ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 96/ मन्त्र 11
ऋषिः - बरुः सर्वहरिर्वैन्द्रः
देवता - हरिस्तुतिः
छन्दः - भुरिगार्चीजगती
स्वरः - निषादः
आ रोद॑सी॒ हर्य॑माणो महि॒त्वा नव्यं॑नव्यं हर्यसि॒ मन्म॒ नु प्रि॒यम् । प्र प॒स्त्य॑मसुर हर्य॒तं गोरा॒विष्कृ॑धि॒ हर॑ये॒ सूर्या॑य ॥
स्वर सहित पद पाठआ । रोद॑सी॒ इति॑ । हर्य॑माणः । म॒हि॒ऽत्वा । नव्य॑म्ऽनव्यम् । ह॒र्य॒सि॒ । मन्म॑ । नु । प्रि॒यम् । प्र । प॒स्त्य॑म् । अ॒सु॒र॒ । ह॒र्य॒तम् । गोः । आ॒विः । कृ॒धि॒ । हर॑ये । सूर्या॑य ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ रोदसी हर्यमाणो महित्वा नव्यंनव्यं हर्यसि मन्म नु प्रियम् । प्र पस्त्यमसुर हर्यतं गोराविष्कृधि हरये सूर्याय ॥
स्वर रहित पद पाठआ । रोदसी इति । हर्यमाणः । महिऽत्वा । नव्यम्ऽनव्यम् । हर्यसि । मन्म । नु । प्रियम् । प्र । पस्त्यम् । असुर । हर्यतम् । गोः । आविः । कृधि । हरये । सूर्याय ॥ १०.९६.११
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 96; मन्त्र » 11
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(रोदसी) द्युलोक पृथिवीलोक को (महित्वा) अपने महत्त्व से (आहर्यमाणः) भलीभाँति स्वाधीन करता हुआ (नव्यं नव्यम्) प्रत्येक स्तुतियोग्य (प्रियम्) रोचक (मन्म) मनन को (हर्यषि) तुरन्त चाहता है (असुर) हे प्राणप्रद परमात्मन् ! तू (हर्यतम्) कमनीय (पस्त्यम्) गृह-मोक्षधाम को (हरये) जो तुझे चाहता है उपासक (सूर्याय) विद्यासूर्य-विद्वान् के लिए (गोः-आविः कृधि) गो दूध के समान प्रादुर्भूत कर-सम्पन्न कर ॥११॥
भावार्थ
द्युलोक से लेकर पृथ्वीलोकपर्यन्त संसार को अपने महत्त्व से अधीन रखनेवाला परमात्मा प्रत्येक प्रशंसनीय व रोचक विचार को या स्तुति को चाहता है-जिसके प्रतिकार में जो विद्वान् उपासक के लिए गो के दूध की भाँति मोक्ष को आविष्कृत करता है-सम्पादित करता है, देता है ॥११॥
विषय
वेदवाणी के घर का प्रादुर्भाव
पदार्थ
[१] हे प्रभो! आप अपनी (महित्वा) = महिमा से (रोदसी) = इस द्यावापृथिवी में (आहर्यमाणः) = सर्वत्र गतिवाले हैं। एक-एक पदार्थ में आपकी महिमा का दर्शन होता है। [२] इस द्यावापृथिवी व लोक-लोकान्तरों का निर्माण करके (नु) = अब आप (नव्यं नव्यम्) = अत्यन्त स्तुत्य [ नु स्तुतौ ] कर्म का उपदेश देनेवाले [ नव गतौ ] (मन्म) = ज्ञान को (हर्यसि) = प्राप्त कराते हैं । यह ज्ञान (प्रियम्) = तृप्ति व प्रीति का कारण बनता है। [३] हे (असुर) = ज्ञान को देकर वासनाओं को सुदूर क्षिप्त करनेवाले प्रभो ! [अस्यति] आप (हरये) = प्रकाश की किरणोंवाले (सूर्याय) = निरन्तर गतिशील पुरुष के लिए (गो:) = इस वेदवाणी के (हर्यतम्) = कान्त, चाहने योग्य (पस्त्यम्) = गृह को (प्र आविष्कृधि) = प्रकर्षेण आविर्भूत करते हैं । जो भी व्यक्ति 'हरि व सूर्य' बनता है, प्रभु उसके लिए इस वेदवाणी के घर को प्रकाशित कर देते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम स्वाध्यायशील व क्रियाशील होंगे तो वेद के तत्त्वार्थ को समझनेवाले बनेंगे ।
विषय
ज्ञानप्रद प्रभु।
भावार्थ
हे स्वामिन् ! प्रभो ! तू (महित्वा) महान् सामर्थ्य से (रोदसी हर्यमाणः) आकाश और भूमि दोनों को कान्तियुक्त, प्रकाशित करता हुआ (नव्यम्-नव्यम् मन्म हर्यसि) सूर्य जैसे नये से नया दिन प्रकट करता है ऐसे ही तू भी नया ही नया मनन करने योग्य ज्ञान प्रकट है। हे (असुर) प्राणों के देने हारे! हे बलशालिन् ! तू (हरये सूर्याय) सब लोकों के प्रेरक सूर्य के और (गोः) इस भूमि के लिये भी (पस्त्यम्) गृह के तुल्य इस महान् आकाश को (आविः कृधि) प्रकट करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्वरुः सर्वहरिर्वैन्द्रः। देवताः—हरिस्तुतिः॥ छन्द्र:- १, ७, ८, जगती। २–४, ९, १० जगती। ५ आर्ची स्वराड जगती। ६ विराड् जगती। ११ आर्ची भुरिग्जगती। १२, १३ त्रिष्टुप्॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (आहर्यमाणः) समन्तात्स्वाधीनीकुर्वाणः (महित्वा) महत्त्वेन (नव्यं नव्यं प्रियं-मन्म हर्यसि) स्तुत्यं स्तुत्यं मननं प्रियं क्षिप्रं कामयसे (असुर) हे प्राणप्रद परमात्मन् ! (हर्यतं पस्त्यं हरये सूर्याय) कमनीयं गृहं मोक्षं त्वां यो ग्रहीता तस्मै-उपासकमनुष्याय विद्यासूर्याय (गोः-आविः कृधि) गोर्दुग्धमिव प्रादुर्भावय, “अत्र लुप्तोपमानोपमावाचकालङ्कारः” ॥११॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Lord of love and beauty, loved and loving all, you beautify and beatify the heaven and earth with new and newer favours, you love and create fresh and rising thoughts of admiration and adoration. O lord of vital energy and inspiration, pray open the homely state of earth and humanity to the illumination of the sun and light divine.
मराठी (1)
भावार्थ
द्युलोकापासून पृथ्वीलोकापर्यंत जगाला आपल्या अधीन ठेवणारा परमात्मा प्रत्येक प्रशंसनीय व रोचक विचार किंवा स्तुती स्वीकारतो व विद्वान उपासकासाठी गायीच्या दुधाप्रमाणे आनंददायक मोक्ष प्रदान करतो. ॥११॥
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