ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 67/ मन्त्र 5
वि॒भिद्या॒ पुरं॑ श॒यथे॒मपा॑चीं॒ निस्त्रीणि॑ सा॒कमु॑द॒धेर॑कृन्तत् । बृह॒स्पति॑रु॒षसं॒ सूर्यं॒ गाम॒र्कं वि॑वेद स्त॒नय॑न्निव॒ द्यौः ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒ऽभिद्य॑ । पुर॑म् । श॒यथा॑ । ई॒म् । अपा॑चीम् । निः । त्रीणि॑ । सा॒कम् । उ॒द॒ऽधेः । अ॒कृ॒न्त॒त् । बृह॒स्पतिः॑ । उ॒षस॑म् । सूर्य॑म् । गाम् । अ॒र्कम् । वि॒वे॒द॒ । स्त॒नय॑न्ऽइव । द्यौः ॥
स्वर रहित मन्त्र
विभिद्या पुरं शयथेमपाचीं निस्त्रीणि साकमुदधेरकृन्तत् । बृहस्पतिरुषसं सूर्यं गामर्कं विवेद स्तनयन्निव द्यौः ॥
स्वर रहित पद पाठविऽभिद्य । पुरम् । शयथा । ईम् । अपाचीम् । निः । त्रीणि । साकम् । उदऽधेः । अकृन्तत् । बृहस्पतिः । उषसम् । सूर्यम् । गाम् । अर्कम् । विवेद । स्तनयन्ऽइव । द्यौः ॥ १०.६७.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 67; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
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अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(बृहस्पतिः) वाणी का पालक और विस्तारक वक्ता (शयथा) अपने शरीर में प्राप्त होता हुआ (अपाचीं पुरं विभिद्य) निकृष्ट वासना को छिन्न-भिन्न करके (उदधेः) संसार सागर के (त्रीणि) तीन स्थूल सूक्ष्म कारण शरीरबन्धनों को (साकं निर्-अकृन्तत्) एक साथ छिन्न-भिन्न करता है (द्यौः स्तनयन्-इव) जैसे बिजली गरजती हुई मेघों को छिन्न-भिन्न करती है, ऐसे (उषसं सूर्यं गाम्-अर्कं विवेद) कमनीय बन्धनरहित स्तुतिवाणी को तथा अर्चनीय परमात्मा को प्राप्त करता है ॥५॥
भावार्थ
वेद का यथार्थज्ञाता और वक्ता इसी शरीर में रहता हुआ अपनी सारी वासनाओं को छिन्न-भिन्न कर देता है। अनन्तर स्थूल सूक्ष्म कारण शरीर के बन्धनों से छूटकर परमात्मा की उच्च स्तुति और उसके आश्रय में रमण करता है ॥५॥
विषय
ज्ञानवान् आत्मा का देहपुरी-बन्धन का भेदन। अध्यात्म योजना।
भावार्थ
वह (बृहस्पतिः) बड़ी भारी शक्ति का पालक आत्मा (शयथे) शयनस्थान, गर्भ में (अपाचीम्) नीचे मुख कर लटकने वाली (ईम् पुरम् विभिद्य) इस पुर को विविध प्रकार से भेदन करके, (साकम्) एक साथ ही (उदधेः) जलाशय से तीन जलधारों के तुल्य (त्रीणि) तीन द्वारों को (निः अकृन्तत्) काटता है। तब वह (द्यौः स्तनयन् इव) गर्जते दीप्त विद्युत् के तुल्य (उषसम्) उषा, (सूर्यम्) सूर्य (गाम्) वाणी और (अर्कम्) प्राण वा अन्न आत्मा को (विवेद) प्राप्त करता है। तीन द्वार मुख, नाक, कान। रुधिर रूप उदक का धारक यह देह या भीतर का हृदय जिससे तीन प्रमुख धमनियां निर्गत होती हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अयास्य आंगिरस ऋषिः॥ बृहस्पतिर्देवता॥ छन्दः– १ विराट् त्रिष्टुप्। २–७, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। ८–१०,१२ त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्।
विषय
उदधेः साकम् त्रीणि
पदार्थ
[१] इन्द्रियों, मन व बुद्धि में असुर अपनी नगरियाँ बना लेते हैं, अर्थात् इन्द्रियाँ काम से, मन क्रोध से व बुद्धि लोभ से आक्रान्त हो जाती है। ये नगरियाँ यहाँ 'अपाची' कहलायी हैं 'अप् अञ्च्'=बाहर की ओर ले जानेवाली अथवा प्रभु से दूर ले जानेवाली । आसुर वृत्तियों के कारण हम संसार के विषयों में फँस जाते हैं और प्रभु को भूल जाते हैं । यदि हम इन्द्रियों को शान्त कर पाते हैं तो इन आसुर-पुरियों के विदारण में भी समर्थ हो जाते हैं। (शयथा) = [शी=tranguility= शान्ति] = शान्ति के द्वारा अथवा हृदय में शयन व निवास के द्वारा (अपाचीम्) = प्रभु से हमें दूर ले जाने वाली (पुरम्) = इस वासनात्मक असुर पुरी का (ईं विभिद्या) = निश्चय से विदारण करके, यह विदारण करनेवाला पुरुष (उदधेः साकम्) = [ कामो हि समुद्रः ] अनन्त विषयरूप जलवाले काम के साथ (त्रीणि) = 'काम-क्रोध-लोभ' इन तीनों को (निः अकृन्तत्) = निश्चय से काट डालता है । सामान्यतः पुरुष 'काम-क्रोध-लोभ' में ही भटकता रहता है, और प्रभु को भूल जाता है । हृदय में ध्यान करने से अथवा वृत्ति को शान्त बनाने के द्वारा हम 'काम-क्रोध-लोभ' को जीत लेते हैं और प्रभु प्रवण वृत्तिवाले बनते हैं । [२] यह (बृहस्पतिः) = शान्त वृत्तिवाला और अतएव ज्ञानी पुरुष (उषसम्) = उषा को (सूर्यम्) = सूर्य को (गाम्) = गौ को (अर्कम्) = अर्क को (विवेद) = विशेष रूप से प्राप्त करता है । 'उषस्' शब्द 'उष दाहे' धातु से बनकर दोष- दहन का प्रतीक है, 'सूर्य' 'सृ गतौ' से बनकर निरन्तर गति व क्रियाशीलता का संकेत करता है, गौ शब्द 'गमयति अर्थम्' इस व्युत्पति से अर्थों का ज्ञान देनेवाली वाणी का वाचक है, 'अकर्म' शब्द 'अर्च' धातु से बनकर पूजा का प्रतिपादक है। बृहस्पति के जीवन में ये चारों चीजें बड़ी सुन्दरता से उपस्थित होती हैं। यह दोषों का दहन करनेवाला होता है, निरन्तर क्रियाशील बनता है, वेदवाणी के अध्ययन से ज्ञान को बढ़ाता है और प्रभु के पूजन की वृत्तिवाला होता है। [३] ऐसा बनकर यह स्तनयन् इव द्यौ:-गर्जना करते हुए द्युलोक के समान होता है। द्युलोकस्थ सूर्य की तरह सर्वत्र प्रकाश को फैलाता है, परन्तु गर्जते हुए मेघों के कारण जैसे सूर्य सन्तापकारी नहीं होता उसी प्रकार यह बृहस्पति भी गर्जते हुए मेघ के समान ज्ञान जल का वर्षण करता है और लोगों के सन्ताप को हरनेवाला ही बनता है। यह ज्ञान के प्रसार को बड़े माधुर्य से करता है ।
भावार्थ
भावार्थ - असुर- पुरियों का विदारण करके हम प्रभु-प्रवण वृत्तिवाले बनें । ज्ञान प्रसार के कार्य को अहिंसा व माधुर्य के साथ करनेवाला हों।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(बृहस्पतिः) वाचः पालको विस्तारयिता वक्ता (शयथा) स्वशयनरूपशरीरे प्राप्तः सन् (अपाचीं पुरं विभिद्य) निकृष्टां पुरं वासनां छित्त्वा (उदधेः) संसारसागरस्य (त्रीणि) त्रीणि बन्धनानि स्थूलसूक्ष्मकारणशरीराणि (साकं निर्-अकृन्तत्) सकृत् निश्छिनत्ति (द्यौः स्तनयन्-इव) यथा विद्युत् “द्यौः-विद्युत्” [ऋ० १।११३।२० दयानन्दः] स्तनयित्नुः शब्दं कुर्वन् मेघान् पातयति छिनत्ति (उषसं सूर्यं गाम्-अर्कं विवेद) कमनीयां बन्धनरहितां स्थितिं स्तुतिवाचम् “गौः-वाङ्नाम” [निघ० १।११] अर्चनीयं परमात्मानं जानाति ॥५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Brhaspati, the seeker of light, in the state of turiya beyond deep sleep, breaks through the three bonds of the city of darkness of the mutable world like thunder and lightning breaking the dark cloud and directly realises the dawn, the sun rays, the sun and the light beyond the sun.
मराठी (1)
भावार्थ
वेदाचा यथार्थ ज्ञाता व वक्ता या शरीरात राहून आपल्या संपूर्ण वासनांना छिन्न भिन्न करतो. नंतर स्थूल, सूक्ष्म, कारण शरीराच्या बंधनापासून सुटून परमात्म्याची उच्च स्तुती करून त्याच्या आश्रयात राहतो. ॥५॥
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