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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 17/ मन्त्र 6
    ऋषिः - देवश्रवा यामायनः देवता - पूषा छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्रप॑थे प॒थाम॑जनिष्ट पू॒षा प्रप॑थे दि॒वः प्रप॑थे पृथि॒व्याः । उ॒भे अ॒भि प्रि॒यत॑मे स॒धस्थे॒ आ च॒ परा॑ च चरति प्रजा॒नन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रऽप॑थे । प॒थाम् । अ॒ज॒नि॒ष्ट॒ । पू॒षा । प्रऽप॑थे । दि॒वः । प्रऽप॑थे । पृ॒थि॒व्याः । उ॒भे इति॑ । अ॒भि । प्रि॒यऽत॑मे । स॒धऽस्थे॑ । आ । च॒ । परा॑ । च॒ । च॒र॒ति॒ । प्र॒ऽजा॒नन् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रपथे पथामजनिष्ट पूषा प्रपथे दिवः प्रपथे पृथिव्याः । उभे अभि प्रियतमे सधस्थे आ च परा च चरति प्रजानन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रऽपथे । पथाम् । अजनिष्ट । पूषा । प्रऽपथे । दिवः । प्रऽपथे । पृथिव्याः । उभे इति । अभि । प्रियऽतमे । सधऽस्थे । आ । च । परा । च । चरति । प्रऽजानन् ॥ १०.१७.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 17; मन्त्र » 6
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (पूषा) पोषणकर्ता परमात्मा (पथां प्रपथे-अजनिष्ट) मार्गों के सांसारिक जीवनयात्रा के पथाग्र पर मानवमात्र को समर्थ बनाता है (दिवः-प्रपथे पृथिव्याः प्रपथे) मोक्षमार्ग के लक्ष्य पर तथा पुनर्जन्म के लक्ष्य पर सफल और समर्थ बनाता है (उभे प्रियतमे सधस्थे) दोनों प्रियतमों अर्थात् अभ्युदय और सधस्थ-समानस्थान मोक्ष में (अभि) अभिप्राप्त होकर (प्रजानन्) अनुभव करता हुआ (आचरति पराचरति) अनुष्ठान करता है और पुनर्वैराग्य से त्यागता भी है ॥६॥

    भावार्थ

    परमात्मा उपासकों को जीवनयात्रा के पथाग्र पर समर्थ बनाता है। मोक्षमार्ग में भी और संसार के मार्ग में भी जो सुख प्राप्त होता है, आत्मा वह परमात्मा की कृपा से अभ्युदय और निःश्रेयस को अनुभव करता है। संसार में संसार के सुखों का सेवन करता है और वैराग्य से उनको त्यागकर मोक्ष को प्राप्त करता है ॥६॥

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    विषय

    प्रियतम - सधस्थ

    पदार्थ

    [१] (पूषा) = वह सब का पोषक प्रभु (पथाम् प्रपथे) = मार्गों के प्रकृष्ट मार्ग में (अजनिष्ट) = प्रादुर्भूत होता है। मार्गों में प्रकृष्ट मार्ग मध्य मार्ग है । वस्तुतः यह मध्य मार्ग ही गत मन्त्र का 'अभयतम मार्ग' है। इसी मार्ग को अन्तारिक्ष मार्ग भी कहते हैं, क्योंकि यहाँ ' अन्तराक्षि' -बीच में रहता है । अतिजागरणशील व अतिस्वप्नशील को प्रभु का दर्शन नहीं होता, युक्ताहार-विहार वाला ही प्रभुदर्शन का अधिकारी होता है । [२] वे प्रभु (दिवः) = प्रकाश के (प्रपथे) = प्रकृष्ट मार्ग में प्रकट होते हैं और (पृथिव्या:) = विस्तृत शक्तियों वाले शरीर के प्रपथे प्रकृष्ट मार्ग में प्रकट होते हैं । प्रभु का दर्शन उसी व्यक्ति को होता है जो मस्तिष्क को ज्ञान-सम्पन्न व शरीर को शक्ति सम्पन्न बनाता है । [३] (प्रजानन्) = एक समझदार पुरुष (उभे) = दोनों (प्रियतमे) = अत्यन्त प्रिय (सधस्थे) = [सह + स्थ] मिलकर बैठने के स्थानों का (अभि) = लक्ष्य करके (आचरति) = धर्मकार्यों का आचरण करता है (च) = और (पराचरति) = अधर्म के कार्यों को अपने से दूर करता है प्रत्येक सद्गृहस्थ को चाहिए कि अपने घर में प्रातः - सायं दोनों समय मिलकर सब के बैठने की व्यवस्था हो । यह यज्ञ-स्थान 'सधस्थ ' है 'अस्मिन् सधस्थे अध्युत्तरास्मिन् विश्वे देवा यजमानश्च सीदत' । यह घर के प्रत्येक सभ्य को प्रियतम हो। इसमें स्थित होकर सब उत्तम कर्मों को करने का संकल्प करें, और निश्चय करें कि सब दुरितों को वे अपने से दूर करेंगे। =

    भावार्थ

    भावार्थ- हम मध्य मार्ग पर चलेंगे, 'अति' से बचते हुए ज्ञान को बढ़ायेंगे, शरीर को दृढ़ करेंगे। प्रातः-सायं यज्ञवेदि में सब एकत्रित होकर उत्तम कर्मों को करने व दुरितों से बचने का निश्चय करेंगे।

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    विषय

    सर्वफल दाता प्रभु पूषा।

    भावार्थ

    (पथाम् प्रपथे) सब मार्गों में से उत्तम मार्ग में (पूषा अजनिष्ट) सर्वपोषक प्रभु ही सबको मार्ग दिखाने वाला होता है। वही (दिवः प्रपथे, पृथिव्याः प्रपथे) आकाश और भूमिके उत्तम मार्ग में रक्षक होता है। वह ही (प्र-जानन्) उत्कृष्ट ज्ञान से सम्पन्न प्रभु (उभे प्रिय-तमे सध-स्थे) दोनों अति प्रिय इह लोकों और परलोकों में भी (आ च परा च चरति) समीप और दूर भी विद्यमान रहता है। वह ही (आ चरति च) पुण्य कर्मों का अनुकूल फल देता है और (परा चरति च) दुष्ट कर्मों का प्रतिकूल फल देता है। वह ही (प्रजानन्) खूब जानता है कि इसने यह बुरा वा अच्छा काम किया है और इस इस कर्म का यह यह फल है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    देवश्रवा यामायन ऋषिः। देवताः—१, २ सरण्यूः। ३–६ पूषा। ७–९ सरस्वती। १०, १४ आपः। ११-१३ आपः सोमो वा॥ छन्द:– १, ५, ८ विराट् त्रिष्टुप्। २, ६, १२ त्रिष्टुप्। ३, ४, ७, ९–११ निचृत् त्रिष्टुप्। १३ ककुम्मती बृहती। १७ अनुष्टुप्। चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (पूषा) पोषणकर्ता परमात्मा (पथां प्रपथे-अजनिष्ट) मार्गाणामैहिकजीवनमार्गाणां पथाग्रभागे लक्ष्ये मानवमजनयत्-समर्थं करोति ‘अन्तर्गतणिजर्थः’ (दिवः प्रपथे पृथिव्याः प्रपथे) मोक्षमार्गस्य लक्ष्ये पुनर्जन्मनि च सफलं समर्थं करोति (उभे प्रियतमे सधस्थे) उभे-अभ्युदयं निःश्रेयसञ्चानुकूलसहस्थाने (अभि) अभ्याप्य (प्रजानन्) अनुभवन् सुखेन यापयन्-यापयितुं (आचरति पराचरति) अनुतिष्ठति पुनर्वैराग्येण त्यजति च ॥६॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Pusha inspires, strengthens and guides humanity to know and follow the best paths of life and reach the goal, the paths to heaven and the paths over earth. He pervades the dearest paths of progress here and the paths to freedom there and, all knowing and emerging in consciousness, guides us here and beyond.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा उपासकांना जीवनयात्रेच्या पथावर अग्रेसर होण्यासाठी समर्थ बनवितो. मोक्षमार्गात व संसारमार्गातही जे सुख प्राप्त होते ते आत्मा, परमात्माच्या कृपेने अभ्युदय व नि:श्रेयसचा अनुभव घेतो. संसारात संसाराच्या सुखाचे सेवन करतो व वैराग्याने त्यांचा त्याग करून मोक्षाला प्राप्त करतो. ॥६॥

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