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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 17/ मन्त्र 8
    ऋषिः - देवश्रवा यामायनः देवता - सरस्वती छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सर॑स्वति॒ या स॒रथं॑ य॒याथ॑ स्व॒धाभि॑र्देवि पि॒तृभि॒र्मद॑न्ती । आ॒सद्या॒स्मिन्ब॒र्हिषि॑ मादयस्वानमी॒वा इष॒ आ धे॑ह्य॒स्मे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सर॑स्वति । या । स॒ऽरथ॑म् । य॒याथ॑ । स्व॒धाभिः॑ । दे॒वि॒ । पि॒तृऽभिः॑ । मद॑न्ती । आ॒ऽसद्य॑ । अ॒स्मिन् । ब॒र्हिषि॑ । मा॒द॒य॒स्व॒ । अ॒न॒मी॒वाः । इषः॑ । आ । धे॒हि॒ । अ॒स्मे इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सरस्वति या सरथं ययाथ स्वधाभिर्देवि पितृभिर्मदन्ती । आसद्यास्मिन्बर्हिषि मादयस्वानमीवा इष आ धेह्यस्मे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सरस्वति । या । सऽरथम् । ययाथ । स्वधाभिः । देवि । पितृऽभिः । मदन्ती । आऽसद्य । अस्मिन् । बर्हिषि । मादयस्व । अनमीवाः । इषः । आ । धेहि । अस्मे इति ॥ १०.१७.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 17; मन्त्र » 8
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सरस्वति देवि) हे दिव्या स्तुतिवाणी ! (या) जो ये तू (पितृभिः सरथं ययाथ) मनोभावों के साथ समानरमणीय परमात्मा के प्रति जाती है (स्वधाभिः-मदन्ती) वहाँ के आनन्दरसों के साथ हर्षित करती हुई (अस्मिन् बर्हिषि-आसद्य) इस मानस ज्ञानयज्ञ में विराजकर (मादयस्व) हमें हर्षित कर (अस्मे-अनमीवाः-इष-आ धेहि) हमारे लिये रोगरहित कमनीय भोगों को भलीभाँति धारण करा ॥८॥

    भावार्थ

    मानसिक भावनाओं के साथ जब परमात्मा की स्तुति अध्यात्मयज्ञ में की जाती है, तो वह हमें सब रोगों से अलग रखती हुई कमनीय भोगों को धारण कराती है ॥८॥

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    विषय

    सरस्वती के साथ समान रथ में

    पदार्थ

    [१] हे (सरस्वति) = विद्या की अधिष्ठात्रि देवि ! (या) = जो तू (सरथम्) = हमारे साथ एक ही रथ में [समानं रथं] (ययाथ) = गति करती हो । अर्थात् हमारा यह शरीर रूप रथ हमारा वाहन तो है ही । जब हम इसे सरस्वती का भी वाहन बनाते हैं, अर्थात् स्वाध्याय आदि में प्रवृत्त होते हैं तो उस समय हम सरस्वती के साथ एक ही रथ में बैठे होते हैं । [२] हे (देवि) = प्रकाश की पुंज व हमारे जीवन को प्रकाशित करनेवाली सरस्वती तू (स्व-धाभिः) = आत्मतत्त्व के धारण की प्रक्रियाओं से अर्थात् प्रतिदिन के प्रातः - सायं ध्यान से तथा (पितृभिः) = ज्ञानप्रद आचार्यरूप पितरों के साथ (मदन्ती) = तू हर्ष का अनुभव करती हुई होती है। हमें स्वाध्याय के साथ आत्मतत्त्व का धारण- उपासना तथा आचार्यों का सत्संग अवश्य करना चाहिए। [३] हे सरस्वति ! (अस्मिन् बर्हिषि) = हमारे इस वासनाशून्य हृदय में (आसद्य) = आसीन होकर (मादयस्व) = हमें आनन्दित कर । 'हम ज्ञान की रुचि वाले बनें' यही सरस्वती का हृदयों में आसीन होना है। जब कभी भी यह हो सका, हम एक विशिष्ट आनन्द का अनुभव करेंगे। [४] 'हम स्वाध्याय की रुचि वाले बनें' इसके लिये तू (अस्मे) = हमारे लिये (अनमीवा) = सब प्रकार के रोगों से रहित (इषः) = अन्नों को (आधेहि) = स्थापित कर । इन अन्नों का सेवन करते हुए हम सत्त्वशुद्धि के द्वारा, ज्ञान का वर्धन करनेवाले बनें।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारा जीवन स्वाध्याय सम्पन्न हो। हम सात्त्विक अन्नों का प्रयोग करें ।

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    विषय

    ज्ञानमयी वेदवाणीवत् सरस्वती नाम से प्रभु का वर्णन। पक्षान्तर में विदुषी का अंगीकार।

    भावार्थ

    हे (सरस्वति) उत्तम ज्ञान की स्वामिनि ! वा हे विदुषी ! (देवि) ज्ञानप्रकाश की देनेहारी ! (या) जो तू (स्वधाभिः) उत्तम अन्न, (पितृभिः) पालक माता पिता, गुरुजनों सहित (मदन्ती) स्वयं तृप्त और अन्यों को प्रसन्न करती हुई (स-रथं ययाथ) एक समान रथ में जाती है, वह तू (अस्मिन् आ-सद्य) इस यज्ञ में उत्तम आसन पर आदरपूर्वक विराज कर (अस्मे) हमें (अनमीवाः) रोगरहित (इषः) अन्न और उत्तम काम्य पदार्थ प्रदान कर। (२) प्रभु ‘सरस्वती’ है। वह भी (पितृभिः स्वधाभिः) सर्वपालक अन्न, जलादि अपनी धारण-पोषणकारिणी शक्तियों, अन्नों, ओषधियों, से सब को तृप्त करता और स्वयं भी पूर्णकाम है। हमारे रमणयोग्य देह रूप रथ में भी विद्यमान है। वह हमारे यज्ञ में विराजता है, वह हमें उत्तम अदुःखदायी अन्नवत् इष्ट कर्मफल दे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    देवश्रवा यामायन ऋषिः। देवताः—१, २ सरण्यूः। ३–६ पूषा। ७–९ सरस्वती। १०, १४ आपः। ११-१३ आपः सोमो वा॥ छन्द:– १, ५, ८ विराट् त्रिष्टुप्। २, ६, १२ त्रिष्टुप्। ३, ४, ७, ९–११ निचृत् त्रिष्टुप्। १३ ककुम्मती बृहती। १७ अनुष्टुप्। चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सरस्वति देवि) हे स्तुतिवाणि ! देवि ! (या) यैषा त्वम् (पितृभिः सरथं ययाथ) मनोभावैः सह “मनः पितरः” [श०१४।४।३।१३] समानरमणीयं परमात्मानं प्रति गच्छसि (स्वधाभिः-मदन्ती) तत्रत्यैः-आनन्दरसैः “स्वधायै त्वेति रसाय त्वेत्येवैतदाह” [श०५।४।३।७] माद्यन्ती (अस्मिन् बर्हिषि-आसद्य) अस्मिन् मानसे ज्ञानयज्ञे “बर्हिषि-मानसे ज्ञानयज्ञे” [यजु०३१।९ दयानन्दः] विराज्य (मादयस्व) अस्मान् हर्षय (अस्मे-अनमीवाः-इषः-आधेहि) अस्मभ्यं रोगवर्जिताः-रोगवर्जकान् कमनीयभोगान्-आधारय प्रापय ॥८॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O divine Sarasvati, cosmic voice of divinity, who radiate and expand on the rays of light and rejoice with homage of faith and devotion and the inner vibrations of mind and soul, pray come, abide in this inner seat of mind and consciousness, bless us with divine joy and bring us food and energy free from sin and pollution for the enlightenment of mind and soul.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    मानसिक भावनांबरोबर जेव्हा अध्यात्मयज्ञात परमेश्वराची स्तुती केली जाते. तेव्हा ती आम्हाला सर्व रोगांपासून दूर ठेवून रमणीय भोग देते. ॥८॥

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