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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 67 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 67/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अयास्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    हं॒सैरि॑व॒ सखि॑भि॒र्वाव॑दद्भिरश्म॒न्मया॑नि॒ नह॑ना॒ व्यस्य॑न् । बृह॒स्पति॑रभि॒कनि॑क्रद॒द्गा उ॒त प्रास्तौ॒दुच्च॑ वि॒द्वाँ अ॑गायत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हं॒सैःऽइ॑व । सखि॑ऽभिः । वाव॑दत्ऽभिः । अ॒श्म॒न्ऽमया॑नि । नह॑ना । वि॒ऽअस्य॑न् । बृह॒स्पतिः॑ । अ॒भि॒ऽकनि॑क्रदत् । गाः । उ॒त । प्र । अ॒स्तौ॒त् । उत् । च॒ । वि॒द्वान् । अ॒गा॒य॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हंसैरिव सखिभिर्वावदद्भिरश्मन्मयानि नहना व्यस्यन् । बृहस्पतिरभिकनिक्रदद्गा उत प्रास्तौदुच्च विद्वाँ अगायत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हंसैःऽइव । सखिऽभिः । वावदत्ऽभिः । अश्मन्ऽमयानि । नहना । विऽअस्यन् । बृहस्पतिः । अभिऽकनिक्रदत् । गाः । उत । प्र । अस्तौत् । उत् । च । विद्वान् । अगायत् ॥ १०.६७.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 67; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (बृहस्पतिः) वेदवाणियों का तथा स्तुतियों का पालक महायोगी विद्वान् (हंसैः-इव इव वावदद्भिः सखिभिः) पाप अज्ञान को हनन करनेवालों स्तुतिवचन बोलनेवालों के साथ (अश्मन्मयानि नहना) विषय पाषाणमय कठिन बन्धनों को (व्यस्यत्) छिन्न-भिन्न करता है-काटता है (गाः-अभिकनिक्रदत्) वाणियों को पुनः-पुनः बोलता है (उत) और (विद्वान् प्रास्तौत्) वह विद्वान् परमात्मा की स्तुति करता है (च) और (अगायत्) उसका गायन करता है-वर्णन करता है ॥३॥

    भावार्थ

    वेदवचनों का वक्ता, स्तुतियों का कर्त्ता, महान् योगी विद्वान्, अन्य पाप के हनन कर्त्ता, अध्यामिक जनों के साथ, विषयपाषाणों के बन्धनों को काटता है और लोगों को सदुपदेश देकर सन्मार्ग दिखाता है ॥३॥

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    विषय

    विद्वान् परमहंसों के कर्त्तव्य वे देह-बन्धन को दूर करें। पक्षान्तर में सूर्य का वर्णन।

    भावार्थ

    (वावदद्भिः सखिभिः) निरन्तर वा पुनः २ स्पष्ट वचन कहते हुए (हंसैः इव) हंसों के समान विवेकी, निर्लेप मित्रों के साथ वह (बृहस्पतिः) बड़ी भारी वाणी का स्वामी, (अश्मन्मयानि बहना) पत्थरों से बने नाना बंधनों को (वि अस्यन्) विविध प्रकारों से फोड़ता तोड़ता हुआ, (गाः) नाना वाणियों या, इन्द्रियवृत्तियों और रश्मियों को सूर्य के तुल्य (अभि कनिक्रदत्) प्रकट करता है। (उत च) और वह (विद्वान्) ज्ञानवान्, विद्वान्र होकर (गाः प्र अस्तौत् उत अगायत् च) वेदवाणियों का अन्यों को उपदेश करता और स्वयं उत्तम रीति से गान भी करता है। अध्यात्म में—‘अश्मन्मय बंधन’ यह देह है जिसमें अस्थि आदि अश्मा ही हैं। विद्वान् परम हंसों के सहाय से इन देहबन्धनों को दूर करे, वह प्रभु की स्तुति करे। (३) सूर्य के आगे मेघमय बन्धन आते हैं वह उनको छिन्न भिन्न करके किरणों को प्रकट करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अयास्य आंगिरस ऋषिः॥ बृहस्पतिर्देवता॥ छन्दः– १ विराट् त्रिष्टुप्। २–७, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। ८–१०,१२ त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्।

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    विषय

    'पाषाणमय बन्धन- भेजन'

    पदार्थ

    [१] (बृहस्पतिः) = [ब्रह्मणस्पतिः] वेदज्ञान का पति बननेवाला ज्ञानी पुरुष (अश्मन्मयानि) = पत्थरों से बने हुए अर्थात् पाषाणतुल्य दृढ़ (नहना) = बन्धनों को (व्यस्यन्) = दूर फेंकने के हेतु से (वावदद्भिः) = खूब ही प्रभु-स्तोत्रों का उच्चारण करनेवाला (हंसैः इव सखिभिः) = हंस तुल्य मित्रों के साथ (गाः) = इन वेदवाणियों का (अभिकनिक्रदत्) = प्रातः सायं उच्चारण करता है। काम-क्रोध-लोभ रूप आसुर वृत्तियाँ क्रमशः इन्द्रियों, मन व बुद्धि में अपने दृढ़ अधिष्ठानों को बनाती हैं। ये ही असुरों की तीन पुरियाँ कहलाती हैं। बड़ी दृढ़ होने के कारण ये पुरियाँ यहाँ ' अश्मन्मयी' कही गई हैं। इनका तोड़ना सुगम नहीं । ज्ञान के प्रकाश में ही इनका विलय हुआ करता है, ज्ञानाग्नि ही इनके भस्म करने का साधन है । सो बृहस्पति अपने मित्रों के साथ इन ज्ञानवाणियों का उच्चारण करता है और ज्ञान के प्रकाश में इन असुरों की शक्ति को क्षीण करके अपने जीवन को पवित्र बनाता है । [२] यहाँ प्रसंगवश मित्रों की मुख्य विशेषता का भी संकेत हुआ है। मित्र हंसों के तुल्य होने चाहिएँ । [क] हंस शुभ का ही ग्रहण करता है, कौवे की तरह मल की रुचिवाला नहीं होता। [ख] वह जीवन में एक सरल चाल से चलता है, कौए की तरह विविध कुटिल गतियोंवाला नहीं होता । [ग] हंस निरभिमान है, कौए का घमण्ड उसमें नहीं। इस प्रकार के हंसतुल्य मित्र ही हमारे जीवनों में उपयोगी होते हैं इनका संग ही हमें उत्थान की ओर ले जाता है। [घ] यह बृहस्पति असुर- पुरियों के विध्वंस के उद्देश्य से ही (प्रास्तौत्) = प्रकर्षेण प्रभु का स्तवन करता है (उत) = और (विद्वान्) = ज्ञानी बनकर (उदगायत् च) = प्रभु के गुणों का गायन करता है। यह प्रभु के गुणों का गायन उसे भी उन गुणों के धारण के लिये प्रेरित करता है। इन गुणों को धारण करता हुआ यह अवगुणों से दूर होता ही है । यही असुर-पुरियों का विध्वंस है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम मित्रों के साथ ज्ञान की वाणियों का उच्चारण करते हुए और प्रभु गुणगान करते हुए काम-क्रोध व लोभ को परास्त करनेवाले बनें ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (बृहस्पतिः) बृहतां वेदवाचां स्तुतीनां पतिः पालयिता महायोगी विद्वान् (हंसैः-इव वावदद्भिः-सखिभिः) पापाज्ञानहन्तृभिः स्तुतिवचनं ब्रुवद्भिः सह (अश्मन्मयानि नहना) विषयपाषाणमयानि कठिनानि बन्धनानि “णह बन्धने” [दिवादिः] (व्यस्यत्) विक्षिपति छिनत्ति (गाः-अभिकनिक्रदत्) वाचः पुनः पुनरतिशयेन वदति (उत) अपि (विद्वान् प्रास्तौत्) स विद्वान् परमात्मानं स्तौति (च) अन्यच्च (अगायत्) तं गायति वर्णयति ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Chanting with friends as with hansa-like simple sinless souls of purity, breaking the adamantine chains of karmic bondage, loudly proclaiming the divine Word of omniscience, Brhaspati, master celebrant of the Infinite Spirit, blest with knowledge and vision divine, sings and adores the lord divine.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    वेदवचनांचा वक्ता, स्तुतीचा कर्ता, महान योगी, विद्वान इतर पापाचा हननकर्ता, आध्यात्मिक जनांची साथ, विषयपाषाणाच्या बंधनांना छिन्नभिन्न करतो व लोकांना सदुपदेश करून सन्मार्ग दाखवितो. ॥३॥

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