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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 128 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 128/ मन्त्र 8
    ऋषिः - विहव्यः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उ॒रु॒व्यचा॑ नो महि॒षः शर्म॑ यंसद॒स्मिन्हवे॑ पुरुहू॒तः पु॑रु॒क्षुः । स न॑: प्र॒जायै॑ हर्यश्व मृळ॒येन्द्र॒ मा नो॑ रीरिषो॒ मा परा॑ दाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒रु॒ऽव्यचाः॑ । नः॒ । म॒हि॒षः । शर्म॑ । यं॒स॒त् । अ॒स्मिन् । हवे॑ । पु॒रु॒ऽहू॒तः । पु॒रु॒ऽक्षुः । सः । नः॒ । प्र॒ऽजायै॑ । ह॒रि॒ऽअ॒श्व॒ । मृ॒ळ॒य॒ । इन्द्र॑ । मा । नः॒ । रि॒रि॒षः॒ । मा । परा॑ । दाः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उरुव्यचा नो महिषः शर्म यंसदस्मिन्हवे पुरुहूतः पुरुक्षुः । स न: प्रजायै हर्यश्व मृळयेन्द्र मा नो रीरिषो मा परा दाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उरुऽव्यचाः । नः । महिषः । शर्म । यंसत् । अस्मिन् । हवे । पुरुऽहूतः । पुरुऽक्षुः । सः । नः । प्रऽजायै । हरिऽअश्व । मृळय । इन्द्र । मा । नः । रिरिषः । मा । परा । दाः ॥ १०.१२८.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 128; मन्त्र » 8
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (उरुव्यचाः) बहुत व्याप्त (महिषः) महान्-अनन्त (पुरुहूतः) बहुत आमन्त्रण करने योग्य (पुरुक्षुः) बहुत अन्न देनेवाला परमात्मा (अस्मिन् हवे) इस यज्ञ में (नः) हमें (शर्म यंसत्) सुख देवे (सः) वह (हर्यश्व) हरणशील व्यापन स्वभाववाले (इन्द्र) परमात्मन् ! (नः) हमें (प्रजायै) प्रजा प्राप्ति के लिए (मृळय) सुखी कर (नः) हमें (मा-रीरिषः) मत पीड़ित कर (मा परादाः) न हमें त्याग ॥८॥

    भावार्थ

    परमात्मा बहुव्यापी अनन्त अनेक प्रकार से आमन्त्रण करने योग्य बहुत अन्नभोग देनेवाला है, वह सन्तानप्राप्ति के द्वारा सुखी करता है, वह न हमें पीड़ा देता है, न त्यागता है, उस ऐसे परमात्मा की स्तुति करनी चाहिए ॥८॥

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    विषय

    प्रभु से रक्षित व अत्यक्त

    पदार्थ

    [१] (उरुव्यचाः) = वेद अनन्त विस्तारवाले, (महिषः) = पूजनीय प्रभु (नः) = हमारे लिए (शर्म यंसत्) = सुख व शरण को दें। (अस्मिन् हवे) = इस जीवन संग्राम में (पुरुहूतः) = वही खूब पुकारे जाने योग्य हैं, वही (पुरुक्षुः) = खूब स्तुति के योग्य हैं [क्षु शब्दे] । [२] (सः) = वे (हर्यश्व) = [हरी अश्वौ यस्य] जिन आपके दिये हुए ये इन्द्रियाश्व हमें लक्ष्य स्थान पर ले जानेवाले हैं, ऐसे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! आप (नः) = हमारी (प्रजायै) = प्रजा के लिए (मृडय) = सुखी करिये। (नः) = हमें (मा रीरिषः) = मत हिंसित करिये। और (मा परा दाः) = हमें शत्रुओं के लिए मत दे डालिए ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु से रक्षित होकर हम संग्राम में विजयी हों। हम कभी हिंसित न हों । प्रभु से हम कभी त्यक्त न हों ।

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    विषय

    प्रधान तेजस्वी पुरुषों के कर्त्तव्य

    भावार्थ

    (उरु-व्यचाः) महान् व्यापक (महिषः) बड़ा दानी, वा बड़ा पूजनीय, (पुरु-हूतः) बहुतों से पुकारने योग्य, सर्वस्तुत्य, (पुरु-क्षुः) बहुतों को निवासार्थ अपने आश्रय देने वाला (अस्मिन् हवे) इस महायज्ञ वा संग्राम में (शर्म यंसत्) सुख प्रदान करे। हे (हर्यश्व) मनुष्यों को अश्ववत् सञ्चालन करने हारे ! (सः) वह तू (नः प्रजायै मृडय) हमारी प्रजाओं को सुखी कर, उन पर कृपालु हो। हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! तेजस्विन् ! (नः मा रीरिषः) हमें पीड़ित मत कर। (नः मा परा दाः) हमें त्याग मत।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्विहव्यः॥ विश्वेदेवा देवताः। छन्द:—१, ३ विराट् त्रिष्टुप्। २, ५, ८ त्रिष्टुप्। ३, ६ निचृत् त्रिष्टुप्। ७ भुरिक् त्रिष्टुप्। ९ पादनिचृज्जगती॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (उरुव्यचाः) बहुव्याप्तः (महिषः) महान्-अनन्तः (पुरुहूतः) बहुह्वातव्यः (पुरुक्षुः) बह्वन्नप्रदः परमात्मा (अस्मिन् हवे नः शर्म यंसत्) अत्र यज्ञेऽस्मभ्यं सुखं यच्छतु ददातु (सः) स खलु (हर्यश्व-इन्द्र) हरणशील व्यापनस्वभाववन् “हर्यश्व हरणशीला व्यापनस्वभावा यस्य तत्सम्बुद्धौ” [ऋ० ३।३२।५ दयानन्दः] ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! (नः प्रजायै मृडय) अस्मान् प्रजायै-प्रजाप्राप्तये सुखय (नः-मा रीरिषः) अस्मान् न पीडय (मा परादाः) नास्मान् त्यज ॥८॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, all pervasive lord of the expansive universe, infinitely potent, universally invoked and adored, infinitely opulent and generous, may, we pray, give us peace and fulfilment in this great war-like yajna of life. O lord of the dynamics of existence, Indra, we pray give us the joy of fulfilment for our people and for our future generations, pray never hurt us, never forsake us.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा बहुव्यापी अनंत असून, अनेक प्रकारे आमंत्रण देण्यायोग्य, पुष्कळ अन्नभोग देणारा आहे. तो संतान प्राप्तीद्वारे सुखी करतो. तो आम्हाला त्रास देत नाही किंवा त्याग करत नाही. अशा परमात्म्याची स्तुती केली पाहिजे. ॥८॥

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