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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 17/ मन्त्र 7
    ऋषिः - देवश्रवा यामायनः देवता - सरस्वती छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सर॑स्वतीं देव॒यन्तो॑ हवन्ते॒ सर॑स्वतीमध्व॒रे ता॒यमा॑ने । सर॑स्वतीं सु॒कृतो॑ अह्वयन्त॒ सर॑स्वती दा॒शुषे॒ वार्यं॑ दात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सर॑स्वतीम् । दे॒व॒ऽयन्तः॑ । ह॒व॒न्ते॒ । सर॑स्वतीम् । अ॒ध्व॒रे । ता॒यमा॑ने । सर॑स्वतीम् । सु॒ऽकृतः॑ । अ॒ह्व॒य॒न्त॒ । सर॑स्वती । दा॒शुषे॑ । वार्य॑म् । दा॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सरस्वतीं देवयन्तो हवन्ते सरस्वतीमध्वरे तायमाने । सरस्वतीं सुकृतो अह्वयन्त सरस्वती दाशुषे वार्यं दात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सरस्वतीम् । देवऽयन्तः । हवन्ते । सरस्वतीम् । अध्वरे । तायमाने । सरस्वतीम् । सुऽकृतः । अह्वयन्त । सरस्वती । दाशुषे । वार्यम् । दात् ॥ १०.१७.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 17; मन्त्र » 7
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (देवयन्तः) अपने इष्टदेव परमात्मा को चाहते हुए मुमुक्षुजन (सरस्वतीं हवन्ते) स्तुतिवाणी का सेवन करते हैं (तायमाने-अध्वरे सरस्वतीम्) विस्तृत किये हुये अध्यात्म-यज्ञ के निमित्त स्तुति वाणी को आश्रित करते हैं (सुकृतः सरस्वतीम्-अह्वयन्त) पुण्यकर्मी स्तुतिवाणी का स्मरण करते हैं (सरस्वती दाशुषे वार्यं दात्) स्तुतिवाणी आत्मसमर्पण करनेवाले के लिये रमणीय मोक्षपद देती है ॥७॥

    भावार्थ

    स्तुतिवाणी के द्वारा पुण्यात्मा या मुमुक्षुजन अपना परमात्मा को समर्पण करके अभीष्ट मोक्ष पद को प्राप्त होते हैं ॥७॥

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    विषय

    सरस्वती का आराधन

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र के अनुसार 'सधस्थ' अर्थात् यज्ञवेदि में एकत्रित होकर सब यज्ञ करते हैं, और उसके बाद स्वाध्याय के द्वारा (सरस्वती) = विद्या की सरस्वती देवी का आराधन प्रारम्भ होता है । (देवयन्तः) = दिव्यगुणों को अपनाने की कामना करते हुए और दिव्यगुणों के द्वारा दिव्यता के पुंज प्रभु को प्राप्त करने की कामना करते हुए लोग (सरस्वतीम्) = विद्या की अधिदेवता को (हवन्ते) = पुकारते हैं । स्वाध्याय के द्वारा ज्ञान की वृद्धि होती है, इस ज्ञान से जीवन में पवित्रता का संचार होता है । [२] (अध्वरे तायमाने) = यज्ञों का विस्तार होने पर सरस्वतीं सरस्वती को पुकारते हैं। यह सरस्वती ही यज्ञों को 'अ-ध्वर' बनाये रखती है। ज्ञान के कारण ही यज्ञों में भी पवित्रता बनी रहती है। ज्ञान की कमी के साथ यज्ञों में रूढ़ियों का महत्त्व अधिक हो जाता है मध्यकाल में तो स्वाध्याय की कमी के कारण यज्ञ 'अ-ध्वर' ही न रहे। इन अ-ध्वरों में अधिकाधिक हिंसा का प्रारम्भ हो गया। [३] इसलिए (सुकृतः) = पुण्यशाली लोग (सरस्वतीम्) = सरस्वती को (अह्वयन्त) = पुकारते हैं । वस्तुतः यह सरस्वती ही उन्हें 'सुकृत्' बनाती है। 'नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते 'ज्ञान की मनुष्य को पवित्र बनाता है। [४] (सरस्वती) = यह ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता (दाशुषे) = आत्मापर्ण करनेवाले के लिये (वार्यं दात्) = सब वरणीय वस्तुओं को प्राप्त कराती हैं। हमें चाहिए यह कि अपना सारा अवकाश स्वाध्याय के लिए अर्पित करें। यही सरस्वती के प्रति आत्मापर्ण होगा। यदि हम ऐसा करेंगे तो हमें सब आवश्यक वस्तुएँ अवश्य प्राप्त होगी हमें किसी प्रकार की कमी न रहेगी।

    भावार्थ

    भावार्थ- सरस्वती हमें देव बनाती है । हमारे यज्ञों को हिंसाशून्य बनाकर सचमुच 'अध्वर' कहलाने योग्य करती है। हमें पुण्यात्मा बनाती है और वरणीय वस्तुओं को देती है ।

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    विषय

    सरस्वती।

    भावार्थ

    (देवयन्तः) ज्ञान-प्रकाश देने वाले, परम सुखदाता, प्रभु की कामना करते हुए विद्वान् लोग उसको (सरस्वतीम् हवन्ते) सर्वप्रशस्त ज्ञान से सम्पन्न शक्ति स्वीकार करते हैं और (अध्वरे तायमाने) यज्ञ के विस्तृत होने पर (सरस्वतीम् हवन्ते) ज्ञानमय वेदवाणीवत् उस प्रभु का स्मरण करते हैं। (सुकृतः) उत्तम आचरण करने वाले पुण्यात्मा लोग (सरस्वतीं अह्वयन्त) उस ज्ञानमयी वेदवाणी और प्रभु को ही पुकारते हैं। क्योंकि वह (सरस्वती) उत्तम ज्ञान की स्वामिनी शक्ति ही (दाशुषे वार्यं दात्) आत्मसमर्पक, दानशील, त्यागी पुरुष को सब वरण योग्य उत्तम ज्ञान, धन प्रदान करता है। (२) उत्तम ज्ञान वाली विदुषी स्त्री भी ‘सरस्वती’ कहाती है, विद्वान्, पुत्र चाहने वाले, यज्ञकर्ता और पुण्य चरित्रवान् पुरुष उत्तम विदुषी स्त्री को पत्नीरूप से अंगीकार करते हैं। वह उत्तम, बीजप्रद स्वामी को उत्तम पुत्र देती है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    देवश्रवा यामायन ऋषिः। देवताः—१, २ सरण्यूः। ३–६ पूषा। ७–९ सरस्वती। १०, १४ आपः। ११-१३ आपः सोमो वा॥ छन्द:– १, ५, ८ विराट् त्रिष्टुप्। २, ६, १२ त्रिष्टुप्। ३, ४, ७, ९–११ निचृत् त्रिष्टुप्। १३ ककुम्मती बृहती। १७ अनुष्टुप्। चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (देवयन्तः) आत्मनो देवमिष्टदेवं परमात्मानमिच्छन्तो जना मुमुक्षवः (सरस्वतीं हवन्ते) स्तुतिवाचमनुतिष्ठन्ति (तायमाने-अध्वरे सरस्वतीम्) यज्ञेऽध्यात्मज्ञे विस्तार्यमाणे-विस्तार्यमाणाध्यात्मयज्ञनिमित्तं सरस्वतीं स्तुतिवाचमाश्रयन्ति मुमुक्षवः (सुकृतः सरस्वतीम्-अह्वयन्त) पुण्यकर्माणः स्तुतिवाचं स्मरन्ति (सरस्वती दाशुषे वार्यं दात्) स्तुतिवाणी खल्वात्मसमर्पणं कृतवते वरणीयं मोक्षपदं ददाति ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Aspirants to knowledge and the light of divinity invoke Sarasvati, voice of divinity, they offer homage of faith and devotion in psychic and spiritual yajna which expands their intelligence and vision. Men of noble action invoke Sarasvati, ever flowing Spirit of Knowledge, for strength of will and direction. May Sarasvati grant cherished gifts of knowledge, will and vision to the generous yajakas.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    स्तुतिवाणीद्वारे पुण्यात्मा किंवा मुमुक्षूजन परमात्म्याला आत्मसमर्पण करून अभीष्ट मोक्षपद प्राप्त करतात. ॥७॥

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