम्) वीर और उपदेष्टा विद्वान् के तुल्य पराक्रम और ज्ञानोपदेश करें। हम (प्रजया मा हास्महि) प्रजा से रहित न हों। (मा तनूभिः) हम देहों सेवा पुत्र-पौत्रादि से रहित न हों। हे (सोम राजन्) सर्वोपरि शासक ! हे विराजमान तेजस्विन्! प्रभो ! हम (द्विपते) प्रीति न करने वाले, शत्रु के (मा रधाम) कभी वश न हों। इति पञ्चदशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्विहव्यः॥ विश्वेदेवा देवताः। छन्द:—१, ३ विराट् त्रिष्टुप्। २, ५, ८ त्रिष्टुप्। ३, ६ निचृत् त्रिष्टुप्। ७ भुरिक् त्रिष्टुप्। ९ पादनिचृज्जगती॥ नवर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(षट्-उर्वी-देवीः) हे षट्सङ्ख्याकाः महत्यो देव्यर्ऋतुरूपाः यद्वा अग्निः पृथिवी आपो वातोहश्च रात्रिः “षण्मोर्वीरंहसस्पान्तु-अग्निश्च पृथिवी चापश्च वाजश्चाहोरात्रिश्च” [श० १।५।१।२२] (नः-उरु कृणोत अस्मभ्यं बहु खल्वन्नादिकं कुरुत (विश्वे देवासः) सर्वे देवा विद्वांसस्तथा मध्यस्थाना विद्युन्मेघादयश्च (इह वीरयध्वम्) अस्मिन् राष्ट्रे बलकार्यं कुरुत (प्रजया मा हास्महि) सन्तत्या पुत्रादिकया न त्यक्ता भवेम “ओहाक् त्यागे” [जुहो०] (तनूभिः-मा) स्वाङ्गैर्न रहिता भवेम (सोम राजन्) के उत्पादक सर्वत्र राजमान परमात्मन् ! (द्विषते मा रधाम) द्वेष्टुः शत्रोः, “षष्ठ्यर्थे चतुर्थी छान्दसी” न वशं गच्छेम “रध्यतिर्वशगमने” [निरु० ६।३२] ॥५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
May six divinities, heaven and earth, day and night, fire and water, through the six seasons of the year do us great favour so that we may rise and progress in power and achievement. O divinities of the world, be brave and great and help us rise to bravery and grandeur. Never deplete us either by loss of health and virility or by loss of progeny. O ruling Soma, lord of peace, light and glory, let us never fall a prey to the forces of hate, jealousy and enmity.
मराठी (1)
भावार्थ
सहा वस्तू पृथिवी, जल, अग्नी, वायू, दिवस-रात्र, खूप अन्न इत्यादी संपन्न करणारे असावेत. असा प्रयत्न राष्ट्राचे विद्वान लोक करतात. मेघ इत्यादीही अनुकूल वृष्टी करून उपचार करणारे असावेत. संतानाने सुखी व संपन्न असावे. शत्रूच्या वशमध्ये कधीही राहता कामा नये. हा यत्न केला पाहिजे. ॥५॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal