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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 67 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 67/ मन्त्र 7
    ऋषिः - अयास्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स ईं॑ स॒त्येभि॒: सखि॑भिः शु॒चद्भि॒र्गोधा॑यसं॒ वि ध॑न॒सैर॑दर्दः । ब्रह्म॑ण॒स्पति॒र्वृष॑भिर्व॒राहै॑र्घ॒र्मस्वे॑देभि॒र्द्रवि॑णं॒ व्या॑नट् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । ई॒म् । स॒त्येभिः॑ । सखि॑ऽभिः । शु॒चत्ऽभिः॑ । गोऽधा॑यसम् । वि । ध॒न॒ऽसैः । अ॒द॒र्द॒रित्य॑दर्दः । ब्रह्म॑णः । पतिः॑ । वृष॑ऽभिः । व॒राहैः॑ । घ॒र्मऽस्वे॑देभिः । द्रवि॑णम् । वि । आ॒न॒ट् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स ईं सत्येभि: सखिभिः शुचद्भिर्गोधायसं वि धनसैरदर्दः । ब्रह्मणस्पतिर्वृषभिर्वराहैर्घर्मस्वेदेभिर्द्रविणं व्यानट् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः । ईम् । सत्येभिः । सखिऽभिः । शुचत्ऽभिः । गोऽधायसम् । वि । धनऽसैः । अदर्दरित्यदर्दः । ब्रह्मणः । पतिः । वृषऽभिः । वराहैः । घर्मऽस्वेदेभिः । द्रविणम् । वि । आनट् ॥ १०.६७.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 67; मन्त्र » 7
    अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सः-ब्रह्मणः-पति) वह महान् राष्ट्र का पालक राजा (सत्येभिः-सखिभिः) सत्य आचरणवान्, समान धर्मवाले (शुचद्भिः-धनसैः) पवित्र मनवाले, धनपूर्ण प्रजाजनों के साथ (गोधायसं वि-अदर्दः) दूसरे के पृथिव्यादि पदार्थ के हड़पनेवाले चोर को नष्ट करता है (वृषभिः-वराहैः) सुखवर्षक वरणीय आहार के उपायों से प्राप्त आहार से युक्त (घर्मस्वेदिभिः) श्रम से प्राप्त करनेवालों के द्वारा दिये हुए (द्रविणं व्यानट् ) धन को जो प्राप्त करता है, वही शासक होने योग्य है ॥७॥

    भावार्थ

    जो राजा गुणवान्, पवित्र मनवाले सच्चे, प्रतिष्ठित, प्रमुख राष्ट्रिय जनों के सहयोग से अपहरणकर्त्ता को दण्ड देता है तथा पवित्र कार्य करनेवाले श्रेष्ठ अर्थात् सच्चाई से कमानेवालों के उपहाररूप में दिये धन को स्वीकार करता है, वह राजा होने योग्य है ॥७॥

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    विषय

    सूर्य के दृष्टान्त से राजा को संग्रह का उपदेश। पक्षान्तर में—आत्मा का प्राण-च्छिद्र-निर्माण आदि का वर्णन, आत्मा के धनसनि, वृष, वराह आदि नामों की व्याख्या।

    भावार्थ

    (सः) वह (ईम्) सर्वत्र, (सत्येभिः) सज्जनों के हितैषी, सत्याचरणशील, सत्यभाषी, (शुचद्भिः) तेजस्वी, अन्यों को भी पवित्र करने वाले, (धनसैः) नाना धनों, ऐश्वर्यों के देने, भोगने और प्राप्त करने वाले, राजा के धन को बढ़ाने वाले वृत्तिभोगी, वेतनबद्ध, (सखिभिः) राजा के समान आख्या वा नाम को धारण करने वाले अध्यक्षों से (ईं गो-धायसम्) जलधाराओं को रखने वाले मेघ को सूर्य जैसे वैसे ही (गो-धायसं) भूमि को रोक रखने वाले शत्रु को (वि-अदर्दः) विशेष रूप से छिन्न भिन्न कर। वह राजा (ब्रह्मणः पतिः) महान् राष्ट्र का पालक राजा (वृषभिः) वर्षणशील (वराहैः) स्वाहाकार युक्त यज्ञों से वा मेघों से और (धर्म-स्वेदेभिः) तीक्ष्ण ताप से स्वेदयुक्त शरीरों के के तुल्य (धर्म-स्वेदेभिः) क्षरणशील जलसहित गर्जना करने वाले मेघों से (द्रविणं) वेग से बहते जल के सदृश, (वृषभिः) बलवान् (वराहैः) उत्तम वचन बोलने वाले, (धर्म-स्वेदेभिः) तेजस्ताप से प्रस्वेद बहाने योग्य तपस्वी और परिश्रमी जनों से (द्रविणं व्यानट्) उत्तम धनैश्वर्य प्राप्त करे। (२) इसी प्रकार आत्मा वृद्धिशील देह का स्वामी ब्रह्मणस्पति है। वह (गो-धायसं) इन्द्रियों के धारक देह को अपने सखिभूत शुद्ध प्राणों के द्वारा विदीर्ण कर उन से इन्द्रिय छिद्रों को उत्पन्न करता है। सुखादि देने से वही ‘धनस’ वा ‘धनसनि’ हैं। बलवान् सुखप्रद होने से ‘वृष’ है, श्रेष्ठ ज्ञान देने से ‘वराह’ और निरन्तर सेचन होने से वे स्वेद अर्थात् क्षरित होते हैं अतः ‘धर्म स्वेद’ है, उनसे वह ‘द्रविण’ अर्थात् वेग और ज्ञान प्राप्त करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अयास्य आंगिरस ऋषिः॥ बृहस्पतिर्देवता॥ छन्दः– १ विराट् त्रिष्टुप्। २–७, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। ८–१०,१२ त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्।

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    विषय

    कैसे मित्र ?

    पदार्थ

    [१] (स) = वह (ईम्) = सचमुच (सत्येभिः) = सत्य का पालन करनेवाले, (शुचद्भिः) = अपने मनों को पवित्र बनानेवाले, (धनसैः) = धनों का संविभाग करनेवाले, अर्थात् सारे का सारा स्वयं न खा जानेवाले (सखिभिः) = मित्रों के साथ (गोधायसम्) = हमारी इन्द्रियरूप गौओं को चुराकर कहीं अज्ञानान्धकार में छुपाकर रखनेवाले वलः वृत्र-वासनात्मक शत्रु को (वि अदर्ष:) = विदीर्ण करता है। संसार में मित्रों का संग ही हमें बनाता व बिगाड़ता है। अच्छे मित्रों के साथ हम बन जाते हैं, बुरों के साथ बिगड़ जाते हैं। यहाँ हमारे मित्र 'सत्य, शुचि व धनों का संविभाग करनेवाले' हैं । इससे उत्तम मित्र हो ही क्या सकते हैं ? [२] यह उत्तम मित्रों के साथ 'वल' का विदारण करनेवाला (ब्रह्मणस्पतिः) = ज्ञान का स्वामी बनता है और (वृषभिः) = पुण्यों से पुण्यात्मक कर्मों से (वराहैः) = [वरम् आहन्ति =गच्छति] शुभ उपायों के अवलम्बन से तथा (घर्मस्वेदेभिः) = [घृ-क्षरण] स्वेद के क्षरण से, पसीना बहाने के द्वारा, (द्रविणम्) = धन को (व्यानट्) = प्राप्त करता है। ज्ञानी बनकर यह धन को पुण्यात्मक कर्मों से शुभ उपायों से तथा खूब मेहनत से [ पसीना बहाकर ही] कमाता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ-हमारे मित्र सत्यवादी, पवित्र व निःस्वार्थी हों। हम पुण्य व शुभ कामयुक्त उपायों से धनार्जन करें।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सः-ब्रह्मणः-पतिः) स महतो राष्ट्रस्य पालकः (सत्येभिः-सखिभिः-शुचद्भिः-धनसैः) सत्याचरणवद्भिः समानधर्मकैः पवित्रमनस्कैर्धन-सम्भक्तैर्धनपूर्णैः सह (गोधायसं वि-अदर्दः) अन्यस्य पृथिव्यादिपदार्थस्य धारकं ग्रहीतारं चौरं विदारयति नाशयति (वृषभिः वराहैः-घर्मस्वेदिभिः-द्रविणं व्यानट्) सुखवर्षकैर्वरणीया-हारोपायप्राप्ताहारयुक्तैः “वराहः-वराहारः” [निरु० ५।४] श्रमेण सुप्राप्तकर्तृभिर्दत्तं धनं प्राप्नुयात् स शासकः ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Brahmanaspati, master, protector, promoter and ruler of the world of existence, blest with divine light, vision and speech breaks down the thief of cows, i.e., hoarders, exploiters and destroyers of the wealth of life. He breaks them down with the help and cooperation of friends and associates who are generous, self-fulfilled, fervently dedicated to truth, purity of conduct, laws of Dharma and rectitude, and blest with ample means and materials for the achievement of their goal. Thus does he recover and establish wealth and common wealth for the individual and the society.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो राजा गुणवान, पवित्र मनाच्या, खऱ्या प्रतिष्ठित, प्रमुख राष्ट्रीय जनांच्या सहयोगाने अपहरणकर्त्याला दंड देतो व पवित्र कार्य करणाऱ्या श्रेष्ठ अर्थात् प्रामाणिकपणाने कमाविणाऱ्या व उपहाररूपाने दिलेल्या धनाचा स्वीकार करतो. तो राजा होण्याच्या योग्य आहे. ॥७॥

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