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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 67 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 67/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अयास्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒वो द्वाभ्यां॑ प॒र एक॑या॒ गा गुहा॒ तिष्ठ॑न्ती॒रनृ॑तस्य॒ सेतौ॑ । बृह॒स्पति॒स्तम॑सि॒ ज्योति॑रि॒च्छन्नुदु॒स्रा आक॒र्वि हि ति॒स्र आव॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒वः । द्वाभ्या॑म् । प॒रः । एक॑या । गाः । गुहा॑ । तिष्ठ॑न्तीः । अनृ॑तस्य । सेतौ॑ । बृह॒स्पतिः॑ । तम॑सि । ज्योतिः॑ । इ॒च्छन् । उत् उ॒स्राः । आ । अ॒कः॒ । वि । हि । ति॒श्रः । आव॒रित्यावः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अवो द्वाभ्यां पर एकया गा गुहा तिष्ठन्तीरनृतस्य सेतौ । बृहस्पतिस्तमसि ज्योतिरिच्छन्नुदुस्रा आकर्वि हि तिस्र आव: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अवः । द्वाभ्याम् । परः । एकया । गाः । गुहा । तिष्ठन्तीः । अनृतस्य । सेतौ । बृहस्पतिः । तमसि । ज्योतिः । इच्छन् । उत् उस्राः । आ । अकः । वि । हि । तिश्रः । आवरित्यावः ॥ १०.६७.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 67; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (बृहस्पतिः) वेदवाणी का पालक महाविद्वान् (द्वाभ्याम्-अवः) मनन और विज्ञान के द्वारा, अवर-सांसारिक व्यवहार के निमित्त (एकया परः) एक विज्ञानवाली बुद्धि से पर अर्थात् अध्यात्मक्षेत्र-मोक्षार्थ (गुहा तिष्ठन्तीः-गाः) सूक्ष्मता में-अध्यात्मधारा में विराजमान स्तुतियों को (अनृतस्य सेतौ) तथा नश्वर संसार के बन्धन में या पुनः-पुनः संसार की प्रवृत्ति में रहता है (तमसि ज्योतिः-इच्छन्) अन्धकार में प्रकाश को चाहता हुआ जैसा (उस्राः-उत्-अकः) रश्मियों-चेतनाओं को उत्प्रेरित करता है-उभारता है (तिस्रः-वि-आवः) तीन वाणियों-वेदत्रयी को अपने अन्दर प्रकट करता है, दूसरों के अन्दर भी ॥४॥

    भावार्थ

    वेदविद्या का वक्ता सांसारिक सुख व्यवहार को जहाँ सिद्ध करता है, वहाँ अध्यात्म-मोक्ष को भी सिद्ध करता है। संसार के बन्धन से तथा अज्ञान अन्धकार से अपने को पृथक् करता है एवं दूसरों को भी इनसे पृथक् होने की प्रेरणा देता है। वह ऐसा विद्वान् वेद का सच्चा प्रचारक आश्रयणीय है ॥४॥

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    विषय

    बृहस्पति रूप आत्मा का देह में वर्णन। उसको वेदत्रयी का साक्षात्कार।

    भावार्थ

    (बृहस्पतिः) बृहती, वाणी या चेतना का पालक आत्मा, (गुहा तिष्ठन्तीः) गुहा, बुद्धि या इस देह-गह्नर में विद्यमान (गाः) इन्द्रियों या देह में प्रस्तुत रक्तधाराओं को (द्वाभ्याम् अवः एकया परः) नीचे के दो और ऊपर एक द्वार से प्रेरित करता है। वह (अनृतस्य सेतौ) ऋत, ज्ञान या चेतना से रहित, निश्चेतन जड़ तत्त्व के बने (सेतौ) बन्धन रूप इस देह में (तमसि) घोर अन्धकार में (ज्योतिः इच्छन्) प्रकाश चाहता हुआ, (उस्राः ऊत् आ अकः) ऊर्ध्व मार्ग की ओर जाने वाली किरणों के तुल्य वाणियों को ऊपर प्रेरित करता है वा उत्तम रीति से साक्षात् करता है। और (तिस्रः आवः) तीनों ऋक्, यजु, साम रूप वाणियों को प्रकट करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अयास्य आंगिरस ऋषिः॥ बृहस्पतिर्देवता॥ छन्दः– १ विराट् त्रिष्टुप्। २–७, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। ८–१०,१२ त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्।

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    विषय

    एक-दो व तीन

    पदार्थ

    [१] (बृहस्पतिः) = ज्ञान का पति यह विद्वान् (द्वाभ्यां अव उ) = काम-क्रोध [ राग-द्वेष] रूप शत्रुओं से दूर होता है। ज्ञान के होने पर काम-क्रोध का नाश होता ही है। काम-क्रोध से दूर होकर (एकया) = इस अद्वितीय वेदवाणी से यह (परः) = उत्कृष्ट जीवनवाला बनता है। [२] ज्ञान प्राप्ति से पूर्व (गुहा तिष्ठन्तीः) = अज्ञानान्धकार रूप गुफा में ठहरी हुई और अतएव (अनृतस्य) = अनृत के (सेतौ) = बन्धन में पड़ी हुई (गाः) = इन्द्रियों को (उद् आकः) = अज्ञानान्धकार से बाहिर करता है । अब इसकी इन्द्रियाँ विषयों में ही नहीं फँसी रहतीं । [३] (बृहस्पतिः) = यह ज्ञान की वाणी का पति बनता है । (तमसि) = इस संसार के विषयान्धकार में (ज्योतिः इच्छन्) = यह फिर आत्मप्रकाश की प्राप्ति की इच्छा करता है । इसी उद्देश्य से (उस्त्राः) = ज्ञान किरणों को (उद् आक:) = अपने जीवन में प्रमुख- स्थान प्राप्त कराता है। ज्ञान विरोधी किसी भी व्यवहार को यह नहीं करता। और इस प्रकार (हि) = निश्चय से (तिस्रः) = तीनों ज्योतियों को (वि आवः) = विशेषरूप से प्रकट करता है । इन तीन ज्योतियों का ही उल्लेख 'त्रीणि ज्योतींषि सचते स षोडशी' इस मन्त्रभाग में है । बाह्य जगत् में ये 'अग्नि-चन्द्र व सूर्य' हैं। शरीर में ये 'तेजस्विता [अग्नि] आह्लाद [चन्द्र] व ज्ञान [सूर्य]' के रूप में हैं। यह बृहस्पति शरीर में तेजस्वितावाला होता है, मन में सदा आह्लादमय तथा मस्तिष्क में ज्ञानरूप सूर्यवाला होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम काम-क्रोध से दूर हों वेदवाणी के द्वारा उत्कृष्ट जीवनवाला बनें तथा'तेजस्विता, आह्लाद व ज्ञान' रूप ज्योतियों को अपने में जगाएँ ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (बृहस्पतिः) वेदवाचः पालयिता महाविद्वान् (द्वाभ्याम्-अवः) मननविज्ञानाभ्याम्, अवः-अवरव्यवहारे व्यवहारनिमित्तम् (एकया परः) एकया विज्ञानवत्तया प्रज्ञया परस्मिन् अध्यात्मक्षेत्रे मोक्षे मोक्षार्थं (गुहा तिष्ठन्तीः-गाः) सूक्ष्मतायामध्यात्मधारायां वा विराजमानाः स्तुतीः (अनृतस्य सेतौ) तथा अनृतस्य नश्वरस्य संसारस्य बन्धने पुनः पुनः संसारप्रवृत्तौ या वर्तते (तमसि ज्योतिः-इच्छन्) अन्धकारे प्रकाशमिच्छन्निव (उस्राः-उत्-अकः) रश्मीन् चेतनाः “उस्राः रश्मिनाम” [निघ० १।५] उत्प्रेरयति (तिस्रः-वि-आवः) तिस्रो वाचो विद्यास्त्रयीवेदरूपा स्वाभ्यन्तरे प्रकटयति, अन्येषु च ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Brhaspati, master of language, wishing for the light of knowledge and expression in the midst of the darkness of the web of the world of mutability, expresses the two upper levels of language, i.e., madhyama and vaikhari, which he expresses by two media of thought and word, and the one hidden below, i.e., Pashyanti, he apprehends through one, the deeper mind in meditation. Thus he reveals the three modes of language. (The fourth is Para, the silent mode of language in its originality beyond the world of mutability which can be realised in the highest state of Samadhi.)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    वेदविद्येचा वक्ता सांसारिक सुख व्यवहार जेथे सिद्ध करतो तेथे अध्यात्म-मोक्षही सिद्ध करतो. संसाराच्या बंधनातून व अज्ञान अंधकारातून स्वत:ला पृथक करतो व दुसऱ्यांनाही त्यापासून पृथक होण्याची प्रेरणा देतो. असा वेदाचा विद्वान प्रचारक स्वीकारणीय असतो. ॥४॥

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