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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 36 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 36/ मन्त्र 2
    ऋषिः - लुशो धानाकः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    द्यौश्च॑ नः पृथि॒वी च॒ प्रचे॑तस ऋ॒ताव॑री रक्षता॒मंह॑सो रि॒षः । मा दु॑र्वि॒दत्रा॒ निॠ॑तिर्न ईशत॒ तद्दे॒वाना॒मवो॑ अ॒द्या वृ॑णीमहे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्यौः । च॒ । नः॒ । पृ॒थि॒वी । च॒ । प्रऽचे॑तसा । ऋ॒तव॑री॒ इत्यृ॒तऽव॑री । र॒क्ष॒ता॒म् । अंह॑सः । रि॒षः । मा । दुः॒ऽवि॒दत्रा॑ । न्र्ऽऋ॑तिः । नः॒ । ई॒श॒त॒ । तत् । दे॒वाना॑म् । अवः॑ । अ॒द्य । वृ॒णी॒म॒हे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्यौश्च नः पृथिवी च प्रचेतस ऋतावरी रक्षतामंहसो रिषः । मा दुर्विदत्रा निॠतिर्न ईशत तद्देवानामवो अद्या वृणीमहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    द्यौः । च । नः । पृथिवी । च । प्रऽचेतसा । ऋतवरी इत्यृतऽवरी । रक्षताम् । अंहसः । रिषः । मा । दुःऽविदत्रा । न्र्ऽऋतिः । नः । ईशत । तत् । देवानाम् । अवः । अद्य । वृणीमहे ॥ १०.३६.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 36; मन्त्र » 2
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (प्रचेतसा-ऋतावरी द्यौः-च पृथिवी च) भली प्रकार चेतानेवाले तथा सत्यज्ञान निमित्तभूत सत्याचरण के जाननेवाले सूर्यलोक पृथ्वीलोक तथा माता पिता (अंहसः-रिषः-रक्षताम्) पाप से हिंसा से रक्षा करें (दुर्विदत्रा निर्ऋतिः-नः-मा-ईशत) बुरी अनुभूति करानेवाली कठिन आपत्ति हमें अपने स्वामित्व में न ले अर्थात् हमारे ऊपर अधिकार न करे (तत्) तिससे (देवानाम्-अवः-अद्य वृणीमहे) सब दिव्य पदार्थों तथा दिव्य गुणों का रक्षण हम इस जन्म में चाहते हैं ॥२॥

    भावार्थ

    संसार में सूर्य और पृथिवी चेतना और जल देनेवाले अन्धकार और पीड़ा से बचानेवाले हैं। इनसे उचित लाभ लेने से घोरापत्ति या अकाल मृत्यु से बच सकते हैं। तथा माता पिता सत्याचरण और ज्ञान का उपदेश देकर चेतानेवाले पाप से बचानेवाले और घोर विपत्ति में काम आनेवाले हैं। इनका हमें रक्षण प्राप्त करना चाहिये ॥२॥

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    विषय

    स्वस्थ शरीर व स्वस्थ मस्तिष्क

    पदार्थ

    [१] (द्यौः च पृथिवी च) = द्युलोक और पृथिवीलोक (नः) = हमारे (प्रचेतसे) = प्रकृष्ठ ज्ञान के लिये हों । मस्तिष्करूप द्युलोक का तो ज्ञान प्राप्ति के लिये ठीक होना आवश्यक ही है, शरीररूपी पृथिवी की दृढ़ता भी ज्ञान प्राप्ति के लिये जरूरी है । स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का भी निवास होता है । [२] (ऋतावरी) = ऋत का रक्षण करनेवाले द्युलोक व पृथिवीलोक (अंहसः) = पाप से तथा (रिषः) = रोगादि के कारण होनेवाली हिंसा से (रक्षताम्) = हमें बचाएँ । हमारे मस्तिष्क में ऋत हो, हो । मस्तिष्क में होनेवाला ऋत हमारे विचारों की पवित्रता का कारण बनेगा। पवित्र विचार हमारे आचार को सत् व पवित्र बनाएँगे और इस प्रकार हम पापों से बचे रहेंगे। शरीर में ऋत 'नियमितता = regularity' के रूप में है और यह नियमितता हमें रोगों से होनेवाली हिंसा से बचाती है। समय पर सोने-जागने व खानेवाला व्यक्ति कभी रोगी नहीं होता । [३] इस प्रकार स्वस्थ मस्तिष्क व स्वस्थ शरीरवाले (नः) = हमारा (दुर्विदत्रा) = दुष्ट धन से उत्पन्न होनेवाली (निर्ऋतिः) = दुर्गति (मा ईशत) = मत शासन करे। हम अन्याय मार्ग से धन कमानेवाले न हों। अन्याय मार्ग से अर्जित धन अन्ततः दुर्गति का कारण बनता है। वस्तुतः अनुचित मार्ग से धन कमाने की ओर उन्हीं का झुकाव होता है जो मस्तिष्क व शरीर के दृष्टिकोण से स्वस्थ नहीं होते । [४] इस प्रकार सुपथ से ही धनार्जन करते हुए हम (अद्या) = आज (देवानाम्) = देवों के (तत् अवः) = उस रक्षण को (वृणीमहे) = वरते हैं। हम अपने अन्दर दिव्यता को धारण करने के लिये यत्नशील होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सत्य से दीप्त मस्तिष्क हमें पापों से बचाये। नियमित क्रियाओंवाला शरीर रोगों का शिकार न हो। 'हम सुपथ से ही धनार्जन करें' यही स्वस्थ शरीर व स्वस्थ मस्तिष्क का लक्षण है ।

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    विषय

    उत्तम पुरुषों से रक्षा की प्रार्थना।

    भावार्थ

    (द्यौः च पृथिवी च) सूर्य और पृथिवी और उनके तुल्य तेजस्वी, ज्ञानप्रद, सर्वाश्रय और अन्नप्रद, (प्र चेतसा) उत्तम ज्ञानवान्, बड़े उदार चित्त वाले, (ऋत-वरी) जलवत् शान्तिदायक और अन्नवत् पुष्टिकारक, सत्य ज्ञान से युक्त, जन (नः) हमारी (रिषः) नाशकारी (अंहसः) पाप से (रक्षताम्) रक्षा करें। (दुः-विदत्रा) दुःखदायक, (निर्ऋतिः) कष्टदशा, जल, अन्न और ज्ञान के अभाव की दुःखदायी दशा, (नः मा ईशत) हम पर अधिकार न करे। (तत्) इसी कारण (अद्य) आज हम (देवानाम्) विद्वानों और मेघ, भूमि, सूर्य, वायु आदि के (अवः) ज्ञान और रक्षा बल की (वृणीमहे) याचना करें और प्राप्त करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    लुशो धानाक ऋषिः॥ विश्वे देवा देवताः॥ छन्द:– १, २, ४, ६–८, ११ निचृज्जगती। ३ विराड् जगती। ५, ९, १० जगती। १२ पादनिचृज्जगती। १३ त्रिष्टुप्। १४ स्वराट् त्रिष्टुप्॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (प्रचेतसा-ऋतावरी द्यौः-च-पृथिवी च) प्रकृष्टं चेतयितारौ तथा सत्यज्ञाननिमित्तभूतौ-सत्याचरणज्ञापयितारौ सूर्यपृथिवीलोकौ तथा मातापितरौ “द्यौर्मे पिता……माता पृथिवी महीयम्” [ऋ० १।१६४।३३] उभौ (अंहसः-रिषः-रक्षताम्) पापाद् हिंसकात् रक्षताम् (दुर्विदत्रा निर्ऋतिः नः-मा ईशत) दुर्विज्ञाना कृच्छ्रापत्तिरस्मान् मा स्वामित्वे नयेत् (तत्) तस्मात् (देवानाम्-अवः-अद्य वृणीमहे) उक्तानां सर्वेषां दिव्यपदार्थानां दिव्यगुणवतां शरीरसम्बन्धिनां पदार्थानां जनानां च रक्षणमस्मिन् जन्मनि याचामहे वाञ्छामः ॥२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The sun and the earth, father and mother, both sources of enlightenment, both committed to divine law and replete with dynamic energy, may, we pray, protect us from sin and violence. Let ignorance, injustice and adversity never dominate our life, let pain and suffering keep off. This is the safety, security and protection of our choice we pray for of the divinities today.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जगात सूर्य जागृत करणारा व पृथ्वी जल देणारी असून अंधकार व कष्टापासून वाचविणारे असतात. त्यांच्यापासून योग्य लाभ घेण्यामुळे भयंकर आपत्ती किंवा अकाल मृत्यूपासून बचाव करता येतो व आई-वडीलही सत्याचरण व ज्ञानाचा उपदेश करून जागृत करणारे, पापापासून वाचविणारे व भयंकर विपत्तीपासून वाचविणारे असतात. त्यांचे आम्हाला रक्षण प्राप्त व्हावे. ॥२॥

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