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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 17/ मन्त्र 2
    ऋषिः - देवश्रवा यामायनः देवता - सरण्यूः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अपा॑गूहन्न॒मृतां॒ मर्त्ये॑भ्यः कृ॒त्वी सव॑र्णामददु॒र्विव॑स्वते । उ॒ताश्विना॑वभर॒द्यत्तदासी॒दज॑हादु॒ द्वा मि॑थु॒ना स॑र॒ण्यूः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अप॑ । अ॒गू॒ह॒न् । अ॒मृता॑म् । मर्त्ये॑भ्यः । कृ॒त्वी । सऽव॑र्णाम् । अ॒द॒दुः॒ । विव॑स्वते । उ॒त । अ॒श्विनौ॑ । अ॒भ॒र॒त् । यत् । तत् । आसी॑त् । अज॑हात् । ऊँ॒ इति॑ । द्वा । मि॒थु॒ना । स॒र॒ण्यूः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपागूहन्नमृतां मर्त्येभ्यः कृत्वी सवर्णामददुर्विवस्वते । उताश्विनावभरद्यत्तदासीदजहादु द्वा मिथुना सरण्यूः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अप । अगूहन् । अमृताम् । मर्त्येभ्यः । कृत्वी । सऽवर्णाम् । अददुः । विवस्वते । उत । अश्विनौ । अभरत् । यत् । तत् । आसीत् । अजहात् । ऊँ इति । द्वा । मिथुना । सरण्यूः ॥ १०.१७.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (मर्त्येभ्यः-अमृताम्-अपागूहन्) मरणधर्मवाले मनुष्यादि के लिये उससे भिन्न अनश्वर प्रकृति को परमात्मा की रचनशक्तियाँ या सूर्य की रश्मियाँ रात्रि को छिपा देती हैं-भोगप्राप्ति के लिए (सवर्णां कृत्वी विवस्वते-अददुः) सूर्य-उदयानन्तर उषा की जैसी वर्णवाली प्रभा को करके ये रश्मियाँ सूर्य के लिये दे देती हैं दिवस आभा के रूप में, इसी प्रकार प्रकृति अपनी जैसी जड़ सृष्टि को व्यापक परमात्मा के लिये उसकी रचनशक्तियाँ स्थापित करती हैं (उत-अश्विनौ-अभरत्) अपि च अश्विनौ-अर्थात् ज्योति से अन्य, रस से अन्य, आग्नेय और सोम्य विभागों को धारण करता है (तत्-यत् आसीत्) वह जो यह थी (द्वा मिथुना सरण्यूः-अजहात्) दो मिथुनों-एक साथ प्रकट होनेवालों को सरणशील उषा मध्यम अर्थात् वायु और माध्यमिक अर्थात् वाणी-विश्ववाणी विद्युत् को अन्तरिक्ष में छोड़ा या उस फैलनेवाली प्रकृति ने आग्नेय और सोम्यमयी सृष्टि को प्रकट किया ॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्यों के हितार्थ सूर्य की रश्मियों ने उषा को भी छिपा दिया या परमात्मा की शक्तियों ने प्रकृति को भी विलीन कर दिया। प्रकृति जड़ है उससे जड़ सृष्टि का विस्तार होता है-उषा प्रकाशवती है, उससे दिन का प्रकाश होता है। सृष्टि में वायु और विद्युत् प्रकट हो जाते हैं ॥२॥

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    विषय

    सरण्यू के दो सन्तान

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र के अनुसार वेदज्ञान को प्राप्त करनेवाला सब देवों के ज्ञान को प्राप्त करने के कारण 'देवश्रवाः ' कहलाता है 'देवेषु श्रवे यस्य' । यह संयत जीवनवाला बनने से 'यामायन'-यम का पुत्र कहा गया है। यह 'देवश्रवा यामायन' ही प्रस्तुत सूक्त का ऋषि है। यह कहता है कि इस (अमृताम्) = कभी नष्ट न होनेवाली अथवा मृत्यु से बचानेवाली इस वेदवाणी को (मर्त्येभ्यः) = वासनाओं से आक्रान्त होकर विषयों के पीछे मरनेवाले मनुष्यों से (अपागूहन्) = दूर छिपाकर रखा जाता है । (अमताम्) = इसे प्राप्त नहीं कर सकता । निरुक्त के परिशिष्ट में हम पढ़ते हैं कि 'विद्या' ब्राह्मण के पास आई और कहा कि मुझे सुरक्षित करो, मैं तुम्हारा कोश हूँ। मुझे 'असूयक- अनृजु व अयति' [असंयमी] पुरुष के लिये न देना जिससे मैं वीर्यवती होऊँ । इस प्रकार यह स्पष्ट है कि यह अमृत वेदवाणी असंयत जीवन वाले पुरुष को प्राप्त नहीं होती । [२] इस वेदवाणी को (सवर्णाम् कृत्वी) = प्रभु वर्णन युक्त करके (विवस्वते) = ज्ञानी पुरुष के लिये (अददुः) = देते हैं । 'सर्वे वेदाः यत् पदम् आमनन्ति' इन शब्दों के अनुसार यह वेदवाणी प्रभु के वर्णन से युक्त है। [३] (उत) = और यह वेदवाणी (अश्विनौ) = प्राणापान का (अभरत्) = पोषण करती है । 'असुनीति' प्राणविद्या का प्रतिपादन करनेवाली यह वेदवाणी प्राणापान का पोषण क्यों न करेगी ? [४] (यत्) = जो (तत्) = वह प्राणापान का पोषण करनेवाली अमृता वेदवाणी (आसीत्) = थी, अर्थात् जब इसने हमारे प्राणापान की शक्तियों का वर्धन किया तो (सरण्यूः) = ज्ञान व कर्म से हमारा मेल करनेवाली इस वेदवाणी ने (द्वा मिथुना) = दो युगलभूत 'नासत्य व दस्र' को (उ) = निश्चय से (अजहात्) = जन्म दिया। ज्ञान ही नासत्य है, कर्म ही दस्र है। ज्ञान से सत्य का दर्शन होता है और कर्म से सब बुराइयों का संहार [दसु उपक्षये] होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु कृपा से हमारा इस 'सरण्यू' नाम वाली वेदवाणी से सम्बन्ध हो और हमारे जीवन में सत्य व पवित्रता का संचार हो ।

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    विषय

    प्रकृति से जगत् की उत्पत्ति, आकाश की उत्पत्ति।

    भावार्थ

    जल, भूमि आदि तत्व उस (अमृतां) अविनाशिनी प्रकृति को (अप अगूहन्) अपने भीतर छिपा कर रखते हैं। वे (विवस्वते सवर्णाम्) विविध लोकों के स्वामी, परमेश्वर के समान वर्ण की, अव्यक्त, व्यापक प्रकृति को (कृत्वा) व्यक्त करके (मर्त्येभ्यः) मरणधर्मा जीव, प्राणियों के उपभोग के लिये (अददुः) प्रदान करते हैं। वह (सरण्यूः) सरणशील, गतिशील, विकृति को प्राप्त प्रकृति (द्वा मिथुना अजहात्) दो जोड़ों को उत्पन्न करती है (उत) (यत् तत् आसीत्) जो अव्यक्त रूप में थी वही (अश्विनौ अभरत्) आकाश और पृथ्वी को उत्पन्न करती है। यास्क के अनुसार—यह वाणी का वर्णन है। विवस्वान् उस प्रभु की (अमृतां) उस नित्य वाणी को विद्वान् गण (सवर्णां कृत्वा) वर्णों सहित करके (अप अगहून्) खोल २ कर वर्णन करते हैं और (मर्त्येभ्यः अददुः) मनुष्यों के हितार्थ प्रवचन द्वारा प्रदान करें। (यत् तत् आसीत्) वह जो परम ब्रह्म-ज्ञानमय वाणी है वह (अश्विनौ) विद्या में व्यापनशील, जितेन्द्रिय गुरु शिष्य दोनों को (अभरत्) धारणपोषण करती है। वह (सरण्यूः) गुरु से शिष्य को प्राप्त होने वाली वाणी, (द्वा मिथुना) दोनों जोड़ों को (अजहात्) उत्पन्न करती है। अर्थात् आगे भी इसी प्रकार गुरु से शिष्य-परम्परा चलती है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    देवश्रवा यामायन ऋषिः। देवताः—१, २ सरण्यूः। ३–६ पूषा। ७–९ सरस्वती। १०, १४ आपः। ११-१३ आपः सोमो वा॥ छन्द:– १, ५, ८ विराट् त्रिष्टुप्। २, ६, १२ त्रिष्टुप्। ३, ४, ७, ९–११ निचृत् त्रिष्टुप्। १३ ककुम्मती बृहती। १७ अनुष्टुप्। चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (मर्त्येभ्यः-अमृताम्-अपागूहन्) मरणधर्मेभ्यो मनुष्यादिभ्यस्तद्धितार्थम् अमृतामुषसम् “अमृता-उषाः” [निघ०२।२] प्रकृतिर्वा, रश्मयो रचनप्रवाहाः-रचनशक्तयो वाऽन्तर्हितामकुर्वन् प्रकृतिरूपामलोपयन् भोगप्राप्तये (सवर्णां कृत्वी विवस्वते-अददुः) सूर्योदयानन्तरमुषसः सवर्णां प्रभां कृत्वा ते रश्ययः सूर्याय दत्तवन्तो दिवसाभारूपे, तथाभूतां जडां सृष्टिं विशिष्टतया व्यापिने परमात्मने तद्रचनशक्तयः स्थापितवत्यः (उत-अश्विनौ-अभरत्) अपि खल्वश्विनौ ज्योतिषान्यं रसेनान्यं चाग्नेयं सोम्यं चाधारयत्-धारयति (तत्-यत्-आसीत्) याऽऽसीत् (द्वा मिथुना सरण्यूः-अजहात्) द्वौ मिथुनौ सरण्यूः-अत्यजत् सरणशीला सैवोषाः “सरण्यूः सरणात् [निरु०१२।९] मध्यमं वायुं माध्यमिकां वाचं विद्युतं चान्तरिक्षे त्यक्तवती “मध्यमं च माध्यमिकां च वाचमिति” [निरु०१०।१०] तावेवाश्विनावाग्नेयसोम्यौ पदार्थौ सृष्टवती प्रकृतिः-आग्नेयसोम्यमयी सृष्टिः ॥२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Transforming the original immortal constant Prakrti in favour of mutable mortal forms of existence, the evolutionary power of divinity, creative and dynamic Prakrti, offers this form of itself to self-refulgent creator and master, and then in that dynamic state as it is then, it bears a twin pair of evolved existence, the Ashvins, positive-negative complementarities of the evolutionary circuit of nature’s dynamics, and produces procreative couples such as Agni and Soma, energy and matter, prana and rayi, male and female, presence and absence (as the two may be described from different points of view).

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांच्या हितासाठी सूर्याच्या रश्मींनी उषेलाही लपविले किंवा परमात्म्याच्या शक्तींनी प्रकृतीलाही विलीन केले. तरीही प्रकृती जड आहे. त्याद्वारे जड सृष्टीचा विस्तार होतो. – उषा प्रकाशवती आहे. त्यापासून दिवसाचा प्रकाश होतो. सृष्टीत वायू व विद्युत प्रकट होतात. ॥२॥

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