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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 36 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 36/ मन्त्र 8
    ऋषिः - लुशो धानाकः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    अ॒पां पेरुं॑ जी॒वध॑न्यं भरामहे देवा॒व्यं॑ सु॒हव॑मध्वर॒श्रिय॑म् । सु॒र॒श्मिं सोम॑मिन्द्रि॒यं य॑मीमहि॒ तद्दे॒वाना॒मवो॑ अ॒द्या वृ॑णीमहे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒पाम् । पेरु॑म् । जी॒वऽध॑न्यम् । भ॒रा॒म॒हे॒ । दे॒व॒ऽअ॒व्य॑म् । सु॒ऽहव॑म् । अ॒ध्व॒र॒ऽश्रिय॑म् । सु॒ऽर॒श्मिम् । सोम॑म् । इ॒न्द्रि॒यम् । य॒मी॒म॒हि॒ । तत् । दे॒वाना॑म् । अवः॑ । अ॒द्य । वृ॒णी॒म॒हे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपां पेरुं जीवधन्यं भरामहे देवाव्यं सुहवमध्वरश्रियम् । सुरश्मिं सोममिन्द्रियं यमीमहि तद्देवानामवो अद्या वृणीमहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अपाम् । पेरुम् । जीवऽधन्यम् । भरामहे । देवऽअव्यम् । सुऽहवम् । अध्वरऽश्रियम् । सुऽरश्मिम् । सोमम् । इन्द्रियम् । यमीमहि । तत् । देवानाम् । अवः । अद्य । वृणीमहे ॥ १०.३६.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 36; मन्त्र » 8
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अपां पेरुम्) आत्मजनों के पालक (जीवधन्यम्) जीव-मनुष्य धन्य-सफल लक्ष्यवाले जिसके आधार पर हो जाते हैं, उस (देवाव्यम्) मुमुक्षुओं के द्वारा प्राप्त करने योग्य (सुहवम्) उत्तम स्तुत्य (अध्वरश्रियम्) अध्यात्मयज्ञ के श्रीभूत परमात्मा को (भरामहे) हम धारण करें-हम उसकी उपासना करें तथा (सुरश्मिं सोमम्-इन्द्रियं यमीमहि) उस सुन्दर ज्ञान-आनन्दरूप रश्मिवाले शान्तरूप परमात्मा को अपने मन में नियत करें-बिठाएँ। आगे पूर्ववत् ॥८॥

    भावार्थ

    परमात्मा आप्त जनों का पालक, जीवन का लक्ष्यपूरक, मुमुक्षुओं द्वारा प्राप्त करने योग्य-अध्यात्मयज्ञ का श्रीभूत और ज्ञानानन्द का प्रसारक है, ऐसा मन में निश्चय करके उसकी उपासना करनी चाहिये ॥८॥

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    विषय

    सोम का भरण व यमन

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र में प्राणसाधना का वर्णन था । प्राणसाधना हमारे जीवन को पवित्र व महान् बनाती है। वस्तुतः इस प्राणसाधना से सोम का रक्षण होता है और यह सुरक्षित सोम ही सब प्रकार की उन्नतियों का कारण बनता है । मन्त्र में कहते हैं कि (सोमम्) = इस सोम को (भरामहे) = अपने में धारण करते हैं और (यमीमहि) = इस सोम का संयम करते हैं, इस शरीर में सुरक्षित करते हैं । [२] भृत व रक्षित सोम (अपां पेरुम्) = हमारे सब कर्मों का पूरण करनेवाला है, इसकी शक्ति से ही हम सब कर्मों में सफल होते हैं। (जीवधन्यम्) = यह हमारे जीवन को धन्य बनानेवाला है, (देवाव्यम्) = हमारे जीवन में दिव्यगुणों का रक्षण करने में यह उत्तम है, सोम के रक्षण से दिव्यगुणों की वृद्धि होती है । (सुहवम्) = यह शोभन पुकारवाला है, इसकी आराधना से कल्याण ही कल्याण होता है । (अध्वरश्रियम्) = यह जीवनयश की शोभा का कारण बनता है [अध्वरस्य श्रीः यस्मात्] (सुरश्मिम्) = ज्ञानाग्नि का ईंधन बनकर यह उत्तम ज्ञान की किरणोंवाला होता है और साथ ही (इन्द्रियम्) = यह हमारी सब इन्द्रियों को सशक्त बनानेवाला है और इसीलिए इसे 'इन्द्रिय' यह नाम प्राप्त हो पाया है। [३] इस प्रकार सोम का रक्षण करते हुए हम (अद्य) = आज (देवानाम्) = देवों के (तद् अवः) = उस रक्षण को (वृणीमहे) = वरते हैं। हम सोमरक्षण के द्वारा अपने में दिव्यता का वर्धन करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोम का भरण व रक्षण हमें सफल जीवनवाला बनाये ।

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    विषय

    प्रभु की उपासना।

    भावार्थ

    हम लोग (अपां पेरुम्) जलों के पालक मेघ वा समुद्रवत् प्रजाओं, और प्राणों के रक्षक, (देव-अव्यम्) विद्वानों से प्राप्य, कामनावान् जनों से स्वामीवत् स्नेह करने योग्य, (सु-हवं) सुखप्रद, सुगृहीत नाम वाले उत्तम दाता, (अध्वर-श्रियम्) यज्ञ की शोभा को धारण करने वाले, अविनाशी सम्पदा से युक्त, प्रभु को (भरामहे) धारण करें। और हम (सु-रश्मिम्) उत्तम किरणों से युक्त सूर्य वा अश्व, सारथिवत् (सोमम्) जगत् वा देह के प्रेरक स्वामी के तुल्य (इन्द्रियम्) ऐश्वर्यों के स्वामी, इन्द्रियों के अध्यक्ष, प्रभु आत्मा को (यमीमहि) संयम द्वारा प्राप्त करें। (तत् देवानां अवः अद्य वृणीमहे) हम विद्वानों का वह ज्ञान, और प्राणों का वह बल भी प्राप्त करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    लुशो धानाक ऋषिः॥ विश्वे देवा देवताः॥ छन्द:– १, २, ४, ६–८, ११ निचृज्जगती। ३ विराड् जगती। ५, ९, १० जगती। १२ पादनिचृज्जगती। १३ त्रिष्टुप्। १४ स्वराट् त्रिष्टुप्॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अपां पेरुम्) आप्तजनानां पालकम् “मनुष्या वा आपश्चन्द्राः” [श० ७।३।१।२७] (जीवधन्यम्) जीवा मनुष्या धन्याः सफललक्ष्या यस्मिन् तं तथाभूतम् (देवाव्यम्) मुमुक्षुभिः प्राप्यम् (सुहवम्) सुष्ठु प्राप्तव्यम् (अध्वरश्रियम्) अध्यात्मयज्ञस्य श्रीभूतम् (भरामहे) धारयेम-उपास्महे (सुरश्मिं सोमम्-इन्द्रियं यमीमहि) तं सुन्दरज्ञानानन्दरश्मिमन्तं शान्तपरमात्मानम्-“इन्द्रिये सप्तम्यर्थे प्रथमा व्यत्ययेन” मनसि “इन्द्रियं मनः प्रभृतीन्द्रियमात्रम्” [यजु० २१।४४। दयानन्दः] नियतं कुर्मः (तद्देवा०) अग्रे पूर्ववत् ॥८॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    We bear Soma at heart, love and honour Soma, spirit of universal peace, vitality and ecstasy, protector and promoter of life’s liquid energies for action, inspirer of life adorable for the divinities, beauty of the yajna of love and non-violence, worthy of invocation and celebration. Beautiful are its flames of fire, its rays of light and its waves of fragrance worthy of being perceived, experienced and internalised, all these we love. And that Soma is the gift, favour and protection of the divinities we choose to pray for, this day.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा आप्तजनांचा पालक, जीवनाचा लक्ष्य पूरक, मुमुक्षूद्वारे प्राप्त करण्यायोग्य, अध्यात्मयज्ञाचा श्रीभूत व ज्ञानआनंदाचा प्रसारक आहे, असा मनात निश्चय करून त्याची उपासना केली पाहिजे. ॥८॥

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