ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 17/ मन्त्र 9
ऋषिः - देवश्रवा यामायनः
देवता - सरस्वती
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
सर॑स्वतीं॒ यां पि॒तरो॒ हव॑न्ते दक्षि॒णा य॒ज्ञम॑भि॒नक्ष॑माणाः । स॒ह॒स्रा॒र्घमि॒ळो अत्र॑ भा॒गं रा॒यस्पोषं॒ यज॑मानेषु धेहि ॥
स्वर सहित पद पाठसर॑स्वतीम् । याम् । पि॒तरः॑ । हव॑न्ते । द॒क्षि॒णा । य॒ज्ञम् । अ॒भि॒ऽनक्ष॑माणाः । स॒ह॒स्र॒ऽअ॒र्घम् । इ॒ळः । अत्र॑ । भा॒गम् । रा॒यः । पोष॑म् । यज॑मानेषु । धे॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सरस्वतीं यां पितरो हवन्ते दक्षिणा यज्ञमभिनक्षमाणाः । सहस्रार्घमिळो अत्र भागं रायस्पोषं यजमानेषु धेहि ॥
स्वर रहित पद पाठसरस्वतीम् । याम् । पितरः । हवन्ते । दक्षिणा । यज्ञम् । अभिऽनक्षमाणाः । सहस्रऽअर्घम् । इळः । अत्र । भागम् । रायः । पोषम् । यजमानेषु । धेहि ॥ १०.१७.९
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 17; मन्त्र » 9
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(पितरः-यज्ञम्-अभिनक्षमाणाः) मनोभाव अध्यात्मयज्ञ को प्राप्त होते हुए (दक्षिण यां सरस्वतीं हवन्ते) आत्मदान-आत्मसमर्पण से जिस स्तुति का आचरण करते हैं (अत्र सहस्रार्घम्-इळः-भागम्) यहाँ वह स्तुति इस जीवन में सहस्रगुणित भजनीय सुख को (रायः पोषम्) धन के पोषक फल को (यजमानेषु धेहि) हम आत्मयाजी मुमुक्षुओं में धारण करा ॥९॥
भावार्थ
अध्यात्मयज्ञ को मनोभाव जब प्राप्त हो जाते हैं और आत्मसमर्पण परमात्मा के प्रति कर दिया जाता है, तो सहस्रगुणित सुखलाभ पोषण आत्मयाजी मुमुक्षु को मिलता है ॥९॥
विषय
आराधना का फल
पदार्थ
[१] गतमन्त्र के अनुसार हम उस सरस्वती के साथ समान रथ में आरूढ़ हों (यां सरस्वतीम्) = जिस सरस्वती को (पितरः) = वे रक्षक लोग (हवन्ते) = पुकारते हैं जो (दक्षिणा:) = कर्मों में दक्ष व कुशल हैं, कुशलता के साथ कर्मों को करते हैं तथा (यज्ञम् अभिनक्षमाणाः) = सदा यज्ञों का व्यापन करते हैं । [२] कर्मों में कुशल व यज्ञशील पितर जिस सरस्वती की आराधना करते हैं वह सरस्वती (अत्र) = इस जीवन में (सहस्रार्घम्) = अनन्त मूल्य वाले अर्थात् जीवन के लिये अत्यन्त उपयोगी (इडः भागम्) = वेदवाणी के भाग को (धेहि) = स्थापित करे तथा (यजमानेषु) = सरस्वती का सदा उपासन करनेवाले यज्ञशील पुरुषों में (रायस्पोषम्) = धन के पोषण को स्थापित करे । सरस्वती की आराधना से अमूल्य ज्ञाननिधि की प्राप्ति तो होती ही है, जीवन के लिये आवश्यक धनों का भी लाभ होता है। एवं सरस्वती की कृपा से श्रेय व प्रेय दोनों का साधन होता है, परलोक व इहलोक दोनों ही ठीक होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- सरस्वती की आराधना से हमें अमूल्य ज्ञान तथा धन दोनों की प्राप्ति हो ।
विषय
उसके कर्त्तव्य।
भावार्थ
(यज्ञम् अभि-नक्षमाणाः) यज्ञ को प्राप्त होते हुए, (पितरः) बसे गृहस्थ जन (यां) जिस (सरस्वतीं) उत्तम वेदज्ञान से युक्त विदुषी को (दक्षिणा) अपने दक्षिण भाग में (हवन्ते) स्वीकार करते हैं। वह तू (अत्र) हे विदुषि ! इस लोक में, (सहस्र-अर्धम्) सहस्रों प्रकार से पूज्य, उपयोगी, (इडः भागं) अन्न के सेवनीय भाग और (सहस्रार्धं रायः पोषम्) सहस्रों गुण मूल्यवान् धन की वृद्धि (यजमानेषु धेहि) यज्ञशील, दानी जनों में धारण करा। वा यशशील और दानशील जनों के अधीन तू अन्न या धन के श्रेष्ठ भाग को धारण कर। (२) इसी प्रकार जिस ज्ञानवान् प्रभु को पालक गुरुजन (दक्षिणा) दक्षिणभाग से यज्ञ में आकर पूज्य भावसे स्तुति करते हैं, वह हमें सहस्र-गुण मूल्य वाला अन्न धन प्रदान करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
देवश्रवा यामायन ऋषिः। देवताः—१, २ सरण्यूः। ३–६ पूषा। ७–९ सरस्वती। १०, १४ आपः। ११-१३ आपः सोमो वा॥ छन्द:– १, ५, ८ विराट् त्रिष्टुप्। २, ६, १२ त्रिष्टुप्। ३, ४, ७, ९–११ निचृत् त्रिष्टुप्। १३ ककुम्मती बृहती। १७ अनुष्टुप्। चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(पितरः यज्ञम्-अभिनक्षमाणाः) मनः-मनोभावा अध्यात्मयज्ञ-मभ्याप्नुवन्तः ‘नक्षति व्याप्तिकर्मा” [निघ०२।१८] (दक्षिणा यां सरस्वतीं हवन्ते) आत्मदानेन-आत्मसमर्पणेन “सुपां सुलुक्……” [अष्टा०७।१।३९] इति तृतीयाया लुक्, यां स्तुतिमाचरन्ति (अत्र-सहस्रार्घम्-इळः-भागम्) सा स्तुतिः-अस्मिन् जीवने स्तुत्यस्य भोगस्य “इळः-ईडेः स्तुतिकर्मणः” [निरु०८।८] सहस्रगुणितं भजनीयं सुखम् (रायः पोषम्) धनस्य पोषकं फलम् (यजमानेषु धेहि) अस्मासु-आत्मयाजिषु धारय-स्थापय ॥९॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O divine Sarasvati, whom venerable sages dedicated to meditative yajna in mind and soul invoke and serve in right earnest, we pray, bless the yajamanas with their share here of food and nourishment, wealth, honour and excellence, and the vision and voice of divinity loved and sought for by thousands of seekers.
मराठी (1)
भावार्थ
जेव्हा अध्यामयज्ञांना मनोभाव प्राप्त होतो व परमेश्वराला आत्मसमर्पण केले जाते तेव्हा आत्मयाजी मुमुक्षूचे सहस्रगुणांनी पोषण होऊन सुखाचा लाभ होतो. ॥९॥
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