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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 67 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 67/ मन्त्र 9
    ऋषिः - अयास्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    तं व॒र्धय॑न्तो म॒तिभि॑: शि॒वाभि॑: सिं॒हमि॑व॒ नान॑दतं स॒धस्थे॑ । बृह॒स्पतिं॒ वृष॑णं॒ शूर॑सातौ॒ भरे॑भरे॒ अनु॑ मदेम जि॒ष्णुम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । व॒र्धय॑न्तः । म॒तिऽभिः॑ । शि॒वाभिः॑ । सिं॒हम्ऽइ॑व । नान॑दतम् । स॒धऽस्थे॑ । बृह॒स्पति॒म् । वृष॑णम् । शूर॑ऽसातौ । भरे॑ऽभरे । अनु॑ । म॒दे॒म॒ । जि॒ष्णुम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तं वर्धयन्तो मतिभि: शिवाभि: सिंहमिव नानदतं सधस्थे । बृहस्पतिं वृषणं शूरसातौ भरेभरे अनु मदेम जिष्णुम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । वर्धयन्तः । मतिऽभिः । शिवाभिः । सिंहम्ऽइव । नानदतम् । सधऽस्थे । बृहस्पतिम् । वृषणम् । शूरऽसातौ । भरेऽभरे । अनु । मदेम । जिष्णुम् ॥ १०.६७.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 67; मन्त्र » 9
    अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (तं सिंहम्-इव) उस सिंह के समान (नानदतं बृहस्पतिम्) प्रबल घोषणा करते हुए महान् राष्ट्र के स्वामी (वृषणं जिष्णुम्) सुखवर्षक जयशील को (शिवाभिः-मतिभिः) कल्याणकारी वाणियों से (सधस्थे) समान स्थान-सभाभवन में (वर्धयन्तः) प्रोत्साहित करते हुए हम होवें, तथा (शूरसातौ भरे भरे) शूरवीरों का सम्भजन-सङ्गमन जहाँ हो, ऐसे संग्राम में (अनुमदेम) हम अनुमोदन करते हैं ॥९॥

    भावार्थ

    सिंह के समान शौर्यसम्पन्न, राष्ट्रविषयक घोषणा करते हुए राजा को सभाभवन में प्रजाजन प्रोत्साहित करते हैं और संग्राम में सैनिक उसका अनुमोदन करते हैं ॥९॥

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    विषय

    सिंहवत् पराक्रमी सभापति के प्रति प्रजा का कर्त्तव्य। पक्षान्तर में आत्मिक बल बढ़ाने का उपाय।

    भावार्थ

    हम प्रजागण, सभासद्गण (सध-स्थे) एक साथ बैठने योग्य राजसभा-भवन में (सिंहम् इव) सिंह के समान (नानदतं) निर्भय होकर गंभीर नाद करते हुए, गंभीर वचन कहते हुए (तं) उस राजा को (शिवाभिः मतिभिः) कल्याणकारिणी वाणियों और विचारों से (वर्धयन्तः) बढ़ाते हुए (शूर-सातौ) शूरवीर पुरुषों द्वारा करने योग्य संग्राम में (वृषणं) बलवान् शत्रुओं पर शरादि फेंकने वाले (बृहस्पतिम्) बड़ी सेना वा राष्ट्र-बल के स्वामी को (भरे-भरे) प्रत्येक युद्ध वा प्रजापालन के कार्य में (अनु मदेम) उसकी अनुकूलता से प्रसन्न करें और स्वयं भी उसके किये पर प्रसन्न हों। (२) इसी प्रकार इस देह में उत्साहवान्, सिंहवत् निर्भय आत्मा को हम प्राणों द्वारा उपभोग्य प्रत्येक कार्य में उत्तम वाणियों द्वारा बढ़ावें, उसके उत्साह को कम न होने दें। प्रार्थनाएं उत्तम वाणियें, वेद मन्त्रादि सभी समय २ पर चित्त में उत्साह बढ़ाती हैं।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अयास्य आंगिरस ऋषिः॥ बृहस्पतिर्देवता॥ छन्दः– १ विराट् त्रिष्टुप्। २–७, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। ८–१०,१२ त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्।

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    विषय

    ज्ञान + शक्ति= विजय

    पदार्थ

    [१] (शिवाभिः) = कल्याणी (मतिभिः) = मतियों से हम (तम्) = उस प्रभु का (वर्धयन्तः) = वर्धन करते हुए (अनुमदेम) = उसकी अनुकूलता में हर्ष का अनुभव करें। हम अपनी मति को सदा शुभ बनाये रखें, वस्तुतः मति का शुभ बनाये रखना ही प्रभु का सर्वोत्तम आराधन है, संसार में किसी के अशुभ का विचार न करना । [२] उस प्रभु का हम वर्धन करें जो कि (सधस्थे) = जीवात्मा और परमात्मा के साथ-साथ ठहरने के स्थान 'हृदय' में (सिंहं इव) = शेर की तरह (नानदतम्) = गर्जन कर रहे हैं । हृदयस्थरूपेण प्रभु प्रेरणा दे रहे हैं, 'कनिक्रदत' वे गर्जना कर रहे हैं। सिंह गर्जना को सुनकर जैसे खरगोश मृग आदि पशु भाग खड़े होते हैं, इसी प्रकार प्रभु के नाम को सुनकर वासनारूप पशु भाग जाते हैं। [३] (बृहस्पतिम्) = ज्ञान के स्वामी (वृषणम्) = शक्तिशाली प्रभु को, शूरसातौ शूरों से सेवनीय (भरेभरे) = प्रत्येक संग्राम में (जिष्णुम्) = जो विजय को करनेवाले हैं, उस प्रभु के (अनुमदेम) = अनुकूलता में हर्ष का अनुभव करें। प्रभु ज्ञानी हैं और शक्तिशाली हैं, इसी से वे विजयशील हैं। हमारे संग्रामों में भी हमें विजय प्रभु के कारण ही प्राप्त होती है। ऐसा समझने पर हमें अहंकार नहीं होता और वास्तविक हर्ष प्राप्त होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- शुभ मति के द्वारा हम प्रभु का वर्धन करें। वे प्रभु हमें निरन्तर प्रेरणा दे रहे हैं । प्रभु ज्ञानी व शक्तिशाली हैं, इसीसे विजयी हैं, हम प्रभु की अनुकूलता में हर्ष का अनुभव करें।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (तं सिंहम्-इव) तं सिंहमिव (नानदतं बृहस्पतिम्) भृशं घोषयन्तं महद्राष्ट्रस्वामिनं (वृषणं जिष्णुम्) सुखवर्षकं जयशीलं (शिवाभिः-मतिभिः) कल्याणकरीभिर्वाग्भिः (सधस्थे) समानस्थाने सभाभवने (वर्धयन्तः) प्रोत्साहयन्तो भवेम, तथा (शूरसातौ भरे भरे) शूराणां सम्भजनस्थाने सङ्ग्रामे (अनुमदेम) अनुमोदयेम ॥९॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Exalting him with our thoughts and actions dedicated to peace, freedom and all round well being of life, supporting him waxing and roaring victorious as a lion in the world’s hall of yajnic freedom and progress, let us join Brhaspati, mighty and generous protector, for the sake of victory in every battle worthy of the brave, and win our goals and enjoy life with him.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सिंहाप्रमाणे शौर्यसंपन्न, राष्ट्रविषयक घोषणा करून सभाभवनात प्रजा राजाला प्रोत्साहित करते व युद्धात सैनिक त्याचे अनुमोदन करतात. ॥९॥

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