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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 67 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 67/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अयास्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इन्द्रो॑ व॒लं र॑क्षि॒तारं॒ दुघा॑नां क॒रेणे॑व॒ वि च॑कर्ता॒ रवे॑ण । स्वेदा॑ञ्जिभिरा॒शिर॑मि॒च्छमा॒नोऽरो॑दयत्प॒णिमा गा अ॑मुष्णात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रः॑ । व॒लम् । र॒क्षि॒तार॑म् । दुघा॑नाम् । क॒रेण॑ऽइव । वि । च॒क॒र्त॒ । रवे॑ण । स्वेदा॑ञ्जिऽभिः । आ॒ऽशिर॑म् । इ॒च्छमा॑नः । अरो॑दयत् । प॒णिम् । आ । गाः । अ॒मु॒ष्णा॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रो वलं रक्षितारं दुघानां करेणेव वि चकर्ता रवेण । स्वेदाञ्जिभिराशिरमिच्छमानोऽरोदयत्पणिमा गा अमुष्णात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रः । वलम् । रक्षितारम् । दुघानाम् । करेणऽइव । वि । चकर्त । रवेण । स्वेदाञ्जिऽभिः । आऽशिरम् । इच्छमानः । अरोदयत् । पणिम् । आ । गाः । अमुष्णात् ॥ १०.६७.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 67; मन्त्र » 6
    अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 15; मन्त्र » 6
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्द्रः) शासक (दुघानां रक्षितारं वलम्) दोहनयोग्य गौओं के समान प्रजाओं के अवरोधक घेरनेवाले राज्यकर से हटानेवाले को, स्वाधीन करनेवाले को (करेण-इव रवेण विचकर्त) शस्त्रयुक्त हाथ के समान घोषणामात्र से विच्छिन्न करता है, तथा (स्वेदाञ्जिभिः) सुवेदित-प्रसिद्ध की हुई साधन शक्तियों से (आशिरम्-इच्छमानः) प्रजाओं को चाहता हुआ प्रजाओं का हित चाहता हुआ (पणिम्-अरोदयत्) जुआरी जन को दण्ड देकर रुलाता है (अमुष्णात्-गाः-आ) चोरी न कर सके, इसलिए प्रतिकार या प्रतिबन्ध के लिए दण्डविधान से पृथिव्यादि पदार्थों को आरक्षित करे या करता है ॥६॥

    भावार्थ

    शासक को अपना प्रभाव राष्ट्र में ऐसा बढ़ाना चाहिए कि प्रजा को बहकानेवाला, राज्य कर से रोकनेवाला कोई हो, तो उसे घोषणा मात्र से आतङ्कित कर दे। जुआरियों को दण्ड दे और राष्ट्र में ऐसा प्रबन्ध और प्रतिबन्ध की व्यवस्था बनाये रखे, जिससे कोई चोरी भी न कर सके ॥६॥

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    विषय

    सूर्य मेघ के दृष्टान्त से राजा का दुष्ट-दमन का कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (इन्द्रः) मेघों और जलों को विदीर्ण करने वाला विद्युत् (दुधानां रक्षितारम्) रसों से पूर्ण जलधाराओं को रोक रखने वाले (बलम्) मेघ को (करेण-इव) हिंसा वा आघातकारी साधन के सदृश तीव्र, तदनुरूप (रवेण) तीव्र, ध्वनि से भी (वि चकर्त्त) विविध प्रकार से छिन्न भिन्न करता है, इसी प्रकार (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् शत्रुओं को विदीर्ण करने वाला सेनापति वा तेजस्वी राजा (दुघानां) दुधार गौओं के सदृश ऐश्वर्य से राज्य को पूर्ण करने वाली (विशः) प्रजाओं के (रक्षितारम्) रुकावट डालने वाले (बलं) घेरा लगाने वाले प्रति-रोधक वर्ग की (करेण इव) कर, टैक्स के समान वा हिंसाकारी अपने प्रबल हाथ वा शत्रुनाशक शस्त्रबल के तुल्य बलशाली अपने (रवेण) आज्ञावचन के गर्जन से ही (वि चकर्त्त) विविध प्रकार से छिन्न भिन्न करे। जिस प्रकार (आशिरम् इच्छमानः) जल की इच्छा करता हुआ सूर्य वा विद्युत् (स्वेदांजिभिः) स्नेह गुण से युक्त जल को प्रकट करने वाली वा मेघोत्पादक किरणों से (आशिरम्) दूर २ तक फैलने वाले सूक्ष्म जलमय वाष्प की कामना करता हुआ (पणिम्) उस मेघ को (आरोदयत्) मानो रुलाता है, वर्षा करता है, जो उसके (गाः) तीव्र किरणों को (अमुष्णात्) चुरा लेता है। उसी प्रकार राजा भी (स्वेदांजिभिः) अपने अव्यक्त शासनों द्वारा वा स्नेह से प्रजा को बन्धनादि से छुड़ाने आदि से अपनी २ ख्याति वाले जनों के सहाय से (आशिरं) आशानुरूप ऐश्वर्य को प्राप्त करना चाहता हुआ (पणिम्) व्यवहारचतुर वैश्य वर्ग को वा व्यवहार के द्वारा प्रजावर्ग को खाने वाले जन वर्ग को (आरोदयत्) आंसू निकलवावे, उसको दण्डित करे, और जो (गाः अमुष्णात्) प्रजा की भूमियों और पशु आदि को चुरा लेता है, उनको देश से देशान्तर ले जाता है, अथवा—जो ‘पणि’ अर्थात् व्यवहार कुशल वैश्य वर्ग अपने अव्यक्त, गुप्त भाव वाले संकेत शब्दों से (आशिरम् इच्छमानः) ऐश्वर्य चाहता हुआ (दुघाः आरोदयत्) गौओं के सदृश प्रजाओं को रुलाता और अतिपीड़ित करता है, और (गाः) व्यापार के लोभ प्रजा की गौ आदि पशु सम्पदाको (अमुष्णात्) हर लेता है अर्थात् उनको द्रव्य के बदले ख़रीद कर देशान्तर भेजता है उसको राजा (करेण इव रवेण) कर, टैक्स और ‘अपने ‘रव’ अर्थात् शासन से (वि चकर्त्त) विशेष रूप से काटे, उस पर अर्थदण्ड अर्थात् भारी टैक्स लगाकर उसको दण्डित करे। इति पञ्चदशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अयास्य आंगिरस ऋषिः॥ बृहस्पतिर्देवता॥ छन्दः– १ विराट् त्रिष्टुप्। २–७, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। ८–१०,१२ त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्।

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    विषय

    करेण-रवेण

    पदार्थ

    [१] 'वल' वृत्र का ही दूसरा नाम है, यह ज्ञान पर परदे के रूप में [वल - veil] आया रहता है । इस (वृत्र) = काम के प्रबल होने पर ज्ञानेन्द्रियाँ अपना कार्य ठीक से नहीं करती। मानो यह वृत्र उन्हें चुरा ले जाता है और कहीं गुफा में छिपा रखता है। यहाँ इसी भाव को 'दुधानां रक्षितारम्' इन शब्दों से कहा गया है। ज्ञान का दोहन करनेवाली ज्ञानेन्द्रियाँ 'दुघ' हैं, 'वल' उनको छिपा रखता है, सो इनका रक्षिता कहलाया है । 'इन्द्र' - जितेन्द्रिय पुरुष वल को नष्ट करके इन इन्द्रियरूप गौओं को फिर वापिस ले आता है। वल के नष्ट करने का साधन 'करेण+रवेण' है, कर्मशील बनना और प्रभु के नामों का उच्चारण करना। क्रियाशीलता के अभाव में अशुभ- वृत्तियाँ पनपती हैं और प्रभु विस्मरण से उन कर्मों का गर्व हो जाने का भय बना रहता है। अहंकार भी 'वल' का ही दूसरा रूप है यह भी ज्ञान को नष्ट करनेवाला है । (इन्द्रः) = एक जितेन्द्रिय पुरुष (दुघानाम्) = ज्ञानरूप दुग्ध का दोहन करनेवाली इन्द्रियरूप गौवें के (रक्षितारम्) = चुराकर कहीं गुफा में रखनेवाले (वलम्) = वृत्रासुर को (करेण इव रवेण) = जैसे हाथ से उसी प्रकार रव से (विचकर्त) = काट डालता है। 'कर' का भाव क्रियाशीलता है, रव का नामोच्चारण क्रियाशील बनकर प्रभु नाम-स्मरण करता हुआ यह वासना को विनष्ट करता है और इस प्रकार इन्द्रियों का रक्षण करनेवाला बनता है । [२] यह (स्वेदाञ्जिभि:) = [अञ्जि = आभरण] पसीने रूप आभूषणों से (आशिरम्) = [ श्रियं = आश्रयणं] श्री को (इच्छमानः) = चाहता हुआ (पणिम्) = लोभवृत्ति को [वणिये की वृत्ति को ] (अरोदयत्) = रुलाता है और (गाः) = ज्ञानेन्द्रिय रूप गौवों को (अयुष्णात्) = [ आजहार सा० ] फिर वापिस ले आता है । लोभवृत्ति में मनुष्य कम से कम श्रम से अधिक से अधिक धन को लेना चाहता है, इस लोभ से उसकी बुद्धि मलिन हो जाती है इसीलिए यहाँ मन्त्र का ऋषि 'अयास्य' गहरे पसीने की कमाई को ही चाहता है, स्वेद उसका आभूषण ही बन जाता है। इस प्रकार यह लोभवृत्ति को नष्ट कर देता है, मानो उसे रुलाता है। श्रम से ही धन की कामना करता हुआ यह अपनी इन्द्रियों को स्वस्थ रखता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - वासना हमारी इन्द्रियरूप गौवों को चुरा लेती है। श्रम से ही धनार्जन की इच्छा करते हुए हम ज्ञानेन्द्रियों को स्वस्थ रखते हैं।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्रः) शासकः (दुघानां रक्षितारं वलम्) दोहनयोग्यानां गवामिव प्रजानामवरोधकं वलयितारमावरकमिव राज्यकराद् वारयितारं स्वाधीने कर्त्तारं (करेण-इव रवेण विचकर्त) शस्त्रयुक्तेन हस्तेन घोषणेन-घोषणमात्रेण चिच्छेद विच्छिनत्ति, तथा (स्वेदाञ्जिभिः) सुवेदिताभिः “स्वेदः-तद्यदब्रवीन्महद्वै यज्ञं सुवेदमविदामह इति तस्मात् सुवेदोऽभवत्तं वा एतं सुवेदं सन्तं स्वेद इत्याचक्षते” [गो० १।१।१] साधनशक्तिभिः (आशिरम्-इच्छमानः) प्रजाः-इच्छमानः “प्रजा वै पशव आशीः” [जै० १।१७४] (पणिम्-अरोदयत्) द्यूतकर्तारं जनम् “पणेः-द्यूतकर्तुः” [ऋ० ६।५३।३ दयानन्दः] दण्डं दत्त्वा रोदयति (अमुष्णात्-गाः-आ) चौर्यं न कुर्यात् तस्माच्चौर्यप्रतिकारार्थं दण्डविधानात् पृथिव्यादिपदार्थानारभेत “गोषु पृथिव्यादिपदार्थेषु” [ऋ० १।१९।५ दयानन्दः] ॥६॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, mighty ruling soul, wishing to taste the sweetness of milk mixed with soma, i.e., divine ecstasy with vibrations of grace, removes the veil of darkness covering the light of knowledge and divine speech with an act of will as if with a stroke of thunder and lightning, throws the demon away lamenting, recovers and enjoys the light of knowledge with the voice of divinity and showers of bliss in a state of clairvoyance.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    शासकाचा राष्ट्रात असा प्रभाव असावा की प्रजेला भ्रमित करणारा राज्याचा कर भरण्यास प्रतिबंध करणारा असा कुणी असेल तर त्याला शिक्षा केली पाहिजे. द्यूत खेळणाऱ्यास दंड द्यावा व राष्ट्रात प्रतिबंध करणारी अशी व्यवस्था असावी, की कुणीही चोरी करता कामा नये. ॥६॥

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